करण सिंह शिवतलाव
अंधे का पुत्र अंधा ने कराया महाभारत का युद्ध अथवा मेरी वरमाला सुतपुत्र के लिए नहीं है ❓❓❓
करण सिंह शिवतलाव
भारतीय शास्त्र में वर्णित पंच पूज्यनीय कन्या में से एक पंचाल राजकुमारी द्रोपदी का प्रथम कथन मेरी वरमाला सुतपुत्र के लिए नहीं है तथा इन्द्रप्रस्थ की महारानी पांचाली का कथन अंधे का पुत्र अंधा में से महाभारत के युद्ध के लिए उत्तरदायी कारण कौनसा है? यह आज समझने का विषय लिया गया है। कुछ विद्वान का मत है कि महाभारत के युद्ध का उत्तरदायी कारण हस्तिनापुर की राजसभा में द्रोपदी के वस्त्र हरण का असफल प्रयास था। उपरोक्त तीनों कारण द्रोपदी नामक पात्र से जुड़े हुए है, इसलिए द्रोपदी के चरित्र चित्रण की आवश्यकता है।
द्रोपदी जिसको कृष्णा तथा पांचाली उपनाम से जाना जाता है, जिसे भारतीय शास्त्रकारों ने पंच पूजनीय कन्याओं की श्रेणी में रखा है। कुछ व्याख्याकारों ने तो इन पंच कन्या के स्मरण मात्र से नारी के उद्धार की भी बात कह दी है। द्रोपदी महाभारत कथा की धर्म के पक्ष में खड़ी एक मात्र महिला योद्धा है, जो रणभूमि में शस्त्र तो नहीं उठाये लेकिन सदैव रणभूमि में उपस्थित रही। धर्मयुद्ध में धर्म की ओर से बनाई जा रही रणनीति के रणनीतिकारों में से एक रणनीतिकार द्रोपदी भी थी। द्रोपदी का धर्म के पक्ष की योद्धा होना, उसे सत्य, अच्छाई व शुभ शक्ति के अधिक नजदीक रखती है अथवा अन्य शब्दों में कहा जाए तो द्रोपदी महाभारत की नायिका है। किसी भी कहानी में नायक तथा नायिका का अच्छे पात्र के रुप में गिना जाता है तथा नायक अथवा नायिका जिससे आहत होने से कहानी का निर्माण होता है। अत: महाभारत का सबसे उपयुक्त कारण द्रोपदी के चीरहरण का असफल प्रयास को बताया जाना सबसे उपयुक्त कारण हो सकता है। अब द्रोपदी के जन्म के विषय थोड़ा प्रकाश डाला जाता है। महाभारत की कथा में वर्णित है कि गुरुकुल के विप्र एवं क्षत्रिय मित्र की बचपन की वचन के अनुसार दोनों की सम्पत्ति को बराबर उपभोग के निमित्त राजा द्रुपद के पास विप्र द्रोण सहायता मांगने गया लेकिन सत्ता तथा हेसियत के मद में मदहोश द्रुपद ने द्रोण की सहायता करने की बजाय परिहास किया। यह घटना महाभारत के युद्ध के कारणों में से एक है। द्रोण अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए अपने शिष्य हस्तिनापुर के राजकुमारों से गुरु दक्षिणा में द्रुपद को बंधक बनाकर लाना मांगा। कौरव तो द्रुपद के हाथों पराजित हो गए, लेकिन पांडव द्रुपद को बंदी बनाने में सफल हुए। द्रुपद से द्रोण ने अपने पुत्र अश्वस्थामा के लिए आधा राज्य तथा संपदा छीन कर एक गाय द्रुपद के अधिकार क्षेत्र से ली। इसके प्रतिशोध के लिए द्रुपद ने यज्ञ कर द्रोण हंता पुत्र धृष्टद्युम्न को धारण किया, उसके साथ उसकी बहन द्रोपदी भी प्राप्त हुई। इस प्रकार द्रोपदी का जन्म प्रतिशोध की अग्नि से हुआ। श्री कृष्ण के द्रुपद से मधुर संबंध थे, उनकी मदद से पांडवों को लाक्षागृह के बाद प्रकाश में लाने की योजना को मूर्त रुप दिया गया, द्रोपदी स्वयंबर में अर्जुन ने लक्ष्यभेदन किया तथा द्रोपदी पांचों पाण्डवों की अर्द्धांगिनी बन गई। इस प्रकार द्वारिका, पंचाल व पांडव नामक तीन शक्ति का एक मित्र संगठन बना। इसमें राजकुमारी द्रोपदी ने सभी प्रथम महाराजा श्रेणी, द्वितीय राजपुत्र श्रेणी तथा तृतीय नरेश श्रेणी की पराजय के बाद चतुर्थ पंक्ति में राजा श्रेणी में से उठा कर्ण को यह कहकर रोका की मेरी वरमाला सूत पुत्र के लिए नहीं है। हर असल राजा श्रेणी में राज्य आते थे, जो आर्थिक, सैन्य तथा बाह्य मामले में महाराज श्रेणी के राज्यों के अधीन होते थे। नरेश श्रेणी के आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते थे लेकिन विदेशनीति के मामले में महाराज श्रेणी के साथ संयुक्त रहते थे। राजपुत्र महाराज श्रेणी के राजाओं के पुत्र होते थे। वास्तव में राजा श्रेणी से पहले विप्र श्रेणी का अधिकार होता है क्योंकि यह श्रेणी सभी प्रकार के राजकीय कर, दंड तथा नागरिक कर्तव्य से मुक्त स्वतंत्र होती थी, इनके पास शक्ति तथा शास्त्र दोनों होते थे लेकिन किसी प्रकार राजसत्ता नहीं होती थी। वे सभी महाराजा, नरेश तथा राजा श्रेणी से दान प्राप्त करने का अधिकार रखते थे। कर्ण राजा श्रेणी राज्य अंगदेश का राजा था, जो महाभारत के महादेश बना तथा उसके वंशज महाराजा कहलाए। द्रोपदी राजा श्रेणी को गुलाम नागरिक तुल्य मानती थी, इसलिए उसने सूत पुत्र के वरमाला नहीं है कहकर कर्ण को प्रतियोगिता में भाग लेने से रोका गया। अर्जुन उस समय विप्र श्रेणी में से आया था, जो राजा श्रेणी से प्रथम आने का अधिकार रखती थी। सूत पुत्र की गाली को भी कर्ण का द्रोपदी को निचे दिखाने का कारण रहा, इसलिए इसे भी महाभारत का उत्तरदायी कारणों में से एक माना जाता है।
इन्द्रप्रस्थ के महल के दर्शन के क्रम में दुर्योधन एक जलाशय में गिर जाता है, अपने देवर की यह दशा देखकर द्रोपदी अपनी हसी रोक नहीं पा रही थी और अनायास निकल गया अंधे का पुत्र अंधा, बाद उसे पता चला की यह देवर का परिहास नहीं जेष्ठ पिताश्री को गाली हो गई है लेकिन तीर कमान से तथा बात जबान निकलने के बाद वापस नहीं होती है, इसका मात्र प्रायश्चित तथा क्षमा याचना ही एक मात्र रास्ता होता है। देवर का परिहास अपराध नहीं पारिवारिक प्रेम का द्योतक होता है जबकि जेष्ठ पिताश्री को गाली दुर्योधन का नहीं युधिष्ठिर का अपमान था, जिसे महाभारत के युद्ध का उत्तरदायी कारण बनाना दुर्योधन की मूर्खता कही जा सकती है।
मेरी वरमाला किसी सुतपुत्र के लिए नहीं है तथा अंधे का पुत्र अंधा दोनों ही महाभारत के युद्ध के गौण कारण है। पांचालों का प्रतिशोध द्रोण से था, इसलिए महाभारत के युद्ध का अन्य कारण हो सकता है लेकिन द्रोपदी की लज्जा भंग की कुचेष्टा अवश्य ही निंदनीय है लेकिन यह कारण ही धर्मयुद्ध कहलाने वाले महाभारत के युद्ध को रचने का आधार नहीं बना। महाभारत के युद्ध का असली कारण तो नीति शास्त्र की वह उक्ति बनी जिसमें अपूर्ण मानव को राजा बनने से वंचित रखती है। धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता उसकी महत्वाकांक्षा की राह का बाधक बनी जो उसे महाराजा नहीं महाराजा का प्रतिनिधि बनाया। इसलिए महाभारत युद्ध का असली दोषी दुर्योधन नहीं धृतराष्ट्र था।
चक्रवर्ती सम्राट भरत के भारत में वंशवाद व जेष्ठता को नहीं, योग्यता को प्रतिनिधित्व का आधार बनाया रखा गया था। इस हिसाब से देवव्रत भीष्म प्रथम योग्य था, उसने अपनी योग्यता की बलि पिता के प्रेम में दे दी तथा सन्तानहीन रहने का निर्णय किया। धृतराष्ट्र से पाण्डु अधिक योग्य था। इसलिए धृतराष्ट्र के हक का दावा गलत था। दुर्योधन से युधिष्ठिर का पलड़ा योग्यता में कई गुना भारी था। इसलिए दुर्योधन की हट अनुचित थी। महाभारत का मुख्य उत्तरदायी कारण युधिष्ठिर का हक की लड़ाई लड़ना था।
महाभारत की कहानी में युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव नायक थे जबकि भगवान श्री कृष्ण महानायक थे। बताया जाता है कि महाभारत के रचनाकार भगवान श्री कृष्ण थे। उन्होंने ने सांस्कृतिक दृष्टि एक संगठित किया को राजनैतिक रुप से एक करने के लिए महाभारत की रचना की उसमें युद्ध एक अंग मात्र है। महाभारत धर्म व अधर्म के मध्य संघर्ष का नाम था। संकीर्णता तथा संकुचन अधर्म की ओर लेकर चलती है जबकि व्यापकता या फैलाव धर्म है। मानवीयता, वैश्विक एकता तथा नव्य मानवतावाद धर्म है तथा जातिवाद, सम्प्रदायिकता अधर्म की राह है। अत: महाभारत के युद्ध असली कारक श्रीकृष्ण की विराट योजना के बाधक तत्व शकुनि था। शकुनि उस बुद्धि का नाम है, जो जातिगोष्ठी के अस्तित्व को मानव समाज में मिलने नहीं देते है। महाभारत के युद्ध का असली कारण शकुनि नीति थी। जो जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, रंग, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के नाम पर विद्वेष, वैमनस्य, द्वंध तथा बिखराव को जन्म देते है, नक्सलवादी, जातिवादी, साम्प्रदायवादी, वंशवादी, नस्लवादी, लैंगिक भेद सृजनकर्ता, आतंकवादी, रंगभेदकर्ता, क्षेत्रवादी, कट्टरपंथी, पाखंडी, आडंबरी, रुढ़िवादी, अंधविश्वासी, जड़तावादी, विध्वंसकारी, हिंसक, अनैतिक, झुठे, तथा मिथ्याचारी सब अधर्म के यौद्धा है, अंधे धृतराष्ट्र की सेना है, जबकि नव्य मानवतावादी, एक अखंड मानव समाज के हिमायती, विश्व एकता के समर्थक, सर्वजन हितैषी तथा प्रगतिशील सोच रखने वाले धर्म योद्धा है। पांडु पक्ष है।
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