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 रियासत ज़बरहेड़ (वर्तमान झबरेड़ा) हरिद्वार का इतिहास और 

उससे लंढौरा रियासत की उत्पत्ति

   1398 ई॰ में तैमूर लंग से लड़ने वाले प्रसिद्ध योद्धा जोगराज सिंह पंवार की राजधानी झबरेड़ा हरिद्वार थी। इनके वंशज राव बाहमल शाहजहां के समय के झबरेड़ा के प्रसिद्ध जमींदार थे। बाबा बाहमल का झबरेड़ा में मन्दिर (स्मारक) बना हुआ है तथा आज भी आसपास के पंवार गोत्र के गुर्जर उनको अपना वंशज मानते है  तथा लड़के की शादी में बाबा बाहमल के मन्दिर पर जाकर लडके कि चोटी कटवाने की प्रथा है। ये चोटी काटने का कार्य ग्राम भगतोवाली के गुर्जर बिरादरी के भगत पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं।
राव सभा चन्द राव बाहमल के बड़े पुत्र थे तथा उनके समय में इस क्षेत्र में रोहिला डकैतों का आतंक था। राव सभा चन्द ने उनका डटकर मुकाबला किया तथा क्षेत्र में शान्ति स्थापित की। जब यह खबर औरंगजेब को मिली तो औरंगजेब ने समझौते में राव सभा चन्द को 596 गांव एवं सम्पूर्ण जंगल एरिया सौंप दिये। वर्षं 1739 ई में नादिर शाह ने दिल्ली को लूटा था और मुगलो ने अपना सम्मान खो दिया था। तथा मौहम्मद शाह ने 600 गाॅव सभाचन्द को दे दिया थे। वास्तव में रोहिला दिल्ली पर कब्जा करना चाहते थे लेकिन उनके इस काम में यह गुर्जर रियासत बाधक थी उस वक्त नजीबुदौला रोहिला ने इस भूमि के हस्तांतरण को स्वीकार कर लिया था। जब नजीबुदौला 1759 ई में गर्वनर बना तो उसने राजा नाहर सिॅह पुत्र राजा सभाचन्द का दिये गये 600 गाॅव में 505 गाॅव व 31 मजरो पर पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये थे।
राव सभा चन्द की तरह ही उनका पुत्र राजा नाहर सिंह ने भी रोहिलाओं को परास्त किया तथा उनको कभी गंगा नदी पार नहीं करने दी। नाहर सिंह के समय में झबरेड़ा रियासत के पास 1141 गांव हो गये थे। राजा नाहर का साम्राज्य एक समय में अम्बाला से लेकर सरधना तक रहा। राजा नाहर सिंह का विवाह 14 साल की उम्र में ग्राम बलवा (मु0नगर) में हुआ था। राजा नाहर सिंह के पुत्र का नाम रामदयाल था जो उनको बलवे वाली पत्नी से उत्पन्न हुआ था। लेकिन राजा नाहर सिंह ने 30 साल की उम्र में दूसरा विवाह एक मुस्लिम विदेशी महिला शाफरा बानो से कर लिया जो बहुत ही सुन्दर महिला थी तथा और सहारनपुर में रहती थी। शाफरा बानो से राजा नाहर सिंह को एक पुत्र और उत्पन्न हुआ जिसका नाम गुमान सिंह था। गुमान सिंह बहुत होशियार एवं प्रभावशाली व्यक्ति था तथा राजा नाहर सिंह का लगाव भी गुमान सिंह के प्रति अधिक था और उन्होंने सारी जिम्मेदारियां गुमान सिंह को दी हुई थी और इस तरह राजा नाहर सिंह की मृत्यु की पश्चात गुमान सिंह झबरेडा की गद्दी पर बैठ गया।
रामदयाल ने बड़ा होने के बावजूद इसका कोई विरोध नहीं किया। चूंकि रामदयाल बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था अतः उन्होंने राजगद्दी का कोई मोह नहीं किया। लेकिन रामदयाल के बड़े बेटे सवाई सिंह को गुमान सिंह कदापि स्वीकार्य नहीं था। वह गुमान सिंह को राजा मानने को ही तैयार नहीं था और एक दिन गृृहयुद्ध हुआ। इस युद्ध में सवाई सिंह ने गुमान सिंह और उसकी मां शाफरा बानो को मार गिराया। अपने बेटे सवाई सिंह के इस कृत्य को देखकर रामदयाल बहुत दुखी हुआ और सन् 1792 में आधी रात को झबरेड़ा छोड़कर एक छोटे से गांव लंढौरा चला गया। उनके पीछे सभी मंत्री और  अधिकारी भी लंढौरा चले गये। इस विषय में फिर कभी पुत्र और पिता में कोई बातचीत नहीं हुई तथापि त्यौहारो पर दोनो परिवार मिलते रहे। इस तरह कुछ गांव बेटे (सवाई सिंह झबरेड़ा) और कुछ गांव पिता (रामदयाल लंढौरा) के पास रह गये। 
रामदयाल ने लंढौरा जाकर दूसरा विवाह श्रीमती धनकुंवर से कर लिया। उधर सवाई सिंह श्रीमती सदा कुमारी से विवाह करके झबरेड़ा की राजगददी पर बैठ गया। सवाई सिंह के बाद सन् 1825 में उनका पुत्र बध्धन सिंह रईस झबरेड़ा की राजगद्दी पर बैठा। बध्धन सिंह रईस, इतिहासकारों के अनुसार बहुत ही विद्वान और विख्यात था। बध्धन सिंह रईस के बाद उनके बड़े पुत्र रोहल सिंह ने झबरेड़ा की बागडौर संभाली और इसी तरह राजा रोहल सिंह ने 1865 में झबरेड़ा की राजगद्दी अपने पुत्र कदम सिंह को सौंप दी। कदम सिंह का विवाह पीरवाला मेरठ में हुआ था। कदम सिंह के तीन पुत्र हुए  पिरथी सिंह, रिसाल सिंह व बलदेव सिंह। पिरथी सिंह का विवाह श्रीमती फूल कुँवर के साथ अमरपुर से हुआ था जिससे उन्हें दो पुत्र भरत सिंह व चरत सिंह हुए।
उधर रामदयाल ने लंढौरा जाकर झबरेडा की तरह बाबा बाहमल व काली के मंदिर बनवाये और उनको धनकुंवर से खुशहाल सिंह पुत्र उत्पन्न हुआ। खुशहाल सिंह ने 28.03.1812 में रामदयाल सिॅह की मृत्यु के उपरान्त लण्ढौरा की गददी सम्भाली। खुशहाल सिंह का विवाह परिक्षितगढ़ से लाडकुमारी के साथ हुआ इस बीच सम्पत्ति के बंटवारे को लेकर लण्ढौरा व झबरेडा में दोबारा विवाद शुरू हो गया जिसका निस्तारण परिक्षितगढ़ के उत्तराधिकारीयों ने निपटवाया।  खुशहाल सिंह की 1829 में मृत्य हो गयी उस समय उनको कोई पुत्र नही था। लेकिन उनकी पत्नि गर्भवती थी जिससे एक पुत्र हुआ जिसका नाम हरवंश सिॅह रखा गया। 1849 मेें लाडकुमारी के निधन के बाद उनका पुत्र हरवंश सिंह लंढौरा की राजगद्दी पर बैठा। हरवंश सिंह की जल्द मृत्यु होने के कारण उनका पुत्र रघुवीर सिंह बाल्यावस्था 1857 ई में लंढौरा का उत्तराधिकारी बना। रघुवीर सिंह का विवाह श्रीमती धर्मकुमारी के साथ पीर नगर मेरठ से हुआ था। श्रीमती धर्मकुमारी से रघुवीर सिंह को पुत्र प्राप्ति हुई जिसका नाम जगत प्रकाश था। 1868 मे राजा रघुवीर सिंह की मृत्यु हो गयी।
लेकिन 10 वर्ष की उम्र में जगत प्रकाश की भी मृत्यु हो गई और लंढौरा की गद्दी खाली हो गई।  अब श्रीमती कमला कुवंर (रघुवीर सिंह की माता) को लंढौरा के लिय कोई वारिस चाहिए था तो रानी ने अपने मुंडलाना के किसी रिष्तेदार को लंढौरा की जिम्मेदारी दे दी। इस पर पंवार गौत्र के गुर्जरों ने एतराज जताया। झबरेड़ा के राजा कदम सिंह ने भी अपनी आपत्ति दर्ज की लेकिन अपने किसी भी पुत्र को गोद देकर लंढौरा भेजने से स्पष्ट मना कर दिया। तब बिरादरी की एक बड़ी पंचायत हुई कि लंढौरा रियासत पंवार गोत्र की जागीर है अतः उस पर पंवार गोत्र का ही व्यक्ति उत्तराधिकारी होना चाहिए। पंचायत के अनुसार श्रीमती कमला कुवंर (रघुवीर सिंह की माता) ने गांव जन्हेड़ा, सहारनपुर से बलवन्त सिंह पुत्र श्री रामनिवास (पंवार गोत्र) को गोद लिया और सन् 1899 में बलवन्त सिंह को लंढौरा का उत्तराधिकारी घोषित किया।
बलवन्त सिंह ने दो विवाह किये। पहली पत्नी का नाम श्रीमती रामकुंवर था जिससे उनको एक बेटी कृष्णा कुमार हुई और दूसरा विवाह सरस्वती देवी के साथ हुआ जिससे उनको कृष्ण कमार और नरेन्द्र कुमार दो पुत्र उत्पन्न हुए। 
वास्तव में देखा जाये तो झबरेड़ा व लंढौरा का बंटवारा पिता व पुत्र का बटवारा था जिसकी जड़  शाफरा बानो नामक स्त्री व उससे उत्पन्न पुत्र था। 

संदर्भ: 1 The sort History of the Gurjar written by Rana Ali Hasan Chouhan. 2 सहारनपुर जिला गजेटियर।

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कन्हाई प्रसाद चौरसिया (वार्ता) 12:19, 12 अप्रैल 2020 (UTC)उत्तर दें

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☆★संजीव कुमार (✉✉) 20:54, 26 जुलाई 2020 (UTC)उत्तर दें

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