संपाती रामायण का एक पात्र है। हिन्दू धर्म में, सम्पाती एक गरुड़ रूपी पात्र था अरुण नामक गरुड़ का पुत्र था। संपाती जटायु का बड़ा भाई था। जब सभी वानर - भालू सीताजी की खोज में निकले थे। तो सभी थक हार कर समुद्र किनारे सीता माता की खोज में बैठे थे। उन्हें सीता माता का पता लगाना मुश्किल लग रहा था। तभी वहां पर उनकी भेंट संपाती नाम के गरुड़ से हुई। संपाती ने ही उन्हें बताया था कि सीतामाता लंका में अशोक वाटिका में है। संपाती द्वारा मिली इस जानकारी से सभी के मन में उत्साह और आश्वासन जागृत हुआ। लेकिन जानकारी मिलने के बाद भी मुश्किल यह थी कि कैसे इस विशाल समुद्र को लांघ कर पार किया जाए। सभी वानरों और भालुओं को समुद्र लांघने में संदेह था। तब हतोत्साह वानरों और भालुओं को जामवंत उत्साह देते हुए श्री हनुमानजी से कहते है - पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।। कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होई तात तुम पाई।। आप पवन पुत्र हो, बुद्धि,विवेक, विज्ञान की खदान हो। इस जगत में ऐसा कठिन कार्य नहीं जो आप ना कर सकें। जामवंत के वचन सुनते ही श्री हनुमान जी पर्वताकार होते हैं और सिंहनादकर कहते हैं कि इस खारे समुद्र को तो मैं खेल-खेल में लांघ सकता हूं।

सम्पाती लंका की ओर संकेत करते हुए (बालासाहेब पंत प्रतिनिधि द्वारा रचित चित्र)

राम के काल में सम्पाती और जटायु नाम के दो गरुड़ थे। ये दोनों ही अरुण नामक गरुड़ के पुत्र थे जो सूर्यदेव के सारथी हैं। दरअसल, महर्षि कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरुड़ और अरुण। गरुड़ जी विष्णु की शरण में चले गए और अरुणजी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे।

कहां रहते थे जटायु : पुराणों के अनुसार सम्पाती और जटायु दो गरुड़ बंधु थे। सम्पाती बड़ा था और जटायु छोटा। ये दोनों विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहने वाले निशाकर ऋषि की सेवा करते थे और संपूर्ण दंडकारण्य क्षेत्र विचरण करते रहते थे। एक ऐसा समय था जबकि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में गिद्ध और गरूढ़ पक्षियों की संख्या अधिक थी लेकिन अब नहीं रही। जटायु और सम्पाती की होड़ : बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु जलने लगे तब सम्पाति ने उन्हें अपने पक्ष ने नीचे सुरक्षित कर लिया, लेकिन सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए।

चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया। .