सावित्री बाई खानोलकर
सावित्री बाई खानोलकर या खानोलंकार (जन्म के समय का नाम इवा योन्ने लिण्डा माडे-डे-मारोज़) भारतीय इतिहास के ऐसे व्यक्तियों में से हैं जिनका जन्म तो पश्चिम में हुआ किंतु उन्होंने अपनी इच्छा से भारतीय संस्कृति को अपनाया और भारत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। सावित्री बाई खानोलकर को सर्वोच्च भारतीय सैनिक अलंकरण परमवीर चक्र के रूपांकन का गौरव प्राप्त है।[1]
सावित्री बाई खानोलकर | |
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जन्म |
20 जुलाई 1913 |
मौत |
26 नवम्बर 1990 नई दिल्ली |
नागरिकता | स्विट्ज़रलैण्ड, भारत, ब्रिटिश राज, भारतीय अधिराज्य |
जन्म और विवाह
संपादित करेंसावित्री बाई के पिता हंगरी के व माँ रूसी थीं। पुत्री इवा का जन्म 20 जुलाई 1913 को स्विट्ज़रलैंड में हुआ। इवा के जन्म के तुरन्त बाद इवा की माँ का देहान्त हो गया। उस समय उनके पिता जेनेवा में लीग ऑफ़ नेशन्स में पुस्तकालयाध्यक्ष थे। उन्होंने इवा का पालन-पोषण किया और रिवियेरा के एक स्कूल में पढ़ने भेजा। पिता के पुस्तकालय में काम करने का कारण इवा के लिए छुट्टी के दिनों में किताबें पढ़ने की खूब सुविधा थी। इन्हीं किताबों को पढते हुए किसी समय भारत के प्रति उसके मन में प्रेम और आकर्षण जागा। एक दिन जब वह अपने पिता तथा अन्य परिवारों के साथ रिवियेरा के समुद्रतट पर छुट्टी मना रही थी, उसके पिता ने उसका परिचय भारतीयों के एक समूह से करवाया जो सैंडहर्स्ट से वहाँ छुट्टियाँ मनाने पहुँचा था। इस समूह में ब्रिटेन के सेन्डहर्स्ट मिलिटरी कॉलेज के एक भारतीय छात्र विक्रम रामजी खानोलकर भी थे। वे पहले भारतीय थे जिससे इवा का परिचय हुआ। उस समय वह 14 वर्ष की थी। इवा ने विक्रम का पता लिया। विक्रम सैंडहर्स्ट लौट गए पर वे दोनों पत्रों के माध्यम से संपर्क में रहे। पढ़ाई पूरी करने के बाद विक्रम भारत लौटे ओर भारतीय सेना की 5/11सिख बटालियन से जुड़ गए। अब उनका नाम था कैप्टन विक्रम खानोलकर। उनकी सबसे पहली पोस्टिंग औरंगाबाद में हुई। इवा के साथ उनका पत्राचार अभी तक जारी था, एक दिन इवा भारत आ पहुँची। इवा ने भारत आते ही विक्रम को अपना निर्णय बता दिया कि वह उन्हीं से शादी करेगी। घर वालों के थोड़े विरोध के बाद सभी ने इवा को अपना लिया और 1932 में मराठी रिवाजों के साथ इवा ओर विक्रम का विवाह हो गया। विवाह के बाद इवा का नया नाम रखा गया सावित्री और इन्हीं सावित्री ने सावित्री बाई खानोलकर के नाम से भारतीय सैन्य इतिहास की एक तारीख रच दी।[2]
विवाह के बाद
संपादित करेंविवाह के बाद सावित्री बाई ने पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति को अपना लिया, हिन्दू धर्म अपनाया, महाराष्ट्र के गाँव-देहात में पहने जाने वाली 9 गज़ की साड़ी पहनना शुरु कर दिया, शाकाहारी बनीं और 1-2 वर्ष में तो सावित्री बाई शुद्ध मराठी ओर हिन्दी भाषा बोलने लगीं, मानों उनका जन्म भारत में ही हुआ हो।[3]
कैप्टन विक्रम जब मेजर बने और उनका तबादला पटना हो गया तो सावित्री बाई के जीवन को एक नयी दिशा मिली, उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में संस्कृत नाटक, वेदांत, उपनिषद और हिन्दू धर्म पर गहन अध्ययन किया। इन विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गयी कि वे स्वामी रामकृष्ण मिशन में इन विषयों पर प्रवचन देने लगीं। सावित्री बाई चित्रकला और पैन्सिल रेखाचित्र बनाने में भी माहिर थीं तथा भारत के पौराणिक प्रसंगों पर चित्र बनाना उनके प्रिय शौक थे। उन्होने पं. उदय शंकर (पंडित रविशंकर के बड़े भाई) से नृत्य भी सीखा। यानी वे एक आम भारतीय से ज्यादा भारतीय बन चुकी थीं। उन्होंने अंग्रेज़ी में सेंट्स ऑफ़ महाराष्ट्र एवं संस्कृत डिक्शनरी ऑफ़ नेम्स नामक दो पुस्तकें भी लिखीं।
मेजर विक्रम अब लेफ़्टिनेन्ट कर्नल बन चुके थे। भारत की आज़ादी के बाद 1947 में भारतीय सेना को भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों को सम्मनित करने के लिए पदक की आवश्यकता महसूस हुई। मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने पदकों के नाम पसन्द कर लिये थे परमवीर चक्र, महावीर चक्र और वीर चक्र। बस अब उनके रूपांकन की देर थी, मेजर जनरल अट्टल को इसके लिये सावित्री बाई सबसे योग्य लगीं। एक तो वे कलाकार थीं दूसरे उन्हें भारत की संस्कृति और पौराणिक प्रसंगों की अच्छी जानकारी थी। अट्टल ऐसा पदक चाहते थे जो भारतीय गौरव को प्रदर्शित करता हो। सावित्री बाई ने उन्हें निराश नहीं किया और ऐसा पदक बना कर दिया जो भारतीय सैनिकों के त्याग और समर्पण को दर्शाता है।
पदक का निर्माण
संपादित करेंसावित्री बाई को पदक के रूपांकन के लिये इन्द्र का वज्र सबसे योग्य लगा क्यों कि वज्र महर्षि दधीचि की अस्थियों से बना था और इस वज्र के लिये महर्षि दधीची को अपने प्राणों तथा देह का त्याग करना पडा़ था। महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने शस्त्र वज्र को धारण कर इन्द्र वज्रपाणी कहलाए ओर वृत्रासुर का संहार किया। परमवीर चक्र का पदक कांस्य धातु से 3.5 से.मी के व्यास का बनाया गया है और इसमें चारों ओर वज्र के चार चिह्न अंकित हैं। पदक के बीच का हिस्सा उभरा हुआ है और उसपर राष्ट्र का प्रतीक चिह्न उत्कीर्ण है। पदक के दूसरी ओर कमल का चिह्न है और हिन्दी व अंग्रेज़ी में परमवीर चक्र लिखा हुआ है। संयोग से सबसे पहला सावित्री बाई की पुत्री के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत प्रदान किया गया, जो वीरता पूर्वक लड़ते हुए 3 नवम्बर 1947 को शहीद हुए थै। इस भारत पाकिस्तान युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी ने श्रीनगर हवाई अड्डे तथा कश्मीर की रक्षा करते हुए 300 पकिस्तानी सैनिकों का सफ़ाया किया था जिसमें भारत के लगभग 22 सैनिक शहीद हुए थे। मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी शहादत के लगभग 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को यह पदक प्रदान किया गया।
उपसंहार
संपादित करें1947 के भारत पाकिस्तान युद्ध में विस्थापित सैनिकों और उनके के बीच काम करते हुए सावित्री बाई खानोलकर ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में समाजसेवा के अनेक काम किए। 1952 में मेजर जनरल विक्रम खानोलकर के देहांत हो जाने के बाद सावित्री बाई ने अपने जीवन को अध्यात्म की तरफ़ मोड लिया। वे दार्जिलिंग के राम कृष्ण मिशन में चली गयीं। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उन्होंने अपनी पुत्री मृणालिनी के साथ गुजारे। 26 नवम्बर 1990 को उनका देहान्त हो गया।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "Honouring Param Vir Chakra". विनथ्रॉप (अंग्रेज़ी में). मूल (एचटीएमएल) से 25 जुलाई 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 मई 2007.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ "Honouring the bravest of the brave" (एचटीएम). ट्रिब्यूनइंडिया (अंग्रेज़ी में). मूल से 9 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 मई 2007.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ सफ़ारी (गुजराती भाषा में). गायब अथवा खाली
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(मदद)