सुरेन्द्र मोहन (४ दिसम्बर १९२६ - १७ दिसम्बर २०१०) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता एवं समाजवादी विचारक थे। वे ईमानदारी, सादगी, विनम्रता, त्याग, संघर्ष और वैचारिक प्रतिबद्धता की अनूठी मिसाल थे। भारत की समकालीन लोकविमुख, विचारहीन और सत्ताकामी राजनीति के माहौल में सुरेंद्र मोहन एक मिसाल थे। सुरेंद्र मोहन अपने छात्र जीवन में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़े तो ऐसे जुड़े कि अपने जीवन की आखिरी साँस तक समतामूलक समाज का सपना अपनी आँखों में सँजोए हुए उसी सपने को हकीकत में बदलने की जद्दोजहद में लगे रहे। अपनी मृत्यु से एक दिन पूर्व भी आदिवासियों के सवाल पर दिल्ली के जंतर-मंतर पर आयोजित धरना आंदोलन में वे शामिल हुए थे।

आपसी कलह के चलते बार-बार टूटने और बिखरने को अभिशप्त रहे समाजवादी आंदोलन के नेताओं की जमात में वे उन चंद नेताओं में से थे जिन्होंने हमेशा आपसी राग-द्वेष से मुक्त रहते हुए साथियों और कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम किया देश की आजादी के बाद गोवा मुक्ति का आंदोलन हो या कच्छ सत्याग्रह, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के आदिवासियों का आंदोलन हो या सुदूर पूर्वोत्तर की जनजातियों का संघर्ष, ओडीसा की चिल्का झील को बचाने की लड़ाई हो या नर्मदा बचाओ आंदोलन, आंध्र के मछुआरों के अधिकारों की लड़ाई हो या विंध्य क्षेत्र के किसानों का आंदोलन या फिर सु्रधारवादी बोहरा आंदोलन, सुरेंद्र मोहन ने हर संघर्ष में सक्रिय साझेदारी निभाई और कई बार जेल यात्राएँ कीं। आपातकाल में भी वे पूरे 19 महीने जेल में रहे।

सुरेन्द्र मोहन का जन्म ४ दिसम्बर 1926 को अंबाला में हुआ था। उन्होंने अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा देहरादून से पूरी करने के बाद कुछ समय तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया और फिर आचार्य नरेंद्र देव की प्रेरणा से अपने आपको पूरी तरह समाजवादी आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया और दिल्ली आ गए। वे दिल्ली तो जरूर आ गए लेकिन पूरा देश ही उनका घर और कार्यक्षेत्र बन गया। समाज परिवर्तन का जुनून इस कदर सिर पर सवार था कि जीवन की आधी सदी बीत जाने तक अपना घर-परिवार बसाने की तरफ भी ध्यान नहीं गया।

सुरेंद्र मोहन ने अन्याय और गैरबराबरी के खिलाफ सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पड़ोसी देशों में भी लोकतंत्र और समता के संघर्षों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया, चाहे वह नेपाल में राजशाही के खिलाफ आंदोलन हो या म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली का संघर्ष या बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम

सत्ता-सम्पत्ति के प्रति हमेशा निर्मोही रहे सुरेंद्र मोहन ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर भी मंत्री बनने के बजाय संगठन के काम को वरीयता दी और जनता पार्टी के प्रवक्ता तथा महासचिव का दायित्व निभाया। 1978 से 1984 तक राज्यसभा के सदस्य रहते हुए भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण सवालों पर अपने धारदार भाषणों से संसद के इस उच्च सदन में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई।

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