हिन्दुस्तानी उत्तर भारत और पाकिस्तान की सम्पर्क भाषा है, और इसकी दो मानकीकृत भाषाएँ हैं, हिन्दी और उर्दू, क्रमशः भारत की एक आधिकारिक भाषा और पाकिस्तान की आधिकारिक एवं राष्ट्र भाषा है। दोनो भाषाओं के मध्य ध्वन्यात्मक अन्तर बहुत कम है।

स्पर्श : हिन्दी में (प्रकार्यात्मक स्तर पर महत्त्वपूर्ण) १६ स्पर्श व्यंजन स्वनिम के रूप में प्रयोग किये जाते हैं।

चार द्वयोष्ठ्य स्पर्श व्यंजन हैं जिनमें घोषत्व एवं प्राणत्व जैसे दो स्वनिमिक अभिलक्षणों द्वारा चार द्वयोष्ठ्य स्पर्श स्वनिम प्राप्त होते हैं - इन चारो के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला के चार वर्ण यहां दिए गए हैं।

इसी प्रकार के अन्य तीन स्पर्श व्यंजन वर्ग हैं -

दन्त्य (त, द, थ, ध)

मूर्धन्य (ट, ड, ठ, ढ) और

कण्ठ्य (क, ग, ख, घ)

तालव्य ध्वनियों का ऐसा ही व्यंजन वर्ग स्पर्श-संघर्षी व्यंजन ध्वनियों के अन्तर्गत आता है यद्यपि इसे भी कुछ भाषाविदों ने स्पर्श ध्वनियों के साथ रखा है। ये व्यंजन स्वनिम हैं (च, ज, छ, झ)।

संघर्षी - व्यंजन ध्वनियों में तीन स्वनिम हैं : दन्त्य / वर्त्स्य ध्वनि /स्/ के लिए "वर्ण" प्रयोग किया जाता है तो /ह्/ के लिए 'ह' वर्ण प्रयुक्त होता है /स्~/ का उच्चारण हिन्दी भाषा के विकास की धारा में किसी स्तर पर दो अलग-अलग रूपों में किया जाता था अर्थात् तालव्य /स्~/ एवं मूर्धन्य /स्/ दो अलग स्वनिम माने जाते थे और इन दो के लिए दो वर्ण भी प्रयोग किए जाते थे - श-तालव्य एवं-मूर्धन्य जो कि आज भी देवनागरी लिपि में ज्यों के त्यों प्रयोग होते हैं परन्तु आज इन दोनों में ध्वनि स्तर पर अधिक अन्तर नहीं रह गया है, केवल तालव्य संघर्षी व्यंजन स्वनिम /स्~/ जिसका रूप मूर्धन्य ध्वनियों के साथ तालव्य न रहकर मूर्धन्य हो जाता है। जैसे कष्ट, नष्ट। दृष्टि आदि शब्दों में मूर्धन्य "ट"से पहले। इसीलिए इन्हें एक ही स्वनिम के दो उपस्वनिम मानना अनुचित न होगा।

इसके अतिरिक्त चार संघर्षी ध्वनियाँ अरबी फ़ारसी शब्दों के माध्यम से हिन्दी में आकर अब हिन्दी की ध्वनि व्यवस्था का अंग बन चुकी हैं। ये ध्वनियां हैं - /फ़/ दन्त्यौष्ठ्य संघर्षी व्यंजन स्वनिम, /ज़/ जो कि दंत्य ध्वनि /स/ का ही सघोष रूप है और /झ़/ , /श़/ तालव्य संघर्षी /श/ का सघोष रूप है। कंठ्य ध्वनियां /ख़/ अघोष कण्ठ्य संघर्षी और इसी का सघोष ध्वनि रूप /ग़/ है।

नासिक्य - देवनागरी वर्णमाला में हमें प्रत्येक स्पर्श अथवा स्पर्श-संघर्षी व्यंजन वर्ग के अन्त में एक नासिक्य व्यंजन वर्ण भी मिलता है जैसे कण्ठ्य ध्वनियों के साथ अ कण्ठ्य नासिक्य ध्वनि [ब्] है तो मूर्धन्य ध्वनियों के साथ ण, मूर्धन्य नासिक्य [न्] है, तालव्य ध्वनियों के साथ ञ, तालव्य नासिक्य [ण्] है और दन्त्य एवं द्वयोष्ठ्य नासिक्य के साथ न एवं म, क्रमशः दन्त्य नासिक्य [न्] एवं द्वयोष्ठ्य नासिक्य /म्/ लिखा जाता है। प्रकार्य की दृष्टि से देखा जाए तो अ एवं ञ़्अ कण्ठ्य एवं तालव्य नासिक्य व्यंजन केवल "न" नासिक्य के उपस्वनों के रूप में प्रयोग किए जाते हैं जबकि म, न, ण का स्वतन्त्र स्वनिमों के रूप में प्रयोग होता है। अर्थात् म-न-ण अर्थभेद प्रकार्य करने वाली नासिक्य ध्वनियाँ हैं जब कि अ एवं ञ, न नासिक्य के साथ परिपूरक वितरण में मिलती हैं - न का उच्चारण कण्ठ्य ध्वनियों के पूर्व कण्ठ्य नासिक्य अ के रूप में होता है तो तालव्य ध्वनियों के पूर्व तालव्य नासिक्य ञ ध्वनि के रूप में होता है।

पार्श्विक एवं लुण्ठित ध्वनियाँ - ये ध्वनियां क्रमशः / ई / एवं / र् / दोनों हिन्दी के दो स्वतन्त्र स्वनिम हैं जिनके लिए देवनागरी लिपि में ल एवं र लिपि चिन्हों का प्रयोग होता है। लुण्ठित ध्वनि के साथ व्यतिरेक दिखाते हुए उत्क्षिप्त ध्वनियाँ ड़ / र् / एवं इसका महाप्राण रूप ढ़ / र्ह् / भी दो भिन्न स्वनिम हैं। ये दोनों ध्वनियाँ और मूर्धन्य नासिक्य व्यंजन ण शब्दों के शुरू में प्रयोग नहीं किए जाते।

इन व्यंजन ध्वनियों के अतिरिक्त हिन्दी में दो अर्धस्वर / य् / एवं / त् / भी है जिनके लिए क्रमशः य एवं व लिपि चिन्हों का प्रयोग किया जाता है। य एक स्वनिम है और ब स्वनिम के उपस्वनों के रूप में एक ओर दन्त्योष्ठ्य संघर्षी, सघोष ध्वनि है तो दूसरी ओर द्वयोष्ठ्य अर्धस्वर है जिन्हें उपस्वनों के रूप में इस प्रकार दिखाया जा सकता है [त्। व्]।