अमृतचन्द्रसूरि

दार्शनिक, जैन आचार्य, आध्यामिकगुरु

आचार्य अमृतचंद्र संस्कृत वाङ्मय के असाधारण साहित्यकार एवं आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार है। अध्यात्मरस में निमग्न आचार्य अमृतचंद्र रससिद्ध कवि होने के साथ-साथ मौलिक ग्रन्थों के प्रणेता तथा व्याकरण, न्याय, दर्शन आदि पर असाधारण अधिकार था।[1][2]

आचार्य अमृतचन्द्र
आचार्य अमृतचन्द्र की प्रतिमा
पेशादार्शनिक, साहित्यकार, जैनविद्वान
राष्ट्रीयताभारतीय
काल10 वीं शताब्दी का पूर्वार्ध
विषयजैन दर्शन
उल्लेखनीय कामआत्मख्याति, तत्त्वप्रदीपिका, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय

आचार्य कुन्दकुद ने जिस अध्यात्म एवं दर्शन का बीज बोया था, उसे अपने अनुपम व्यक्तित्व द्वारा पल्लवित, पुष्पित, फलित और विस्तृत करने का पूर्ण श्रेय आचार्य अमृतचन्द्र को ही है।[3]

जीवन परिचय संपादित करें

आचार्य अमृतचंद्र के सम्बन्ध के विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि उन्होंने किसी भी कृति में अपना परिचय नहीं दिया है। लोक-प्रशंसा से दूर रहनेवाले आचार्य अमृतचन्द्र तो अपूर्व ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त भी यही लिखते हैं - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अंत में :-
वर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि।
वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥[4]

आत्मख्याति के अन्त में :-
स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैः व्याख्याकृतेयं समयस्य शब्दैः।
स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः॥

तत्त्वप्रदीपिका के अन्त में :-
व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्या तु गुम्फे गिराम्।
व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु॥

ऐसे निःस्पृही व्यक्ति का परिचय पाना अत्यंत श्रमसाध्य है। परवर्ती विद्वान पंडित आशाधर जी ने इनके लिए ठक्कुर शब्द का प्रयोग किया है; जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कोई ठाकुरकुल के रहे होंगे।

काल संपादित करें

आचार्य अमृतचन्द्र के समय के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के प्रभाव, परवर्ती ग्रन्थों व ग्रन्थकारों के उल्लेखों के आधार पर हम इनके समय के बारे में कुछ अनुमान अवश्य लगा सकते हैं।[5]

डॉ. ए. एन. उपाध्याये ने आचार्य जयसेन का काल 12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना है; अतः उसके बाद अमृतचंद्र का काल कदापि नहीं हो सकता है।[6] साथ ही साथ देवसेनाचार्य कृत अलापपद्धति से भी परिचित माना है।[7]


ज्ञानार्णव ग्रन्थ के कर्ता शुभचंद्र आचार्य 11वीं शताब्दी में हुए है; उन्होंने अपने ग्रन्थ में अमृतचंद्र के श्लोकों को प्रस्तुत किया है; अतः 10वीं शताब्दी तक इनका काल हुआ।[8][9]

आचार्य अमृतचन्द्र ने 8वीं शताब्दी तक के हुए विद्वानों द्वारा लिखित ग्रंथों का प्रमाण दिया है। अतः उनका काल कम से कम 9वीं शताब्दी के बाद का होना चाहिए।[10]

सभी प्रमाणों का निष्कर्ष निकाल ले तो यही सिद्ध होता है कि आचार्य अमृतचंद्र का काल 10वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।[11][12]

रचनाएँ संपादित करें

आचार्य अमृतचंद्र ने कुल 6 रचनाऐं की है; जिनमें 4 तो टिकाएँ है, एक स्तोत्र है और एक मौलिक रचाना हैं। जिनका विस्तृत विवरण निम्नानुसार है:-

आत्मख्याति संपादित करें

आत्मख्याति आचार्य कुंदकुंद के द्वारा विरचित समयसार ग्रन्थ सुप्रसिद्ध टिका है। वस्तुतः समयसार ग्रन्थ में अत्यंत गूढ़ रहस्य वाला परम आध्यात्मिक ग्रन्थ है; परन्तु आचार्य अमृचंद्र ने मधुर भाषा में महान ग्रन्थ को व्याख्या चम्पूरूप में की है।

आत्मख्याति टीका में समागत पद्यभाग इतना विशाल और महत्त्वपूर्ण है कि उसे यदि अलग से रखें तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन जाता है। ऐसा हुआ भी है - भट्टारक शुभचन्द्र ने परमाध्यात्मतरंगिणी नाम से, पाण्डे राजमलजी ने समयसारकलश नाम से एवं पण्डित जगमोहनलालजी ने अध्यात्मअमृतकलश नाम से उन पद्यों का संग्रह किया और उन पर स्वतंत्र टीकाएँ लिखी हैं। २७६ छन्दों में फैला यह पद्यभाग विविधवर्णी १६ प्रकार के छन्दों से सुसज्जित है, विविध अलंकारों से अलंकृत है और परमशान्त अध्यामरस से सराबोर है। इन्हीं छन्दों को आधार बनाकर कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार की रचना की है, जो हिन्दी जैनसाहित्य की अनुपम निधि है।[13]

तत्त्वप्रदीपिका संपादित करें

तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका आचार्य कुंदकुंद के प्रवचनसार ग्रन्थ पर लिखी है हुई, अत्यंत लोकप्रिय, गम्भीर और दार्शनिक व्याख्या है। आचार्य अमित चंद्र देव ने इस ग्रंथ के तीन अधिकार किए हैं ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन, ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन और चरणानुयोगसूचक चुलिका। इस टीका अणु-परमाणु इत्यादि का भी बहुत सुंदर दार्शनिक विवेचन उपलब्ध है।

समयव्याख्या संपादित करें

समयव्याख्या नामक संस्कृत गद्यटिका आचार्य कुंदकुंद के पंचास्तिकाय ग्रन्थ पर प्रौढ़, मार्मिक, दार्शनिक, सैद्धांतिक व्याख्या है। आचार्य अमृतचन्द्र ने संपूर्ण ग्रन्थ को प्रथम व द्वितीय श्रुतस्कंधों में विभाजित किया है। गाया १ से १०४ तक प्रथम श्रुतस्कंध है, जिसमें पंचास्किाय का निरुपण है। द्वितीय श्रुतम्कंध १०५ से १७३ गाथा तक चलता है। इसमें नवपदार्थो तथा मोक्षमार्ग का सविस्तार निरूपण है।

पुरुषार्थसिद्ध्युपाय संपादित करें

पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ आचार्य अमृतचन्द्र की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली मौलिक रचना है। आजतक के सम्पूर्ण श्रावकाचारों में इसका स्थान सर्वोपरि है। इसकी विषयवस्तु और प्रतिपादन शैली तो अनूठी है ही, भाषा एवं काव्य सौष्ठव भी साहित्य की कसौटी पर खरा उतरता है।

अन्य किसी भी श्रावकाचार में निश्चय-व्यवहार, निमित्त-उपादान एवं हिंसा-अहिंसा का ऐसा विवेचन और अध्यात्म का ऐसा पुट देखने में नहीं आया। प्रायः सभी विषयों के प्रतिपादन में ग्रन्थकार ने अपने आध्यात्मिक चिन्तन एवं भाषा-शैली की स्पष्ट छाप छोड़ी है।

वे अपने प्रतिपाद्य विषय को सर्वत्र ही निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करते हैं।

लघुतत्त्वस्फोट संपादित करें

इस ग्रन्थ का अपर नाम 'शक्तिमणिकोष' भी है; जिसका उल्लेख ग्रन्थ के अंत में है। यह आचार्य अमृतचंद्र द्वारा विरचित अत्यंत क्लिस्ट, प्रौढ़, दार्शनिक व मौलिक कृति है। इसमें 25-25 श्लोक के 25 अध्याय है, इसप्रकार इसमें कुल 625 श्लोक है। यह स्तुतिपरक रचना है। इसमें अर्थ गाम्भीर्य तथा क्लिष्ट संस्कृत शब्दावली के प्रयोग से भाव प्रवाह की रसानुमिति में कठिनता प्रतीत होती है। प्रथम अध्याय २४ तीर्थकरों के गुणस्मरण में समर्पित है। शेष अध्याओं में भी जिनेन्द्र स्तुति के नाम पर गहन सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है।

तत्त्वार्थसार संपादित करें

भारतीय दर्शनपरम्परा में प्रसिद्ध आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों को पद्यबद्ध करने वाली दार्शनिक कृति है। इसमें कहीं-कहीं तो ग्रन्थकार की मौलिकता प्रतीत होती है, परंतु अधिकतर इसमें सूत्रों को ही पद्यरूप दे दिया गया है।

भाषा शैली संपादित करें

उनकी लेखनी के इशारे और सहारे पर संस्कृत वाङ्मय की गद्यसरिता अनेक वैशिष्ट्य रूप तरंगों के साथ उद्वेलित हो उठती थी। पद्यरूप कामिनी अपनी समस्त कलाओं के साथ नृत्य करने तैयार रहती थी। गद्यरूप भाषा प्रवाह निर्भर की भांति प्रवाहित होती हुया तथा पद्यमयी भाषा अध्यात्म रस के फुब्बारों की तरह प्रवाहित होतो हुई अध्यात्म एवं साहित्य रसिकों का मनमोह लेती है। पाठक उनकी भाषा में अपूर्व मिठास, सहज आकर्षण तथा गम्भीर ज्ञान भरा पाते हैं। संस्कृत भाषा प्रायः तीन रूपों में प्रकट होती है। वे तीन रूप है गद्य, पद्य तथा चम्पू (मिश्र)। टीकाओं में उन्होंने उक्त तीनों साहित्य रूपों का प्रयोग किया है, जबकि मौलिक रचनाओं में केवल पद्यरूप में ही अभिव्यक्ति हुई है। आत्मख्याति, तत्वदीपिका तथा समयव्याख्या टीकाओं में गद्यरूप भाषा-प्रौढ़ता देखते ही बनती है। समयसार कलश, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, तत्त्वार्थसार तथा लघुतत्त्वस्फोट इन रचनाओं में परिष्कृत पद्यरूप का सर्वोत्कृष्ट उदाहण उपलब्ध है। आत्मख्याति कलशयुक्त टीका में चम्पू या मिश्रभाषा रूप के दर्शन होते हैं।[14]

उनकी टीकाओं में बुद्धि और हृदय का अद्भुत समन्वय है। जब अमृतचंद्र वस्तुस्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो प्रवाहमय प्रांजल गद्य का उपयोग करते हैं और जब वे अध्यात्मरस में निमग्न हो जाते हैं तो उनकी लेखनी से विविधवर्णी छन्द प्रस्फुटित होने लगते हैं।[15]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. जैन, डॉ. उत्तमचन्द (1988). आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक द्रस्ट. पृ॰ 12.
  2. जैन, डॉ. शुद्धात्मप्रभा (1987). आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 189.
  3. जैन, डॉ. उत्तमचन्द (1988). आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व और कर्तृत्व. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 12.
  4. आचार्य, अमृतचन्द्र (2010). पुरुषार्थसिद्ध्युपाय. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 271.
  5. टड़ैया, डॉ. शुद्धात्मप्रभा (1987). आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 45.
  6. टड़ैया, डॉ. शुद्धात्मप्रभा (1987). आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 46.
  7. जैन, डॉ. उत्तमचंद (1988). आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व और कर्तृत्व. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 41.
  8. जैन, डॉ. उत्तमचंद (1988). आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व और कर्तृत्व. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 36.
  9. टड़ैया, डॉ. शुद्धात्मप्रभा (1987). आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 46.
  10. टड़ैया, डॉ. शुद्धात्मप्रभा (1987). आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 46.
  11. जैन, डॉ. उत्तमचंद (1988). आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व और कर्तृत्व. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 44.
  12. टड़ैया, डॉ. शुद्धात्मप्रभा (1987). आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 48.
  13. भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द (2001). बिखरे मोती. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 10.
  14. जैन, डॉ. उत्तमचन्द (1988). आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व और कर्तृत्व. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 385.
  15. भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द (2001). बिखरे मोती. जयपुर: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 10.

इन्हें भी देखें संपादित करें

पुरुषार्थसिद्ध्युपाय

समयसार

प्रवचनसार

आचार्य कुन्दकुन्द

आचार्य जयसेन

पंचास्तिकाय

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें