अरुन्धती हिन्दी भाषा का एक महाकाव्य है, जिसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) ने १९९४ में की थी। यह महाकाव्य १५ सर्गों और १२७९ पदों में विरचित है। महाकाव्य की कथावस्तु ऋषिदम्पती अरुन्धती और वसिष्ठ का जीवनचरित्र है, जोकि विविध हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित है। महाकवि के अनुसार महाकाव्य की कथावस्तु का मानव की मनोवैज्ञानिक विकास परम्परा से घनिष्ठ सम्बन्ध है।[1] महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन श्री राघव साहित्य प्रकाशन निधि, हरिद्वार, उत्तर प्रदेश द्वारा १९९९४ में किया गया था। पुस्तक का विमोचन तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा जुलाई ७, १९९४ के दिन किया गया था।[2]

अरुन्धती
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अरुन्धती महाकाव्य (प्रथम संस्करण) का आवरण पृष्ठ
लेखकजगद्गुरु रामभद्राचार्य
मूल शीर्षकअरुन्धती
भाषाहिन्दी
शैलीमहाकाव्य
प्रकाशकश्री राघव साहित्य प्रकाशन निधि, हरिद्वार
प्रकाशन तिथि१९९४
प्रकाशन स्थानभारत
मीडिया प्रकारमुद्रित (सजिल्द)
पृष्ठ२३२ पृष्ठ (प्रथम संस्करण)

काव्य के अनुप्रवेश में कवि ने खड़ी बोली में रचित अपने सर्वप्रथम महाकाव्य में अरुन्धती को वर्ण्यविषय बनाने का कारण बताया है। उनके अनुसार वसिष्ठ गोत्र में जन्म लेने के कारण अरुन्धती के प्रति उनकी आस्था स्वाभाविक है। उनके कथनानुसार अरुन्धती के अनवद्य, प्रेरणादायी और अनुकरणीय चरित्र में भारतीय संस्कृति, समाज, धर्म, राष्ट्र और वैदिक दर्शन के बहुमूल्य तत्त्व निहित हैं। अपि च, उनकी मान्यतानुसार अग्निहोत्र की परम्परा का पूर्णरूपेण परिपोषण अरुन्धती और वसिष्ठ के द्वारा ही हुआ है। सप्तर्षियों के साथ केवल वसिष्ठपत्नी अरुन्धती पूजा की अधिकारिणी हैं, यह सम्मान और किसी भी ऋषिपत्नी को प्राप्त नहीं हुआ है।[1]

कथावस्तु

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महाकाव्य की अधिकांश कथाएँ विभिन्न हिन्दू ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। कुछ अंश कवि की मौलिक उद्भावनाएँ हैं। अरुन्धती के जन्म की कथा शिव पुराण तथा श्रीमद्भागवत में वर्णित है, किन्तु महाकाव्य श्रीमद्भागवत के अनुसार उनकी उत्पत्ति की कथा प्रस्तुत करता है। ब्रह्मा द्वारा अरुन्धती को आदेश का प्रसंग श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड से लिया गया है। विश्वामित्र एवं वशिष्ठ के मध्य शत्रुता वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड पर आधारित है। शक्ति एवं पाराशर का जन्म महाभारत तथा विविध ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है। महाकाव्य की अन्तिम घटनाएँ वाल्मीकि रामायण, तुलसीकृत रामचरितमानस और विनयपत्रिका पर आधारित हैं।

अरुन्धती ऋषि कर्दम और देवहूति की आठवीं पुत्री हैं तथा उनका विवाह ब्रह्मा के आठवें पुत्र वशिष्ठ के साथ सम्पन्न होता है। ब्रह्मा दम्पती को आश्वासन देते हैं कि उन्हें भगवान राम का दर्शन प्राप्त होगा। ऋषि दम्पती राम की प्रतीक्षा में अनेकों वर्ष व्यतीत करते हैं। गाधि राजा का पुत्र विश्वरथ वशिष्ठ से दिव्य गौ कामधेनु को छिनने का प्रयास करता है, परन्तु स्वयं को वशिष्ठ के ब्रह्मदण्ड का सामना करने में असमर्थ पाता है। विश्वरथ घोर तप करने के पश्चात ऋषि विश्वामित्र बनते हैं। प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे विश्वामित्र अरुन्धती एवं वशिष्ठ के समस्त सौ पुत्रों को मृत्यु का शाप दे देते हैं। दम्पती की क्षमा से शक्ति नामक एक पुत्र उत्पन्न होता है, किन्तु विश्वामित्र उसे भी एक राक्षस द्वारा मरवा देते हैं। तब अरुन्धती और वशिष्ठ अपने पौत्र पाराशर पर आश्रम की देखभाल का दायित्व सौंपकर वानप्रस्थ आश्रम व्यतीत करने के लिए चले जाते हैं।

परन्तु ब्रह्मा उन्हें पुनः आश्वस्त करते हुए कि वे केवल गृहस्थ दम्पती के रूप में रहते हुए ही राम के दर्शन कर सकेंगे, उन्हें पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का आदेश देते हैं। दम्पती अयोध्या के समीप एक आश्रम में निवास करना प्रारम्भ कर देते हैं। भगवान राम के जन्म के समय ही, उनके यहाँ भी सुयज्ञ नामक एक पुत्र का जन्म होता है। भगवान राम और सुयज्ञ एक साथ अरुन्धती एवं वशिष्ठ के आश्रम में अध्ययन करते हैं। मिथिला में सीता और राम के विवाह के पश्चात, जब नवविवाहित दम्पती अयोध्या आते हैं, तो अरुन्धती प्रथम बार सीता से मिलती हैं। सीता और राम चौदह वर्ष वनवास में व्यतीत करते हैं। वनवास के उपरान्त जब वे घर लौटते हैं, तो वे प्रथम बार भोजन करते हैं, जो कि स्वयं अरुन्धती अपने हाथों से बनाती हैं। इसी प्रसंग के साथ महाकाव्य का समापन होता है।

पन्द्रह सर्ग

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  1. सृष्टि
  2. प्रणय
  3. प्रीति
  4. परितोष
  5. प्रतीक्षा
  6. अनुनय
  7. प्रतिशोध
  8. क्षमा
  9. शक्ति
  10. उपराम
  11. प्रबोध
  12. भक्ति
  13. उपलब्धि
  14. उत्कण्ठा
  15. प्रमोद


टिप्पणियाँ

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  1. रामभद्राचार्य १९९४, पृष्ठ iii—vi
  2. रामभद्राचार्य २०००।
  • रामभद्राचार्य, स्वामी (जुलाई ७, १९९४). अरुन्धती महाकाव्य. हरिद्वार, उत्तर प्रदेश, भारत: श्रीराघव साहित्य प्रकाशन निधि.
  • रामभद्राचार्य, स्वामी (जनवरी १४, २०००). मुण्डकोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम् (संस्कृत में). सतना, मध्य प्रदेश, भारत: श्रीतुलसीपीठ सेवा न्यास.