सीता
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सीता, रामायण के अनुसार मिथिला के नरेश जनक की ज्येष्ठ पुत्री व अयोध्या के नरेश दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम की भार्या थी जिन्हे त्रेतायुग में लक्ष्मी का अवतार कहा गया है।[1][2][3][4][5]
सीता | |
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![]() देवी सीता की मूर्ति | |
अन्य नाम | जानकी , भूमिपुत्री , जनकात्मजा , रामवल्लभा , भूसुता , मैथिली , सिया आदि |
देवनागरी | सीता |
संस्कृत लिप्यंतरण | सीता |
संबंध | लक्ष्मी अवतार |
युद्ध | मूलक वध |
जीवनसाथी | श्रीराम |
माता-पिता | |
संतान |
लव कुश |
शास्त्र | रामायण और रामचरितमानस |
त्यौहार | जानकी जयन्ती |
जन्म व नाम
संपादित करेंरामायण के अनुसार मिथिला के राजा जनक के खेतों में हल जोतते समय एक पेटी से अटका। इन्हें उस पेटी में पाया था। राजा जनक और रानी सुनयना के गर्भ में इनके कलाओं एवं आत्मा की दिव्यता को महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा स्थापित किया गया तत्पश्चात सुनयना ने अपनी मातृत्व को स्वीकार किया और पालन किया। उर्मिला उनकी छोटी बहन थीं।[उद्धरण चाहिए]
राजा जनक की पुत्री होने के कारण इन्हे जानकी, जनकात्मजा अथवा जनकसुता भी कहते थे। मिथिला की राजकुमारी होने के कारण यें मैथिली नाम से भी प्रसिद्ध है। भूमि में पाये जाने के कारण इन्हे भूमिपुत्री या भूसुता भी कहा जाता है।
सीता जी का जन्म फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को मिथिला में हुआ था।[6]
विवाह
संपादित करेंमहाराज जनक ने सीता स्वयंवर की घोषणा की जिसमें राम व लक्ष्मण भी उपस्थित हुए। महाराज जनक ने स्वयंवर के लिये शिवधनुष उठाने के नियम की घोषणा की। सभा में उपस्थित राजकुमार, राजा व महाराजा धनुष उठाने में विफल रहे। श्रीरामजी ने धनुष को उठाकर भंग किया। इस तरह सीता का विवाह श्रीरामजी से निश्चय हुआ।
इसी के साथ उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से, मांडवी का भरत से तथा श्रुतकीर्ति का शत्रुघ्न से निश्चय हुआ।
विवाहोपरांत सीता अयोध्या आईं व उनका दांपत्य जीवन सुखमय बीतने लगा।
वनवास
संपादित करेंराजा दशरथ द्वारा पत्नी कैकेयी को दिये गए वचन के कारण श्रीरामजी को चौदह वर्ष का वनवास हुआ। इस प्रकार राम व लक्ष्मण के साथ उन्होंने चित्रकूट पर्वत स्थित मन्दाकिनी तट पर वनवास किया। इसके बाद गोदावरी नदी के तट पर पंचवटी में वास किया।
अपहरण
संपादित करेंपंचवटी में लक्ष्मण से अपमानित शूर्पणखा ने अपने भाई रावण से अपनी व्यथा सुनाई। रावण ने मारीच के साथ मिलकर सीता अपहरण की योजना रची। इसके अनुसार मारीच सोने के हिरण का रूप धर राम व लक्ष्मण को वन में ले गया और उनकी अनुपस्थिति में रावण ने सीता का अपहरण किया। आकाश मार्ग से जाते समय पक्षीराज जटायु के रोकने पर रावण ने उसके पंख काट दिये।
जब कोई सहायता नहीं मिली तो माता सीताजी ने अपने पल्लू से एक भाग निकालकर उसमें अपने आभूषणों को बांधकर नीचे डाल दिया। नीचे वनमे कुछ वानर इसे अपने साथ ले गये। रावण ने सीता को लंका के अशोक वाटिका में रखा और त्रिजटा के नेतृत्व में कुछ राक्षसियों को उसकी देख-रेख का भार दिया।
हनुमानजी की भेंट
संपादित करेंसीताजी की वन-वन खोज करते राम जटायु तक पहुंचे। जटायु ने उन्हें सीताजी को रावण द्वारा दक्षिण दिशा की ओर लिये जाने की सूचना दी। राम, लक्ष्मण सहित दक्षिण दिशा में चले। आगे चलकर वे हनुमानजी से मिले जो उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित अपने राजा सुग्रीव के पास ले गए। रामजी संग मैत्री के बाद सुग्रीव ने सीताजी के खोजमें चारों ओर वानरसेना की टुकडियाँ भेजीं। वानर राजकुमार अंगद के नेतृत्व में दक्षिण की ओर गई टुकड़ी में हनुमान, नील, जाम्बवन्त प्रमुख थे और वे दक्षिण स्थित सागर तट पहुंचे। तटपर उन्हें जटायु का भाई सम्पाती मिला जिसने उन्हें सूचना दी कि सीता लंका स्थित एक वाटिका में है।
हनुमानजी समुद्र लाँघकर लंका पहुँचे, लंकिनी को परास्त कर नगर में प्रवेश किया। वहाँ सभी भवन और अंतःपुर में सीता माता को न पाकर वे अत्यंत दुःखी हुए। अपने प्रभु श्रीरामजी को स्मरण व नमन कर अशोकवाटिका पहुंचे। वहाँ 'धुएँ के बीच चिंगारी' की तरह राक्षसियों के बीच एक तेजस्विनी स्वरूपा को देख सीताजी को पहचाना और हर्षित हुए।
उसी समय रावण वहाँ पहुँचा और सीता से विवाह का प्रस्ताव किया। सीता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा "हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न है। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति मे मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जाति के विनाश को आमंत्रण दिया है। रघुवंशीयों की वीरता से अपरचित होकर तुमने ऐसा दुस्साहस किया है। तुम्हारे श्रीरामजी की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एक मात्र उपाय है। अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है।" इससे निराश रावण ने राम को लंका आकर सीता को मुक्त करने को दो माह की अवधि दी। इसके उपरांत रावण व सीता का विवाह निश्चिय है। रावण के लौटने पर सीताजी बहुत दु:खी हुई। त्रिजटा राक्षसी ने अपने सपने के बारे में बताते हुए धीरज दिया की श्रीरामजी रावण पर विजय पाकर उन्हें अवश्य मुक्त करेंगे।
उसके जाने के बाद हनुमान सीताजी के दर्शन कर अपने लंका आने का कारण बताते हैं। सीताजी राम व लक्ष्मण की कुशलता पर विचारण करती है। श्रीरामजी की मुद्रिका देकर हनुमान कहते हैं कि वे माता सीता को अपने साथ श्रीरामजी के पास लिये चलते हैं। सीताजी हनुमान को समझाती है कि यह अनुचित है। रावण ने उनका हरण कर रघुकुल का अपमान किया है। अत: लंका से उन्हें मुक्त करना श्रीरामजी का कर्तव्य है। विशेषतः रावण के दो माह की अवधी का श्रीरामजी को स्मरण कराने की विनती करती हैं।
हनुमानजी ने रावण को उसके दुस्साहस के परिणाम की चेतावनी दी और लंका को जलाया। माता सीता से चूड़ामणि व अपनी यात्रा की अनुमति लिए चले। सागरतट स्थित अंगद व वानरसेना को लिए श्रीरामजी के पास पहुँचे। माता सीता की चूड़ामणि दी और अपनी लंका यात्रा की सारी कहानी सुनाई। इसके बाद राम व लक्ष्मण सहित सारी वानरसेना युद्ध के लिए तैयार हुई।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "संग्रहीत प्रति". Archived from the original on 16 अक्तूबर 2019. Retrieved 21 मार्च 2020.
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(help) - ↑ "Hot spring hot spot - Fair begins on Magh full moon's day". www.telegraphindia.com. Archived from the original on 23 दिसंबर 2018. Retrieved 22 December 2018.
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(help) - ↑ "Sitamarhi". Britannica। अभिगमन तिथि: 30 January 2015
- ↑ "History of Sitamarhi". Official site of Sitamarhi district. Archived from the original on 20 दिसम्बर 2014. Retrieved 30 जनवरी 2015.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". Archived from the original on 12 फ़रवरी 2020. Retrieved 21 मार्च 2020.
- ↑ सपना, सीपी साहू 'स्वप्निल'. "आदर्श नारी सीता माता". Webdunia HIndi. Webdunia. Retrieved 13 फरवरी 2023.
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बाहरी कड़ियाँ
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