मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास

(एम॰ एन॰ श्रीनिवास से अनुप्रेषित)

मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास (1916-1999) भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री थे। उन्होने दक्षिण भारत में जाति तथा जाति प्रथा, सामाजिक स्तरीकरण, सांस्कृतीकरण तथा पश्चिमीकरण पर कार्य किया। उन्होने 'प्रबल जाति' (Dominant Caste) की अवधारण प्रस्तुत की। 'मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास' को सन १९७७ में भारत सरकार द्वारा विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये कर्नाटक से हैं।

मराठी परिचय

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औपचारिक रूप से भारतीय समाजशास्त्र के आदि-पुरुष भले ही न हों, लेकिन स्वतंत्र भारत में इस अनुशासन को उन्होंने अपने सैद्धांतिक योगदान, जाति की विलक्षण समझ और सहभागी प्रेक्षण की पद्धति के इस्तेमाल से जितना समृद्ध किया है वह उन्हें देश के शीर्षतम समाज-विज्ञानियों में शामिल करने के लिए पर्याप्त है। समाजशास्त्र में उन्हें संस्कृतीकरण, प्रभुत्वशाली जाति और वोट बैंक जैसी मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है। श्रीनिवास संस्थाओं के निर्माता भी थे। बड़ौदा और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागों की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। शोध और अध्ययन के उच्चस्तरीय संस्थानों की स्थापना और दिशा-निर्देशन के लिहाज़ से भी भारतीय समाजशास्त्र के विकास में उनका योगदान कालजयी माना जाएगा। ग्रामीण समुदाय और जाति की संरचना के विशिष्ट अध्ययन के अलावा एम.एन. श्रीनिवास ने विज्ञान के सामाजिक प्रभाव, गाँधी के धार्मिक चिंतन, मानवशास्त्र के इतिहास से लेकर जेंडर जैसे विषयों पर भी विचारोत्तेजक काम किया है।

श्रीनिवास का कृतित्व वस्तुनिष्ठ पर्यवेक्षण, विश्लेषण की महीनताओं तथा सैद्धांतिक गहराई का दुर्लभ संगम माना जाता है। उनका लेखन अंतर-विषयकता को एक ख़ास तरह का ज़मीनी संदर्भ प्रदान करता है। श्रीनिवास की समाजशास्त्रीय दृष्टि घटनाओं की बाहरी बनावट को भेद कर उन्हें गढ़ने वाली संरचनाओं और ऐतिहासिक शक्तियों की थाह लेती है। सामुदायिक जीवन के बारीक ब्योरों और अंतर्दृष्टियों को सरल भाषा में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता उन्हें समकालीन समाजशास्त्रियों से एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है। इस अर्थ में वे विषयगत शब्दावली का अतिक्रमण करते हुए साधारण और प्रचलित भाषा को चुनते हैं। इसे उनकी विद्वत्ता का जनवाद ही कहा जाएगा कि उनकी सैद्धांतिक अवधारणाएँ अपने कूटार्थों में उलझाने के बजाय विषय को समझने में ज़्यादा मदद करती हैं। श्रीनिवास ने विचाराधारा के स्तर पर भारतीय समाजशास्त्र के लिए एक नयी ज़मीन तैयार की। उल्लेखनीय है कि जिस दौर में श्रीनिवास भारतीय समाज के अध्ययन की तैयारी कर रहे थे उस समय समाज-विज्ञानों पर अमेरिकी और ब्रिटिश अकादमिक प्रस्थापनाएँ हावी थी। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रचलित दृष्टिकोण भारतीय उपमहाद्वीप के समाज को समझने के लिए संस्कृतनिष्ठ परम्पराओं पर ज़ोर देता था। इसके असर में भारतीय समाजशास्त्री समकालीन यथार्थ के अध्ययन के लिए संस्कृत के स्रोतों और भारत- विद्या/इण्डोलॅजी को ज़्यादा प्रामाणिक मानते थे। श्रीनिवास पहले समाजशास्त्री थे जिन्होंने इस वर्चस्वकारी स्थिति को चुनौती दी। उन्होंने अपने लेखन से साबित किया कि समाजशास्त्र में समाज के वास्तविक कार्यकलापों और गतिविधियों का अध्ययन शास्त्रीय संदर्भों पर निर्भर रहने से ज़्यादा श्रेयस्कर है। श्रीनिवास द्वारा प्रस्तुत प्रभुत्वशाली जाति तथा संस्कृतीकरण की अवधारणाओं का राजनीति विज्ञानियों के अलावा इतिहास-लेखन की सबाल्टर्न जैसी धाराओं के इतिहासकारों ने व्यापक प्रयोग किया गया है। इस अर्थ में उनके कृतित्व को एक बौद्धिक परम्परा की श्रेणी में रखा जा सकता है जो नये-पुराने विद्वानों के लिए एक ज़रूरी संदर्भ की हैसियत हासिल कर चुका है। प्रसंगवश, प्रभुत्वशाली जाति की अवधारणा संख्या बल, भू-स्वामित्व, शिक्षा और नौकरी जैसे कारकों के कारण किसी जाति के गाँव या क्षेत्र विशेष में दबदबे को जाहिर करती है तो संस्कृतीकरण निम्न जातियों द्वारा उच्च जातियों ख़ास तौर पर ब्राह्मण वर्ग की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों, भाषा और वेशभूषा आदि को अपनाने की प्रवृत्ति को ज्ञापित करती है। हालाँकि उनकी तीसरी अवधारणा वोट बैंक, समाज-विज्ञानों में स्थाई जगह नहीं बना पायी परंतु राजनीति के दैनिक विमर्श और मीडिया जगत में इस पद का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है।

स्वतंत्र भारत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना के अध्ययन में ये तीनों अवधारणाएँ और उससे जुड़े विमर्श तात्त्विक महत्त्व हासिल कर चुके हैं। प्रभुत्वशाली जाति और संस्कृतीकरण की अवधारणाएँ भारत की सामाजिक व्यवस्था और उसके सांगठनिक ढाँचे के निर्णायक तत्त्वों को समझने में मदद करती हैं। हालाँकि ब्राह्म्णवादी आदर्शों की घटती वैधता के कारण संस्कृतीकरण की अवधारणा अब उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं मानी जाती लेकिन यह तथ्य है कि बीसवीं सदी के एक बड़े कालखण्ड और स्वतंत्रता के बाद भी लम्बे समय तक संस्कृतीकरण एक ख़ासी उल्लेखनीय प्रवृत्ति थी। दलित आंदोलन और मण्डल आयोग के बाद उभरी राजनीति में संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति क्षीण होती गयी है लेकिन प्रभुत्वशाली जाति की अवधारणा को भारत के ग्रामीण समाज में चलने वाली राजनीतिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने में आज भी एक जरूरी औजार की तरह देखा जाता है।

कई समकालीन समाजशास्त्री श्रीनिवास के कृतित्व को राष्ट्रवादी समाजशास्त्र के बृहत्तर संदर्भ में रखकर आँकने का आग्रह करते रहे हैं। उनका कहना है कि स्वतंत्र भारत का शहरी अभिजन औपनिवेशिक शासन के आधुनिकीकरण की परियोजना को जारी रखना चाहता था। इसलिए राष्ट्रवादी समाजशास्त्रियों के कृतित्व में चिंतन और विचार की वही औपनिवेशिक सरणियाँ सक्रिय थी जिनके आधार पर ब्रिटिश सत्ता अपने शासन को वैध ठहराती आयी थी। इन विद्वानों का कहना है कि जाति और समुदाय पर केंद्रित श्रीनिवास जैसे समाजशास्त्रियों का कृतित्व एक अखिल भारतीय संस्कृतवादी हिंदू धर्म की समझ को पीठिका प्रदान करता है। लेकिन श्रीनिवास की दृष्टि को प्रकट या अप्रकट तौर पर ब्रिटिश या अमेरिकी मानवशास्त्र की स्थापनाओं से निर्देशित बताना जल्दबाजी की दलील है जो सुबूतों की कमी के बावजूद आरोप पत्र तैयार करने की हिमाकत करती है। यह दलील श्रीनिवास के कृतित्व की उस प्रवृत्ति को लक्षित करने में चूक करती है जिसमें श्रीनिवास समुदाय का अध्ययन करते हुए समुदाय और अपने संबंधों के द्वैत पर भी विचार करते हैं। श्रीनिवास समाजशास्त्र और मानवशास्त्र की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर भी ठीक इसी तरह विचार करते हैं। ग़ौरतलब है कि श्रीनिवास सहभागी अध्येता के तौर पर ख़ुद को एक ऐसे अध्येता के रूप में परिभाषित करते हैं जिसकी इयत्ता अपने विषय यानी लोगों से अलग नहीं है। श्रीनिवास जिन लोगों या समुदाय का अध्ययन करते थे उन्हें वे अन्य की श्रेणी में नहीं रखते थे।

इस संबंध में कई ब्रिटिश मानवशास्त्री यह मानते रहे हैं अपने समाज का अध्ययन करने वाले मानवशास्त्री को अलग तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उनके अनुसार विकसित देश का मानवशास्त्री एक देशज मानवशास्त्री को उसकी निम्नतर स्थिति की ओर इशारा करके हमेशा एक ख़ास साँचे में कैद रखना चाहता है। श्रीनिवास ने इस मसले पर देशज मानवशास्त्री की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा था कि जब कोई भारतीय मानवशास्त्री भारत की किसी जाति या अन्य समूह का अध्ययन करता है तो वह जाति या समूह उसके लिए अन्य भी होता है लेकिन साथ ही इस बात को दरकिनार नहीं करना चाहिए कि उस जाति या समूह के कतिपय सांस्कृतिक रूप, विश्वास और मूल्य उक्त अध्येता से भी मेल खाते हैं। यानी ऐसी स्थिति में भारतीय मानवशास्त्री असल में एक तरह से अन्य में स्व का भी अध्ययन करता है। इस मायने में वह जाति या समूह उसके लिए नितांत अपरिचित या अन्य नहीं रह जाता क्योंकि दोनों एक ही संस्कृति से जुड़े होते हैं। श्रीनिवास इस स्थिति को असामान्य ढंग से जटिल, बहुपरती और द्वैधपूर्ण मानते हैं। ध्यान से देखें तो श्रीनिवास अपने विषय के साथ अंतर और समानता के जिन बिंदुओं बात करते हैं उन्हें देखते हुए उन पर राष्ट्रवादी समाजशास्त्री होने का आरोप दमदार नहीं लगता। वास्तव में श्रीनिवास इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अध्ययन में आत्म और अन्य की यह बहुलता मानवशास्त्री के अपने समुदाय का सदस्य होने या बाहरी होने की एकलता से कहीं ज़्यादा श्रेयस्कर है।

यह ग़ौरतलब है कि अपने शोध अध्ययन के लिए श्रीनिवास ने जिस रामपुरा गाँव को चुना था उसकी जाति व्यवस्था के अध्ययन में वे शिकागो स्कूल के कई प्रेक्षणों का उपयोग करते हैं। वर्ण की प्राक्-ब्रिटिश अवधारणा को श्रीनिवास किताबी नज़रिया सिद्ध करते हुए यह कहते हैं कि यह दृष्टि जाति के गतिशील पक्षों को गौण कर देती है। हालाँकि श्रीनिवास का जाति-अध्ययन एक गाँव की स्थानीय संरचना पर केंद्रित था लेकिन वह इस परिघटना की अखिल भारतीय व्याप्ति को लेकर भी सचेत थे। अपने एक लेख में वे इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि जाति निस्संदेह एक अखिल भारतीय संरचना है, क्योंकि देश में हर जगह ऐसे समूह देखे जा सकते हैं जो पैतृकता तथा वैवाहिक संबंधों के आधार पर एक विशिष्ट समूह का निर्माण करते हैं। श्रीनिवास इस संबंध में इन समूहों के पारम्परिक रोज़गार का हवाला भी देते हैं। उनका यह भी कहना है कि देश में हर जगह ब्राह्मण, अछूत, किसान, दस्तकार, व्यापारी और दूसरों की सेवा करने वाली जातियों का अस्तित्व देखा जा सकता है। जाति के इस अध्ययन में श्रीनिवास क्षेत्रीय भिन्नताओं और पश्चिमी शिक्षा, प्रशासनिक नौकरी, शहर से मिलने वाली आय जैसे कारकों का भी उल्लेख करते हैं जिनका जाति की संरचना पर व्यापक असर पड़ा है।

इस तरह दीर्घ अवधि के लिहाज से देखें तो एक समाजशास्त्री के तौर पर श्रीनिवास ने भारतीय ग्राम और जाति की संरचना को औपनिवेशिक धारणाओं के सैद्धांतिक वर्चस्व से भी मुक्त कराया है। और साथ ही द्यूमों जैसे समाजशास्त्री की मान्यताओं का भी प्रतिवाद किया जो यह प्रतिपादित कर रहे थे कि जातिगत विभिन्नताएँ भारतीय गाँव को समुदाय का रूप नहीं लेने देती। श्रीनिवास जब ग्रामीण समुदाय की संकल्पना और गाँवों की आर्थिक-सांस्कृतिक अंतर-निर्भरता की बात करते हैं तो वे अव्यक्त ढंग से अखिल भारतीय सभ्यता की बात भी करते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि श्रीनिवास ने जाति के अध्ययन में ब्राह्मणवादी या उच्च जाति का दृष्टिकोण अपनाया है। लेकिन इस दलील को सही कोण से देखें तो वह दरअसल औपनिवेशिक समाजशास्त्र से निकली प्रतीत होती है। श्रीनिवास की तर्क-योजना वास्तव में पश्चिमी समाजशास्त्रियों की भारत के ग्रामीण समुदायों के संबंध में प्रतिपादित स्थूल और अल्प-चिंतित धारणाओं को उजागर करती है। संक्षेप में कहा जाए तो श्रीनिवास का कृतित्व पश्चिमी ज्ञानशास्त्रीय प्रस्थापनाओं, स्व, समुदाय तथा राष्ट्र की धारणाओं के आलोचकीय विमर्श में कई बुनियादी तर्क मुहैया कराता है।

एम. एन. श्रीनिवास को भारतीय समाजशास्त्र को अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए कई गौरवपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। उनको बॉम्बे विश्वविद्यालय और रॉयल ऍन्थ्रोपोलोजिकल इंस्टीट्युट से इन्हे कई ऑनर्स प्राप्त हुए हैं। फ्रांस की सरकार की ओर से भी उन्हे सम्मान प्राप्त हुआ था। भारत के राष्ट्रपति ने उन्हे पद्म भूषण से नवाज़ा था। श्रीनिवास दो विस्व-प्रसिद्ध विश्वविद्यालयो, ब्रिटिश अकेडमी और अमेरीकन अकेडमी ऑफ आर्ट्स ऍड साइंसस (कला एवं विज्ञान), के माननीय विदेशी सदस्य भी रह चूके है।

एम एन श्रीनिवास का देहांत १९९९ में बंगलौर हुआ था।

पुस्तकें

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  • मैरिज एंड फैमिली इन मैसूर (१९४२)
  • रिलिजन एंड सोसाइटी अमंग द कूरगस ऑफ़ साउथ इंडिया (१९५२)
  • कास्ट्स इन मॉडर्न इंडिया एंड अदर एसेज (१९६२), एशिया पब्लिशिंग हाउस
  • द रेमेम्बेरेड विलेज (१९७६, पुनः प्रकाशित २०१३)
  • इंडियन सोसाइटी थ्रू पर्सनल राइटिंग्स (१९९८)
  • विलेज, कास्ट, जेन्डर एंड मेथ्ड़ (१९९८)
  • सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया
  • द डोमिनेंट कास्ट एंड अदर एसेज
  • डाइमेंशन्स ऑफ़ सोशल चेंज इन इंडिया

एम एन श्रिनिवास के काय की कुछ विद्वानों ने आलोचना भी की है।

  • संस्कृतिकरण को बढावा देने के कारण एम एन श्रीनिवास ने धार्मिक अपवर्गो को और भी उपेक्षित कर दिया है।
  • श्रीनिवास के लिये भारतीय परंपरा हिन्दु परंपरा है जो जाति व्यवस्था और ग्रामो में दिखाई देती है। इस दावे में धर्म-निश्पक्षता नहि दिखाई देती है।
  • श्रीनिवास का सामाजिक परिवर्तन का विवरण केवल संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण तक ही सीमित है, जो बाकी देशों और समाजो में समान रूप से उपयुक्त या लागू नहीं है।
  • श्रीनिवास के पहले भी कैइ समाजशास्त्री संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण जैजी संप्रत्ययो की चर्चा कर चुके है, अतः इन संप्रत्ययो में श्रीनिवास की मौलिकता नहि झलकती।

इन सब आलोचनाओं के बावजूद एम एन श्रीनिवास की भारतीय समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण जगह है। उनकी रचनाओं के अध्ययन के बिना भारतीय समाजशास्त्र का अभ्यास अधूरा है। उनके अनुसंधान और पुस्तकों ने कैइ अन्य समाजशास्त्रियों को प्रेरित किया है। भारतीय समाज और संस्कृति को समझने के लिये एम एन श्रिनिवास द्वारा रचित पुस्तको और उनके अनुसंधान का अभ्यास करना अनिवार्य है।

संरचनात्मक एवं कार्यात्मक परिप्रेक्ष्य

बाहरी कड़ियाँ

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1. रामचंद्र गुहा और ए.एम. शाह (2009), ऑक्सफ़र्ड इण्डिया श्रीनिवास, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली. 2. निकोलस बी. डर्क्स (2001), कास्ट्स ऑफ़ मांइड : कोलोनियलिज़म ऐंड द मेकिंग ऑफ़ मॉर्डन इण्डिया, प्रिंसटन युनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन, एनजे. 3. वीणा दास (2000), ‘इन मेमोरिअम : एम.एन श्रीनिवास 1916- 1999’, सेमिनार, 2000 4. क्रिस फ़ुलर, ऐन इंटरव्यू विद एम.एन. श्रीनिवास (ऑनलाइन)। एलएसई रिसर्च ऑनलाइन, लंदन,