ऐरण भारत के मध्य प्रदेश राज्य के सागर ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक गाँव है। यह बीना नदी के किनारे बसा हुआ है।[1][2]

ऐरण
Rajakhedi
ऐरण के विष्णु मन्दिर का मण्डप
ऐरण के विष्णु मन्दिर का मण्डप
ऐरण is located in मध्य प्रदेश
ऐरण
ऐरण
मध्य प्रदेश में स्थिति
निर्देशांक: 24°05′35″N 78°10′19″E / 24.093°N 78.172°E / 24.093; 78.172निर्देशांक: 24°05′35″N 78°10′19″E / 24.093°N 78.172°E / 24.093; 78.172
देश भारत
प्रान्तमध्य प्रदेश
ज़िलासागर ज़िला
जनसंख्या (2011)
 • कुल1,235
भाषाएँ
 • प्रचलितहिन्दी
समय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)
 
एरण स्थित वराह की विशालकाय प्रतिमा

प्राचीन सिक्कों पर इसका नाम ऐरिकिण लिखा है। एरण में वाराह, विष्णु तथा नरसिंह मन्दिर स्थित हैं। ऐरण सागर से करीब 90 किमी दूर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए सड़क मार्ग के अलावा ट्रेन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सागर-दिल्ली रेलमार्ग के एक महत्वपूर्ण जंक्शन बीना से इसकी दूरी करीब 25 किमी है। बीना और रेवता नदी के संगम पर स्थित एरण का नाम यहां अत्यधिक मात्रा में उगने वाली प्रदाह प्रशामक तथा मंदक गुणधर्म वाली 'एराका' नामक घास के कारण रखा गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि ऐरण के सिक्कों पर नाग का चित्र है, अत: इस स्थान का नामकरण एराका अर्थात नाग से हुआ है। एरण से एक अन्य अभिलेख भी प्राप्त हुआ था जो लगभग 510 ईसवी का माना जा रहा है। इसे भानुगुप्त का अभिलेख कहते हैं। यह अभिलेख भानुगुप्त के मंत्री गोपराज के बारे में है, माना यह जाता है कि भानुगुप्त के मंत्री गोपराज उनके साथ युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे जिससे गोपराज की पत्नी सती हो गई थी। इसी वजह से इस अभिलेख को एरण का सती अभिलेख भी कहा जाता है।.. इतिहास में पहली बार सती होने का प्रमाण मिलता है

एरण का इतिहास

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एरण के प्रचीनकाल के इतिहास के बारे में मिले पुरातात्वीय अवशेष हालांकि गुप्तकाल के हैं लेकिन यहां मिले सिक्कों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व काल में भी यह स्थान आबाद था। एरण के बारे में माना जाता है कि यह गुप्तकाल में एक बहुत ही महत्वपूर्ण नगर था। प्राचीन संदर्भ पुस्तकों के अनुसार एरण को स्वभोग नगर कहा जाता था। कुछ लोगों का विश्वास है कि एरण जेजकभुक्ति की राजधानी रहा है।

जनरल कनिंघम ने यह सर्वप्रथम प्राचीन एरिकिण नगर की पहचान एरण से की। एरण नामाकरण के संबंध में विद्वानों के कई विचार हैं। एक मत के अनुसार चूँकि यहाँ रईरक या ईरण नाम की घास बहुतायत में पैदा होती है, अतः इसका ऐसा नाम पड़ा. कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि यह नाग "ऐराका' नामक नाग के कारण पड़े. यहाँ प्राचीन काल में नागों का अधिकार था।

एरण की स्थिति भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। यह एक ओर मालवा का, तो दूसरी ओर बुंदेलखंड का प्रवेश- द्वार माना जा सकता है। पूर्वी मालवा की सीमा-रेखा पर स्थित होने के कारण यह दशार्ण को चेदि जनपद से जोड़ता था। सैनिक नियंत्रण की दृष्टि से भी इस स्थान को गुप्त शासकों ने अच्छा माना। ऐतिहासिक महत्व को इस स्थान का उत्खनन कराने पर यहाँ के टीलों से प्राप्त सामग्री, मृदभांड एवं स्तर विन्यास के आधार पर ज्ञात संस्कृतियाँ ताम्रयुग से लेकर उत्तर मध्यकाल तक क्रमिक इतिहास बनाती है। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि एक समय यह एक वैभवशाली नगर हुआ करता था। यहाँ की वास्तु तथा मूर्तिकला का हमेशा एक विशेष मान्यता दी गई है। कनिंघम ने यहाँ से प्राप्त मुद्राओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया है- आहत मुद्राएँ, ठप्पांकित मुद्राएँ तथा सांचे द्वारा निर्मित मुद्राएँ. इन मुद्राओं में हाथी, घोड़ा, वेदिका, वृक्ष, इंद्रध्वज, वज्र (उज्जैन चिन्ह), मत्स्य, कच्छप आदि के चिन्ह प्रमुख हैं।

एरण की पुरासंपदा

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एरण स्थित सती स्‍तंभ, जो अब नष्‍ट हो रहा है

एरण गांव में पुरा अवशेषों का विशाल संकलन है। खंडहर के रूप में डांगी शासकों के बनवाए किले के अवशेष भी मौजूद हैं। यहां का सबसे उल्लेखनीय स्मारक एक 47 फुट ऊंचा स्तंभ है जो एक ही शिला से बना है। इसे बुद्धगुप्त के राजकाल में मातृविष्णु और उसके भाई धन्यविष्णु ने खड़ा कराया था। एरण के नजदीक स्थित पहलेजपुर गांव में एक और अष्टकोणीय स्तंभ है। इसका शीर्षभाग गोलाकार है जिस पर सती प्रथा के संबंध में भारत में ज्ञात सबसे प्राचीनतम् लेख उत्कीर्ण हैं। इसके अलावा भी एरण में कई पुरावशेष मौजूद हैं जिन पर शोध कार्य चलता रहता है।

यहाँ से प्राप्त ध्वंसावशेषों में गुप्तकाल की भगवान विष्णु का मंदिर तथा उसके दोनों तरफ वराह तथा नृसिंह का मंदिर प्रमुख है। वराह की इतनी बड़ी प्रतिमा भारत में कहीं नहीं है। इसके मुख, पेट, पैर आदि समस्त अंगों में देव प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई है। विष्णु मंदिर के सामने 47 फुट ऊँचा गरुड़-ध्वज खड़ा है। इन अवशेषों के समीप अनेकों अभिलेख भग्न शिलापट्टों के रूप में पड़े हैं। यहाँ से प्राप्त इन अभिलेखों में प्रमुख अभिलेख हैं -

  • शक शासक, श्रीधर वर्मन का अभिलेख
  • गुप्त सम्राट, समुद्रगुप्त का अभिलेख
  • गुप्त सम्राट, बुधगुप्त का अभिलेख
  • हूण शासक, तोरभाण का अभिलेख
  • गुप्त सम्राट, भानुगुप्त का समकालीन अभिलेख (गोपराज सती स्तंभ लेख)

यह सभी तथ्य इस बात के परिचायक हैं कि तीसरी सदी से छठवीं सदी तक मालवा के पूर्वी सीमांत का यह नगर सामरिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक हलचल का केंद्र बना रहा। लेकिन गुप्तकाल के बाद धीरे-धीरे इस समृद्ध नगर का पतन हो गया। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया हो। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया हो। इस काल के बाद का कोई अभिलेखिक या मुद्राशास्रीय प्रमाण नहीं मिलते, सिर्फ कई नर-कंकाल मिलते हैं, जो हूणों के आक्रमण को इंगित करता है। भू-विन्यास में वाराह मन्दिर का गर्भ गृह एक मण्डप से युक्त था। छत सपाट रही होगी। विष्णु मन्दिर चार ऊँचे स्तम्भों पर आश्रित है, इसमें गंगा और यमुना को गर्भगृह द्वार में दिखाया गया है। नरसिंह मन्दिर भी भग्नावस्था में है। ऐरण की गुप्तयुगीन विष्णु प्रतिमा में गोलाकार प्रभा मण्डल, शैल के विकसित स्वरुप का प्रतीक है।

समुद्रगुप्त के ऐरण अभिलेख में लिखा हुआ है :

स्वभोग नगर ऐरिकरण प्रदेश,
अर्थात् स्वभोग के लिए समुद्रगुप्त ऐरिकिण जाता रहता था।

बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है। इसकी समय पन्ना नागौद क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन गये थे। जिनकी राजधानी गड़पैरा थी। दक्षिणी पश्चिमी झांसी–ग्वालियर के अमीर वर्ग के अहीरों की सत्ता थी तो धसान क्षेत्र के परिक्षेत्र में मांदेले प्रभावशाली हो गये थे।

सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण गुप्तकाल में मिलता है। ५१० ई.पू. के एक लेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश भानुगुप्त का सामन्त गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ मारा गया और उसकी पत्नी उसके शव के साथ सती हो गई थी।

श्री भानुगुप्तो जगति प्रवीरो, राजा महान्पार्थसमोडति शूरः।
तेनाथ सार्द्धन्त्विह गोपराजो, मित्रानुगत्येन किलानुयातः
कृत्वा च युद्ध सुमहत्प्रकाशं, स्वर्ग गतो दिव्य नरेन्द्रकल्पः
भक्तानुरक्ता च प्रिया च कान्ता, भार्यावलग्नानुगताग्निराशिम्
(गुप्त नरेश भानुगुप्त का एरण अभिलेख)

एरण में प्रथम शती ईस्वी से लेकर छठी शती ईस्वी तथा पूर्व मध्यकाल, उत्तरमध्यकाल में मूर्ति निर्माण परंपरा का क्रमशः विकसित रूप परिलक्षित होता है। एरण में वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर, गणपात्य बौद्ध धर्म की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। गुप्तकाल में एरण वैष्णव मत के एक महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। वैष्णव धर्म के मानने वाले कला मर्मज्ञ गुप्त सम्राटों के संरक्षण में यहाँ पर अनेक वैष्णव मंदिरों का निर्माण हुआ। उनमें भगवान विष्णु तथा उनके अवतारों की प्रतिमाएँ शैव, बौद्ध धर्म से संबंधित प्रतिमाएँ जैन प्रतिमाओं का भी निर्माण गुप्तकाल में किया गया। गुप्तकाल में निर्मित मंदिरों का प्रारंभिक रूप एरण में मिलता हैं इसी तरह से प्रारंभिक मंदिर साँची, तिगवा, भूमरा, नचना, देवगढ़ में मिले हैं। छोटे व सपाट गर्भगृह, पूजा स्थल, देव प्रतिमा युक्त मंदिर भारत के प्रारंभिक गुप्तकालीन मंदिरोें की विशेषताएँ मान जाती है।

एरण में बीना नदी के दक्षिणी तट पर एरण के मुख्य सांस्कृतिक भग्नावशेष विद्यमान हैं। एरण के ये मंदिर समूह विष्णु व उनके अवतारों से संबंधित हैं। महाविष्णु मंदिर के अलावा इस स्थल पर महावराह मंदिर एवं नृसिंह मंदिर भी हैं। ये गुप्तकालीन तथा हूण काल के प्रारंभिक काल में निर्मित मंदिर साधारण ढंग से निर्मित किये गये थे। इनमें सपाट छत वाला गर्भगृह एवं चार पाषाण स्तंभों पर आधारित लघु मंडप है। एरण के मंदिर समूह को मंदिर-वास्तु का प्राचीनतम रूप माना जा सकता हैं विद्वानों का मत है कि एरण में विष्णु, नृसिंह और वराह मंदिर स्थापित किये गये थे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि एरण में उक्त तीन मंदिरों के समीप ही चैथा मंदिर भी गुप्तकाल में निर्मित किया गया था। डाॅ. हरीसिंह गौर पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित महेश्वरदत्त व वराहदत्त द्वारा निर्मित नृवराह की प्रतिमा संभवतः इसी चैथे मंदिर में स्थापित थी। एरण में मंदिरों के छतें सपाट थीं। इन सभी मंदिरों के साज-सज्जा सीमित है। आयताकार गर्भगृह में स्थापित देवमूर्ति के साथ समक्ष थोड़ा नीचा द्वार मंडप है। द्वार व स्तंभों को भाँति-भाँति रूप से अलंकृत किया गया है। मंदिर समूह के समीप ही केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा एक चबूतरे के ऊपर चार स्तंभ सुरक्षा की दृष्टि से खड़े किये गये हैं। इस चबूतरे पर कृष्णलीला से संबंधित आकृतियाँ वाले पट्ट लगे हैं। विष्णु मंदिर के सामने बुधगुप्त द्वारा स्थापित गरुड़ स्तंभ सादगीपूर्ण कला का जीता जागता प्रमाण है। स्तंभ का नीचे का हिस्सा चैपहलू हैं, 6.1 मीटर की ऊँचाई के बाद 2.60 मीटर तक अठपहलू है जिसके ऊपर शीर्ष भाग है। शीर्ष भाग के निचले हिस्से में घण्टाकृति वाली उल्टे कमल की आकृति है, जो अशोक के स्तंभों में भी मिलती है। कमल के ऊपर निर्मित फलक के ऊपर दो सिंहों के ऊपर गरुड़ की स्नातक मुद्रा में मानवाकार प्रतिमा है। एरण से गुप्तकालीन अनेक मंदिर व मूर्तियों के प्रमाण प्राप्त हुए है। एरण से दूसरी-तीसरी ईस्वी के शिवलिंग व नाग प्रतिमाएॅ प्राप्त हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि एरण पर नाग शासकों का प्रभुत्व, गुप्तों के पूर्व था। नाग शासकों के सिक्के भी इसकी पुष्टि करते हैं। शक शासकों के शिलालेख, सिक्के व साॅचे ढालने के सॅाचों से स्पष्ट होता है कि एरण पर शकों का भी अधिकार था। एरण में तीसरी शती ईस्वी से लेकर छठी शती ईस्वी तक वैष्णव मूर्ति निर्माण परंपरा का क्रमशः विकसित रूप परिलक्षित होता है। वैष्णव मूर्तियों की शिल्प परम्परा में अनेक नवीन प्रतिमान एरण की गुप्तकालीन कला में प्राप्त हुए है। एरण में वैष्णव धर्म की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। एरण में भगवान विष्णु के अवतारों की प्रतिमाओं का निर्माण मुख्य रूप से किया गया था।[3][4][5]

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. "Inde du Nord: Madhya Pradesh et Chhattisgarh Archived 2019-07-03 at the वेबैक मशीन," Lonely Planet, 2016, ISBN 9782816159172
  2. "Tourism in the Economy of Madhya Pradesh," Rajiv Dube, Daya Publishing House, 1987, ISBN 9788170350293
  3. मोहन लाल चढार, एरण की ताम्रपाषाण संस्कृति, सागर, 2009
  4. नागेश दुबे व मोहन लाल चढार: एरण एक परिचय, अमरकंटक 2016
  5. मोहन लाल चढार: एरण एक सांस्कृतिक धरोहर, आयु पब्लीकेशन नई दिल्ली,2016