कातंत्र व्याकरण आचार्य शर्ववर्मन के द्वारा रचित यह संस्कृत का व्याकरण है। शर्ववर्मन, सातवाहन राजा के मन्त्री थे।

कातंत्र व्याकरण को पाणिनीय व्याकरण के समान वेदाङ्ग नहीं माना गया है। इस व्याकरण ग्रन्थ में वेदविचार का कोई विषय भी प्राप्त नहीं होता है। अतः यह लौकिक संस्कृत के साधारण ज्ञान मात्र के लिए ही उपयोगी है। कातंत्र के संसकृत टीकाकार श्रीमद भावसेनाचार्य त्रेविद्य हैं।

कालाप, कालापक, और कालाप-व्याकरण से तत्पर्य कातन्त्र से है या इसके किसी अन्य संस्करण (पाण्डुलिपि) से है। आर्थर कोक ब्रुनेल (Arthur Coke Burnell) ने कातन्त्र की योजना की तुलना ऐन्द्र व्याकरण तथा तोल्काप्पियम् के साथ की है।[1]

कातन्त्र व्याकरण का प्रचलन बंगाल से कश्मीर तक तथा आन्ध्र और उत्कल में व्यापक रूप से था। इसके अतिरिक्त इसका उपयोग नेपाल , तिब्बत और श्री लंका में भी हुआ। इसकी लोकप्रिया इस बात से सिद्ध होती है कि कातन्त्र व्याकरण पर अनेक व्याकरण ग्रन्थों की रचना हुई। कातन्त्र रूपमाला पर ही ४० से अधिक ग्रन्थ हैं। कातन्त्र व्याकरण पर तिब्बती भाषा में २३ से अधिक टीकाएँ मिलतीं हैं। इसकी लोकप्रियता इससे भी आंकी जा सकती है कि जैन और बौद्ध दोनों ही इसके रचनाकार होने का दाव करते हैं।

कातन्त्र व्याकरण की प्रमुख विशेषताएँ

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१) इसे कातन्त्र, कलाप, कलापक, कुमार, शार्ववार्मिक, दौर्गसिंह, दुर्गासिंहीय आदि नामों से जाना जाता है।

२) किंवदन्ति के अनुसार इसकी रचना रज सातवाहन को संस्कृत की शिक्षा देने के उद्देश्य से की गयी थी।

३) इसके प्रत्यय की योजना पाणिनीय व्याकरण से अधिक सरल है।

४) इसमें १४ स्वर माने गये हैं, जबकि पाणिनि केवल ९ स्वर मानते हैं।

५) इसमें ५२ वर्ण माने गये हैं जबकि पाणिनि केवल ४२ वर्ण मानते हैं।

६) कातन्त्र समन्वय, लोक-व्यवहार का अनुसरण करता है, जबकि पाणिनि का समन्वय लोक-व्यवहार का अनुसरण नहीं करता।

७) कातन्त्र व्याकरण, प्रत्याहारों का उपयोग नहीं करता। इसलिये कहीं-कहीं सूत्र संक्षिप्त नहीं रह पाये हैं। लेकिन इसके कारण ही प्रत्याहार को स्मरण रखने से मुक्ति मिली है।

८) कातन्त्र ने अर्थकृत लाघव को अपनाया है, जबकि पाणिनि ने शब्दकृत लाघव को। अतः कातन्त्र, प्रयोक्ता के प्रति अधिक मित्रवत् हैं।

ग्रन्थ का संगठन

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यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है- सन्धि, नाम्नि, चतुष्ठय और आख्यात।[2]

  • (२) नामकरणप्रकरण - इसमें षड्लिङ्ग की तरह नाम - लिङ्ग - प्रातिपदिक के रुपों का ज्ञान कराया गया है। साथ में कारक, समास, तद्धित इत्यादि शब्दों की सिद्धि का विवेचन भी किया गया है। इसी प्रकरण में स्तरीपरत्यय का भी विवेचन किया गया है। इसमें कुल सात पाद है।
  • (३) आख्यातप्रकरण - इसमें धातुरुपों का विवेचन किया गया है। इसमें कुल आठ पाद है।
  • (४) कृत्प्रकरण - इसमें कृत् प्रत्ययों का विवेचन किया गया है। इनमें कुल 6 पाद हैं।



कातन्त्र व्याकरण के कुछ सूत्र

1) ऊँ नमः सिद्धम्।

सिद्धो वर्ण समान्माय। ।1।
( समाम्नाय -निघंटु है! )
लोक-प्रचलित रूप - (सिद्धो वर्णो समैमनाया।)

2) तत्र चतुर्दशाः स्वराः॥ 2॥

चौदह स्वर हैं - ( अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ लृ लृ ऋ ॠ)
लोक-प्रचलित रूप - ( जय जय चतुरकदसा । )

3) दश समाना ॥ 3 ॥

( अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ, ये दस समान हैं)
लोक-प्रचलित रूप - ( दहु सवेरा। दसे समाना।)

4) तेषु दवौ द्वावन्यौन्यस्य सवर्णो ॥ 4॥

( दो दो एक दूसरे के सवर्ण हैं, जैसे अ, आ का सवर्ण, इ, ई का)
लोक-प्रचलित रूप - ( तकाउ दुधवा वरणा वरणो, वरणा नसीस वरणा)

5) पूर्वो ह्रस्वः परो दीर्घाः ॥ 5॥

( पूर्व वर्ण ह्रस्व तथा बाद का वर्ण दीर्घ है।)
लोक-प्रचलित रूप - ( पुरवो रसवा, पारो दुरषा ।)

6) स्वरो वर्ण वर्गो नामी ॥ 6 ॥

लोक-प्रचलित रूप - (सारो वरणा, )

7) एकारादिनाम् सांध्याक्षराणि॥7॥

( अ + इ = ए )
लोक-प्रचलित रूप - ( इकरादेणी सिंध कराणी।)

8) कादिनि व्यंजनानि ॥8॥

( क आदि व्यंजन हैं।)
लोक-प्रचलित रूप- (कादीणी विणजैनामी)

9) ते वर्गो पंचः पंचः॥9।।

( पाँच-पाँच वर्णों के 5 वर्ग हैं )
लोक-प्रचलित रूप- (ते वर्गो पंचो पंचिया)

10) वर्णानाम् प्रथम द्वितीय, श ष स श्च अघोषाः ॥10॥

( वर्णों में प्रथम और द्वितीय तथा शषस अघोष हैं)

11) घोषवन्तो अन्ये ॥11॥

( अन्य गघ, ज, झ, ड, ढ, द, ध घोष वर्ण हैं।
लोक-प्रचलित रूप -(10, 11, 12 गोषागोष पथोरणी।)

12) अनुनासिका ङ ञ ण न म ।

(ङ ञ ण न म इत्यादि अनुनासिक हैं।)
लोक-प्रचलित रूप - ( निनाणै रा नषाँ।)

13) अन्तस्थ य र ल व ।

( य र ल व अंतस्थ वर्ण हैं।)
लोक-प्रचलित रूप - (अंतसथ यरलव।)
नोट- यही काफी मिलता-जुलता है!

14) उष्माणं श ष स ह ।

( श ष स ह उष्म वर्ण हैं।)
लोक-प्रचलित रूप- ( संकोसह हंसिया उस्मल )

15) अः इति विसर्गनियम्।

(अः विसर्ग है।)
( नोट - इसके बाद के लोक-प्रचलित अपभ्रंश रूप उपलब्ध ही नहीं)

16) क इति जिव्हामूलीय।

( क वर्ग जीभ के मूल यानि कंठ से बोला जाता है।)

17) ष इति मूर्धन्यम्।

( ष मूर्धा से बोला जाता है, मूर्धन्य है।)

18) अं इति अनुस्वार।

( अं अनुस्वार है।)

19) पूर्वाषयोरथोपलब्धो पदमश। ( यह पद प्रयास के बावजूद अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ )

20) व्यंजन स्वरं पद वर्णन्यूत।

21) अनतिक्रमयत विश्लेषयेत्।

22) लोको यथा ग्रहणसिद्धि।

  1. Burnell, Arthur Coke. On the Aindra school of Sanscrit Grammarians: their place in the Sanscrit and subordinate literatures. p. 9. "That the arrangement of the Kātantra, Kaccāyana's Pali Grammar, and the Tolkāppiyam is really the same will be seen by the following comparative table..."
  2. New Catalogus Catalogorum. Vol. III. p. 306.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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