जैन धर्म
जैन धर्म श्रमण संस्कृति से निकला धर्म है। इसके प्रवर्तक हैं २४ तीर्थंकर हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान महावीर हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यों में प्रचुर मात्रा में हैं। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं। समयसार एवं तत्वार्थ सूत्र आदि इनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। जैनों के प्रार्थना - पूजास्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं।[1]
'जैन' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित '। जो 'जिन' के अनुयायी हैं उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन, मन, वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त अर्हंत भगवान को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म। जिन का अन्य पर्यायवाची शब्द अर्हत/अर्हंत भी है प्राचीन काल में जैन धर्म को आर्हत् धर्म कहा जाता था।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सृष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। करन सिंह चेरो सुआ
भगवान
संपादित करेंजैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही | जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन धर्म 'स्याद्वाद' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है।
तीर्थंकर
संपादित करेंजैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-
क्रमांक | तीर्थंकर |
1 | ऋषभदेव- इन्हें 'आदिनाथ' भी कहा जाता है |
2 | अजितनाथ |
3 | सम्भवनाथ |
4 | अभिनंदन जी |
5 | सुमतिनाथ जी |
6 | पद्मप्रभु जी |
7 | सुपार्श्वनाथ जी |
8 | चंदाप्रभु जी |
9 | सुविधिनाथ- इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है |
10 | शीतलनाथ जी |
11 | श्रेयांसनाथ |
12 | वासुपूज्य जी |
13 | विमलनाथ जी |
14 | अनंतनाथ जी |
15 | धर्मनाथ जी |
16 | शांतिनाथ |
17 | कुंथुनाथ |
18 | अरनाथ जी |
19 | मल्लिनाथ जी |
20 | मुनिसुव्रत जी |
21 | नमिनाथ जी |
22 | अरिष्टनेमि जी - इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। |
23 | पार्श्वनाथ |
24 | वर्धमान महावीर - इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है। |
विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है।
जैन नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल सतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। अंतिम दो तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी ऐतिहासिक पुरुष है[2]। महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले होना ग्रंथों से पाया जाया है। महाभारत के अनुशासन पर्व, महाभारत के शांतिपर्व, स्कन्ध पुराण, जैन प्रभास पुराण, जैन लंकावतार आदि अनेक ग्रंथो में अरिष्टनेमि का उल्लेख है।
दर्शन
संपादित करेंजैन पन्थ के सिद्धान्त
संपादित करेंरागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण 'वर्धमान महावीर' की उपाधि 'जिन' थी। अतः उनके द्वारा प्रचारित धर्म 'जैन' कहलाता है। जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन पन्थ में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।
जैन धर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कर्म महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।
जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं श्वेताम्बर (उजला वस्त्र पहनने वाला)और दिगम्बर (नग्न रहने वाला) ।
जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध सँवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर व्रत, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। जैन सिद्धान्त में रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये 'रत्नत्रय ' हैं-सम्यक् दर्शन ,सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र्य।मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अन्तकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।
अनेकान्तवाद जैन पन्थ का तीसरा मुख्य सिद्धान्त है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी मत या सिद्धान्त को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकान्तवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धान्त को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा, स्यात् अस्ति', 'स्यात् नास्ति', स्यात् अस्ति नास्ति', 'स्यात् अवक्तव्य,' 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' और 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य', इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पार्श्वनाथ के चार महाव्रत थे
1.अहिंसा
2.सत्य
3.अस्तेय
4.अपरिग्रह
महावीर ने पाँचवा महाव्रत 'ब्रह्मचर्य' के रूप में भी स्वीकारा।जैन सिद्धांतों की संख्या 45 है, जिनमें 11 अंग हैं।
जैन सम्प्रदाय में पञ्चास्तिकायसार, समयसार और प्रवचनसार को 'नाटकत्रयी ' कहा जाता है।
जैन के धर्म में 3 प्रमाण हैं-प्रत्यक्ष,अनुमान तथा आगम(आगम)।
आचार विचार
संपादित करेंजैन पन्थ में आत्मशुद्धि पर बल दिया गया है। आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिये जैन पन्थ में देह-दमन और कष्टसहिष्णुता को मुख्य माना गया है। निर्ग्रंथ और निष्परिग्रही होने के कारण तपस्वी महावीर नग्न अवस्था में विचरण किया करते थे। यह बाह्य तप भी अन्तरंग शुद्धि के लिये ही किया जाता था। प्राचीन जैन सूत्रों में कहा गया है कि भले ही कोई नग्न अवस्था में रहे या एक एक महीने उपवास करे, किन्तु यदि उसके मन में माया है तो उसे सिद्धि मिलने वाली नहीं। जैन आचार-विचार के पालन करने को 'शूरों का मार्ग' कहा गया है। जैसे लोहे के चने चबाना, बालू का ग्रास भक्षण करना, समुद्र को भुजाओं से पार करना और तलवार की धार पर चलना दुस्साध्य है, वैसे ही निर्ग्रंथ प्रवचन के आचरण को भी दुस्साध्य कहा गया है।
बौद्ध पन्थ की भाँति जैन पन्थ में भी जाति भेद को स्वीकार नहीं किया गया। प्राचीन जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि सच्चा ब्राह्मण वही है जिसने राग, द्वेष और भय पर विजय प्राप्त की है और जो अपनी इन्द्रियों पर निग्रह रखता है। जैन धर्म में अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की कल्पना की गई है, किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने से नहीं। महावीर ने अनेक म्लेच्छ, चोर, डाकू, मछुए, वेश्या और चांडालपुत्रों को जैन धर्म में दीक्षित किया था। इस प्रकार के अनेक कथानक जैन ग्रन्थों में पाए जाते हैं।
जैन पन्थ के सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए थे। इससे मालूम होता है कि पूर्वकाल में जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म था, विशेषकर अहीर या यादव समाज जैन पंथ का अधार था जिसका कालांतर में ब्राह्मणीकरण कर हिंदू धर्म का अंग बना दिया गया परन्तु आज के समय में अधिकांश वैश्य लोग ही इसके अनुयायी हैं। वैसे दक्षिण भारत में सेतवाल आदि कितने ही जैन खेतीबारी का धंधा करते हैं। पंचमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के धंधे करनेवाले लोग पाए जाते हैं। जिनसेन मठ (कोल्हापुर) के अनुयायियों को छोड़कर और किसी मठ के अनुयायी चतुर्थ नहीं कहे जाते। चतुर्थ लोग साधारणतया खेती और जमींदारी करते हैं। सतारा और बीजापुर जिलों में कितने ही जैन धर्म के अनुयायी जुलाहे, छिपी, दर्जी, सुनार और कसेरे आदि का पेशा करते हैं।
सात तत्त्व
संपादित करेंजैन ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन मिलता हैं। यह हैं-
- जीव- जैन दर्शन में आत्मा के लिए "जीव" शब्द का प्रयोग किया गया हैं। आत्मा द्रव्य जो चैतन्यस्वरुप है। [3]
- अजीव- जड़ या की अचेतन द्रव्य को अजीव (पुद्गल) कहा जाता है।
- आस्रव - पुद्गल कर्मों का आस्रव करना
- बन्ध- आत्मा से कर्म बन्धना
- संवर- कर्म बन्ध को रोकना
- निर्जरा- कर्मों को क्षय करना
- मोक्ष - जीवन और मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।
व्रत
संपादित करेंजैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है। तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है [4]-
- अहिंसा - किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना। किसी जीव के प्राणों का घात नहीं करना।
- सत्य - हित, मित, प्रिय वचन बोलना।
- अस्तेय - बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
- ब्रह्मचर्य - मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का त्याग करना।
- अपरिग्रह- पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धिपूर्वक त्याग।[5]
मुनि इन व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करते है, वही श्रावक स्थूल रूप से करते है।
नौ पदार्थ
संपादित करेंजैन ग्रंथों के अनुसार जीव और अजीव, यह दो मुख्य पदार्थ हैं।[6] आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप अजीव द्रव्य के भेद हैं।
छह द्रव्य
संपादित करेंजैन धर्म के अनुसार लोक ६ द्रव्यों (substance) से बना है। यह ६ द्रव्य शाश्वत हैं अर्थात इनको बनाया या मिटाया नहीं जा सकता।[6] यह है जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल।
त्रिरत्न
संपादित करें- सम्यक् दर्शन - सम्यक् दर्शन को प्रगताने के लिए तत्त्व निर्णय की साधना करनी चहिये | तत्त्व निर्णय - मै इस शरीर आदि से भिन्न एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हू, यह शरीरादी मै नहीं और यह मेरे नहीं |
- सम्यक् ज्ञान - सम्यक ज्ञान प्रगताने के लिए भेद ज्ञान की साधना करनी चहिये | भेद ज्ञान - जिस जीव का, जिस दृव्य का जिस समय जो कुछ भी होना है, वह उसकी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा। उसे कोई ताल फेर बदल सकता नहीं।
- सम्यक् चारित्र - सम्यक चारित्र की साधना के लिए वस्तु स्वरुप की साधना करना चहिये। सम्यक चरित्र का तात्पर्य नैैतिक आचरण से है | पंचमहाव्रत का पालन ही शिक्षा है जो चरित्र निर्माण करती है|
यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता।[6] सम्यक्त्व के आठ अंग है —निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन / उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य।
चार कषाय
संपादित करेंक्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषाय है जिनके कारण कर्मों का आस्रव होता है। इन चार कषाय को संयमित रखने के लिए माध्यस्थता, करुणा, प्रमोद, मैत्री भाव धारण करना चहिये |
चार गति
संपादित करेंचार गतियाँ जिनमें संसरी जीव का जन्म मरण होता रहता है— देव गति, मनुष्य गति, तिर्यंच गति, नर्क गति। मोक्ष को पंचम गति भी कहा जाता है।
चार निक्षेप
संपादित करेंनाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप।
अहिंसा
संपादित करेंअहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। सभी जैन शाकाहारी होते हैं।अहिंसा का पालन करना सभी मुनियो और श्रावकों का परम धर्म होता है। जैन धर्म का मुख्य वाक्य हि "अहिंसा परमो धर्म" है।
अनेकान्तवाद
संपादित करेंअनेकान्त का अर्थ है- किसी भी विचार या वस्तु को अलग अलग दष्टिकोण से देखना, समझना, परखना और सम्यक भेद द्धारा सर्व हितकारी विचार या वस्तु को मानना ही अंनेकात है ।[7]
स्यादवाद
संपादित करेंस्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।[7]
मन्त्र
संपादित करेंयह जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है जो प्राकृत भाषा में है-
- णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं।
- णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पंच परमेष्ठी हैं।
काल चक्र
संपादित करेंजिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है— उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि, हर वस्तु का मान, आयु, बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि, हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण का जन्म होता है। इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है। ऊपर जो २४ तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है।
इतिहास
संपादित करेंजैन धर्म कितना प्राचीन है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। महावीर स्वामी या वर्धमान ने ईसा से ४६८ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। इसी समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। जैनों ने अपने ग्रंथों को आगम, पुराण आदि में विभक्त किया है। प्रो॰ जेकोबी आदि के आधुनिक अन्वेषणों के अनुसार यह सिद्ध किया गया है की जैन धर्म बौद्ध धर्म से पहले का है। उदयगिरि, जूनागढ आदि के शिलालेखों से भी जैन धर्म की प्राचीनता पाई जाती है। हिन्दू ग्रन्थ, स्कन्द पुराण (अध्याय ३७) के अनुसार: "ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा"|[8]
भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का प्रचार विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ। पर जैनों के मूल ग्रंथ अंगों में यवन ज्योतिष का कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार वेद संहिता में पंचवर्षात्मक युग है और कृत्तिका से नक्षत्रों की गणना है उसी प्रकार जैनों के अंग ग्रंथों में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है।
भगवान महावीर के बाद
संपादित करेंभगवान महावीर के पश्चात इस परंम्परा में कई मुनि एवं आचार्य भी हुये है, जिनमें से प्रमुख हैं-
- भगवान महावीर के पश्चात 62 बर्ष में तीन केवली (527-465 B.C.)
- गौतम स्वामी (607-515 B.C.)
- सुधर्मास्वामी (607-507 B.C.)
- जम्बूस्वामी (542-465 B.C.)
- इसके पश्चात 100 बर्षो में पॉच श्रुत केवली (465-365 B.C.)
- आचार्य भद्रबाहु- अंतिम श्रुत केवली (433-357)
- आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी (200 A.D.)
- आचार्य उमास्वामी (200 A.D.)
- आचार्य समन्तभद्र
- आचार्य पूज्यपाद (474-525)
- आचार्य वीरसेन (790-825)
- आचार्य जिनसेन (800-880)
- आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती
सम्प्रदाय
संपादित करेंतीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न रही जैन परंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों में विभक्त हो गयी : दिगंबर और श्वेताम्बर। मुनि प्रमाणसागर जी ने जैनों के इस विभाजन पर अपनी रचना 'जैनधर्म और दर्शन' में विस्तार से लिखा है कि आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में १२ वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है इसलिए उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए। आचार्य भद्रबाहु के साथ हजारों जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु और कर्नाटक की ओर प्रस्थान कर गए और अपनी साधना में लगे रहे। परन्तु कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रुक गए थे। अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह आगमानुरूप नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं, जैसे कटि वस्त्र धारण करना, ७ घरों से भिक्षा ग्रहण करना, १४ उपकरण साथ में रखना आदि। १२ वर्ष बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परम्परा को अपना लें पर साधु राजी नहीं हुए और तब जैन धर्म में दिगंबर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गए।
दिगम्बर
संपादित करेंदिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है, नग्न रहते हैं|दिगम्बर मत में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया है। दिगंबर समुदाय तीन में भागों विभक्त हैं।
श्वेताम्बर
संपादित करेंश्वेताम्बर एवं साध्वियाँ और संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं, तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिमा पर धातु की आँख, कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार किया जाता है।
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है: मूर्तिपूजक एवं अमूर्तिपूजक
- मूर्तिपूजक - यॆ तीर्थकरों की प्रतिमाओं की पूजा करतॆ हैं।
- अमूर्तिपूजक - ये मूर्ति पूजा नहीँ करते। द्रव्य पूजा की जगह भाव पूजा में विश्वास करते हैं।
अमूर्तिपूजक के भी दो भाग हैं:-
- स्थानकवासी
- श्वेताम्बर तेरापन्थ
धर्मग्रंथ
संपादित करेंदिगम्बर आचार्यों द्वारा समस्त जैन आगम ग्रंथो को चार भागो में बांटा गया है -
- (१) प्रथमानुयोग
- (२) करनानुयोग
- (३) चरणानुयोग
- (४) द्रव्यानुयोग
तत्त्वार्थ सूत्र- सभी जैनों द्वारा स्वीकृत ग्रन्थ
दिगम्बर ग्रन्थ
संपादित करेंप्रमुख जैन ग्रन्थ हैं :-
- षट्खण्डागम- मूल आगम ग्रन्थ
- आचार्य कुंद कुंद द्वारा विरचित ग्रन्थ- समयसार, प्रवचनसार,नियमसार, रयणसार
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
- आदिपुराण
- इष्टोपदेश,
- आप्तमीमांसा,
- मूलाचार,
- द्रव्यसंग्रह
- गोम्मटसार,
- भगवती आराधना
- योगसार
- परमात्म प्रकाश
- श्रीरविषेणाचार्य कृत पद्मपुराण
- श्रेणिक चरित्र
- हरिवंश पुराण
- तिलोय पण्णत्ती
- तत्वार्थ सूत्र
- जिनसहस्त्र नाम स्त्रोत
- अष्टपाहुड
- आलाप पद्धति
- ज्ञानार्णव
- आचार्य तारण स्वामी विरचित-;मालारोहण, पंडित पूजा,कमलबत्तीसी,तारण तरण श्रावकाचार,न्यानसमुच्चय साथ,उपदेशशुद्ध सार,त्रिभंगीसार,चौबीस ठाणा,ममलपाहुड,षातिकाविशेष,सिद्धस्वभाव,सुन्नस्वभाव,छद्मस्थवाणी,नाममाला।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा
- समयसार कलश
- हरिवंश पुराण
- पार्श्व पुराण
- उत्तर पुराण
- सर्वार्थ सिद्धि
- त्रिलोकसार
- दर्शनसार
श्वेताम्बर ग्रन्थ
संपादित करेंत्यौहार
संपादित करेंजैन धर्म के प्रमुख त्यौहार इस प्रकार हैं
- महावीर जयंती
- पर्युषण
- सोलहकारण पर्व
- अष्टान्हिका पर्व
- पंचमेरू पर्व
- रत्नत्रय पर्व
- ऋषिपंचमी
- दीपावली
- श्रुत पंचमी
- अक्षय तृतीया पर्व
- वीरशासन जयंती पर्व
- क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी जयंती पर्व
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "जैन धर्म क्या है?". Hindi webdunia. मूल से 4 अगस्त 2019 को पुरालेखित.
- ↑ Zimmer 1953, पृ॰ 182-183.
- ↑ शास्त्री २००७, पृ॰ ६४.
- ↑ प्रमाणसागर २००८, पृ॰ १८९.
- ↑ जैन २०११, पृ॰ ९३.
- ↑ अ आ इ आचार्य नेमिचन्द्र २०१३.
- ↑ अ आ प्रमाणसागर २००८.
- ↑ Sangave २००१, पृ॰ २३.
सन्दर्भ सूचि
संपादित करें- प्रमाणसागर, मुनि (२००८), जैन तत्त्वविद्या, भारतीय ज्ञानपीठ, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1480-5, मूल से 25 सितंबर 2015 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 10 जनवरी 2016
- जैन, विजय कुमार (२०११), आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-903639-2-1, मूल से 22 दिसंबर 2015 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 17 जनवरी 2016
- आचार्य नेमिचन्द्र (२०१३), द्रव्यसंग्रह, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-903639-5-6, मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 17 जनवरी 2016
- Sangave, Vilas Adinath (२००१), Facets of Jainology: Selected Research Papers on Jain Society, Religion, and Culture, Mumbai: Popular prakashan, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7154-839-3
- Zimmer, Heinrich (1953) [April 1952], Campbell, Joseph (संपा॰), Philosophies Of India, London, E.C. 4: Routledge & Kegan Paul Ltd, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0739-6, मूल से 15 दिसंबर 2015 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 20 सितंबर 2015सीएस1 रखरखाव: स्थान (link)
- शास्त्री, प. कैलाशचन्द्र (२००७), जैन धर्म, आचार्य शंतिसागर 'छाणी' स्मृति ग्रन्थमाला, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-902683-8-4
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- जैन धर्म के बारे में उपयोगी जानकारी
- जैनधर्म में विज्ञान (गूगल पुस्तक ; नारायण लाल कछारा)
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (गूगल पुस्तक ; जिनेन्द्र वाणी)