रत्नकरण्ड श्रावकाचार
रत्नकरण्ड श्रावकाचार की रचना दूसरी सदी के आचार्य समंतभद्र ने की है। आचार्य समंतभद्र जैनदर्शन के सर्वाधिक प्रामाणिक आचार्यों में से एक है। उनके द्वारा लिखित यह ग्रन्थ श्रावकों के आचरण का प्रथम ग्रन्थ है; जो कि परवर्ती ग्रंथकारों के लिए प्रेरणा व प्रमाण स्वरूप है।
लेखक | आचार्य समन्तभद्र |
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भाषा | संस्कृत |
प्रतिपादन विषय
संपादित करेंयह ग्रन्थ जैनदर्शन का अलौकिक और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जैनदर्शन में समस्त शास्त्र चार अनुयोगों में निबद्ध है, उनमें से चणानुयोग का ग्रन्थ है। चणानुयोग ग्रंथों में आचारण का निरूपण किया जाता है, आचरण दो प्रकार का होता है, 1. निर्ग्रन्थ आचरण और 2. श्रावक आचरण। यह ग्रन्थ श्रावकों के आचरण का निरूपण करता है। जैनदर्शन में श्रावकों के आचरण का निरूपण करने वाला सभी उपलब्ध ग्रन्थों में यह रत्नकरण्डश्रावकाचार प्रथम ग्रन्थ है।[1] वस्तुतः जैनदर्शन के अनुसार मोक्षमार्ग के तीन हेतु है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इनमें से इस ग्रन्थ में सम्यक्चारित्र का निरूपण सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक है; क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र हो ही नहीं सकता। इस ग्रन्थ में श्रावक के बारह व्रतों की चर्चा भी है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को चर्चा भी तथा सल्लेखना की भी प्रामाणिक और वैज्ञानिक चर्चा है। इस ग्रन्थ में कुल 150 श्लोक है।
अधिकार
संपादित करेंइस ग्रंथ का वर्गीकरण स्वयं रचनाकार ने नहीं किया है; परंतु परवर्ती टीकाकारों ने किया है। ग्रंथ का वर्गीकरण स्वयं रचनाकार का न होने से भिन्न टीकाकारों ने भिन्न वर्गीकरण किया है; उनमें से प्रसिद्ध दो वर्गीकरण है। आचार्य प्रभाचन्द्र का वर्गीकरण इनके अनुसार इसमें पाँच अधिकार है :-
1) दर्शनाधिकार - 41 श्लोक
2) ज्ञानधिकार - 5 श्लोक
3) चारित्राधिकार - 44 श्लोक
4) शिक्षाव्रताधिकार - 31 श्लोक
5) सल्लेखनाप्रतिमाधिकार - 29 श्लोक
पंडित सदासुखदासजी का वर्गीकरण इनके अनुसार आठ अधिकार है :-
1) सम्यग्दर्शन अधिकार - 41 श्लोक
2) सम्यग्ज्ञान अधिकार - 5 श्लोक
3) अणुव्रत अधिकार - 20 श्लोक
4) गुणव्रत अधिकार - 24 श्लोक
5) शिक्षाव्रत अधिकार - 31 श्लोक
6) भावना अधिकार - कोई श्लोक नहीं
7) सल्लेखना अधिकार - 14 श्लोक
8) श्रावकपद अधिकार - 15 श्लोक [2]
टिकाएँ
संपादित करें1) प्रभाचंद्राचार्य विरचित संस्कृत टिका प्रभाचंद्राचार्य जैनदर्शन के प्रसिद्ध नैयायिक है, इन्होंने अनेकानेक ग्रंथों पर टिकाएँ लिखी है। इनके द्वारा लिखित संस्कृत में उपलब्ध रत्नकरण्डश्रावकाचार टिका एक मात्र टिका है।
2) श्रीचंद कवि ने इस ग्रन्थ पर 21 संधियों में विस्तृत विवेचन अपभ्रंश भाषा में किया है।[3]
3) पंडित सदासुखदासजी द्वारा विरचित वचनिका पंडित सदासुखदासजी कासलीवाल ने रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रन्थ पर ब्रज भाषा (ढूंढारी बोली) में वचनिका लिखी है। यह टिका विद्वत्समूह में सर्वाधिक लोकप्रिय हुई है। किन्हीं विद्वानों का ऐसा भी कहना है कि जैनदर्शन में और भी श्रावकाचार थें; परंतु रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रसिद्धि इनकी टिका के कारण ही हुई है। इन्होंने मात्र ग्रन्थ का अर्थ नहीं किया; अपितु इससे संबंधी विविध विषयों का मार्मिक विस्तार किया, जैसे भावना अधिकार में मात्र अपने ही विचारों को ही रखा है, कोई भी श्लोक नहीं हैं।
4) अर्वाचीन टिकाएँ इस ग्रन्थ पर आधुनिक हिन्दी में भी बहुत सारी टिकाएँ उपलब्ध है परन्तु पंडित सदासुखदासजी की वचनिका अत्यधिक प्रिय होने से सभी उसी में समाहित हो जाती है।
5) अनुवाद इस ग्रन्थ के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए है; परंतु इसका प्रथम अंग्रेज़ी अनुवाद बेरिस्टर चंपतराय जी ने किया था।
प्रसिद्ध श्लोक
संपादित करेंमंगलाचरण
नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने ।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥1॥
धर्म का लक्षण
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानिधर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥3॥
सम्यग्दर्शन का लक्षण
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् ।
त्रिमूढ़ापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥4॥
आप्त का लक्षण
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥5॥
गुरु का लक्षण
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते ॥10॥
चारित्र का लक्षण
हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां ।
पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥49॥
सल्लेखना का लक्षण
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥122॥
इन्हें भी देखें
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सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ आचार्य, समन्तभद्र (2000). रत्नकरण्ड श्रावकाचार. Translated by जैन, मन्नूलाल. अजमेर: पं. सदासुखदास ग्रन्थमाला. p. 23.
- ↑ आचार्य, समन्तभद्र (2000). रत्नकरण्ड श्रावकाचार (in संस्कृत / हिन्दी). Translated by जैन, मन्नूलाल. अजमेर: पं. सदासुख ग्रन्थमाला. p. 7.
{{cite book}}
: CS1 maint: unrecognized language (link) - ↑ शर्मा, राजमणि (2009). अपभ्रंश भाषा और साहित्य. दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. p. 103. ISBN 9788126317110.