गोरक्षा आन्दोलन का अर्थ गाय की हत्या रोकने सम्बन्धी नियम बनाने के लिए किए गए आन्दोलनों से है। भारत तथा कुछ अन्य देशों के हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी आदि सैकड़ों वर्षों से गोहत्या का विरोध करते आये हैं। [1][2]

भगवान श्रीकृष्ण को प्रायः गाय के साथ चित्रित किया जाता है।

भारतीय धर्मों में में प्राचीन काल से ही गाय सहित अन्य पशुओं की हत्या का व्यापक रूप से निषेध किया गया है। किन्तु 'गोरक्षा आन्दोलन' से आशय मुख्यतः ब्रितानी काल में हुए ऐसे आन्दोलनों से है जो गाय की हत्या रोकने/रुकवाने के उद्देश्य से किए गए थे।[3] सन १८६० के दशक में पंजाब में सिखों द्वारा किया गया गोरक्षा आन्दोलन सुविदित है। [4] १८८० के दशक में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज का समर्थन पाकर गोरक्षा आन्दोलन और अधिक विस्तृत हुआ।[5] २०वीं शताब्दी के आरम्भिक दिनों से भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक महात्मा गांधी ने गोरक्षा का समर्थन किया।[6]

सन १९६६ ई० के अक्‍तूबर-नवम्बर में अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा आन्दोलन चला। भारत साधु समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया।[7] ७ नवम्बर १९६६ को संसद् पर हुये ऐतिहासिक प्रदर्शन में देशभर के लाखों लोगों ने भाग लिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने निहत्थे हिंदुओं पर गोलियाँ चलवा दी थी जिसमें अनेक गौ भक्तों का बलिदान हुआ था। इस गोरक्षा आंदोलन में त्यागमूर्ति स्वामी ब्रह्मानंद जी का विशेष योगदान रहा , इन्होंने प्रयागराज से दिल्ली तक सैकड़ों समर्थकों के साथ पैदल यात्रा की तथा गुलज़ारी लाल नंदा के आवास को घेर कर अनशन किया , संसद भवन में घुसने के प्रयास पर भयानक लाठी चार्ज का सामना किया । इसके बाद स्वामी ब्रह्मानंद जी ने ठाना कि गोरक्षा के लिए कानून बनाने को संसद में निर्वाचित होकर आना पेगा, आप हन १९६७ में हमीरपुर लोकसभा यूपी से भारतीय संसद में संत सांसद के रूप में निर्वाचित होकर पहुंचे तथा सदन में गोरक्षा के लिए बेबाक राय रखी ।

भारतीय मूल के सभी धर्म गोरक्षा का समर्थन करते हैं किन्तु मोटे तौर पर मुसलमान गोहत्या रोकने के पक्ष में नहीं रहे हैं। गोरक्षा का केवल भारत में ही समर्थन नहीं है बल्कि श्री लंका और म्यांमार में भी इसे भारी समर्थन प्राप्त है। श्री लंका पहला देश है जिसने पूरे द्वीप पर पशुओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुँचाने से रोकने वाला कानून पारित किया है। कांग्रेस हमेशा serculism की राजनीति करती हैं इसमें हमेशा हिन्दू समाज को तोड़ने वाले कदम उठाएं जाते है उदाहरण 1.) राम जन्म भूमि पर हमला 2.) गोरक्षा आंदोलन 3.) भारत में अवैध गैर हिन्दू की घुसपैठ 4.) भारत के पश्चिम में बांग्लादेश के रोहंगिया का सैकड़ों मील दूर कशमीर में निवास 5.) जम्मू कश्मीर में 75000 करोड़ की जमीन 34 लाख में बेचा जाना 6.) 60 लाख कश्मीरी पंडितों (हिंदुओं) को उनके मूल निवास से खदेड़ना, विस्थापित करना आदि।

 
भारात के विभिन्न राज्यों में गोहत्या-निषेष सम्बन्धी कानूनों की स्थिति

स्वाधीन भारत में विनोबाजी ने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध की मांग रखी थी। उसके लिए उन्होने जवाहरलाल नेहरू से कानून बनाने का आग्रह किया था। वे अपनी पदयात्रा में यह सवाल उठाते रहे। कुछ राज्यों ने गोवधबंदी के कानून बनाए।

सन १९५५ में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मलचन्द्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने गोबध पर रोक के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया था। उस पर जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में घोषणा की कि "मैं गोवधबंदी के विरुद्ध हूँ। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें और न कोई कार्यवाही।" 1956 में इस विधेयक को कसाइयों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उस पर 1960 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा था। लोगों को लगा कि अपनी सरकार अंग्रेजों की राह पर है। वह आश्वासन देती रही और गोवध एवं गोवंश का नाश का होता गया।

इसके बाद 1965-66 में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री और देश के तमाम सन्तों ने इसे आन्दोलन का रूप दे दिया। गोरक्षा का अभियान शुरू हुआ। देशभर के सन्त एकजुट होने लगे। लाखों लोग और सन्त सड़कों पर आने लगे। इस आन्दोलन को देखकर राजनीतिज्ञ लोगों के मन में भय व्याप्त होने लगा।

इसकी गंभीरता को समझते हुए सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 21 सितम्बर 1966 को पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि "गोवधबंदी के लिए लंबे समय से चल रहे आन्दोलन के बारे में आप जानती ही हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा सामने आया था और जहां तक मेरा सवाल है, मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत जैसे एक हिन्दू बहुल देश में, जहां गलत हो या सही, गोवध के विरुद्ध ऐसा तीव्र जन-संवेग है, गोवध पर कानूनन प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जा सकता?"

इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण की यह सलाह नहीं मानी। परिणाम यह हुआ कि सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान ने ७ नवम्बर १९६६ को दिल्ली में विराट आन्दोलन किया। दिल्ली के इतिहास का वह सबसे बड़ा प्रदर्शन था।

12 अप्रैल 1978 को डॉ. रामजी सिंह ने एक निजी विधेयक रखा जिसमें संविधान की धारा 48 के निर्देश पर अमल के लिए कानून बनाने की मांग थी।

21 अप्रैल 1979 को विनोबा भावे ने अनशन शुरू कर दिया। 5 दिन बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने कानून बनाने का आश्वासन दिया और विनोबा ने उपवास तोड़ा। 10 मई 1979 को एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जो लोकसभा के विघटित होने के कारण अपने आप समाप्त हो गया।

इंदिरा गांधी के दोबारा शासन में आने के बाद 1981 में पवनार में गोसेवा सम्मेलन हुआ। उसके निर्णयानुसार 30 जनवरी 1982 की सुबह विनोबा ने उपवास रखकर गोरक्षा के लिए सौम्य सत्याग्रह की शुरुआत की। वह सत्याग्रह 18 साल तक चलता रहा। आज भी गोवध पर केंद्र सरकार किसी भी तरह का कानून नहीं ला पाई है।

सन १९६६ का गोरक्षा आन्दोलन

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उस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। कहते हैं कि करपात्रीजी से आशीर्वाद लेने के बाद इंदिरा गांधी ने वादा किया था कि चुनाव जीतने के बाद गाय के सारे कत्लखाने बन्द हो जाएंगे, जो अंग्रेजों के समय से चल रहे हैं। इंदिरा गांधी चुनाव जीत गईं। ऐसे में स्वामी करपात्री महाराज को लगा था कि इंदिरा गांधी मेरी बात अवश्य मानेंगी। उन्होंने एक दिन इंदिरा गांधी को याद दिलाया कि आपने वादा किया था कि संसद में गोहत्या पर आप कानून लाएंगी। लेकिन कई दिनों तक इंदिरा गांधी उनकी इस बात को टालती रहीं। ऐसे में करपात्रीजी को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा।

करपात्रीजी देश के मान्य सन्त थे। उनके शिष्यों अनुसार जब उनका धैर्य समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा कि गोरक्षा तो होनी ही चाहिए। इस पर तो कानून बनना ही चाहिए। लाखों साधु-संतों ने उनके साथ कहा कि यदि सरकार गोरक्षा का कानून पारित करने का कोई ठोस आश्वासन नहीं देती है, तो हम संसद को चारों ओर से घेर लेंगे। फिर न तो कोई अंदर जा पाएगा और न बाहर आ पाएगा।

सन्तों ने 7 नवंबर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। इस धरने में मुख्य संतों के नाम इस प्रकार हैं- शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ, स्वामी करपात्रीजी महाराज और रामचन्द्र वीर। गांधीवादी बड़े नेताओं में विनोबा भावे थे। विनोबाजी का आशीर्वाद लेकर लाखों साधु-संतों ने करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में बहुत बड़ा जुलूस निकाला।

गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्रीजी महाराज ने चांदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरम्भ किया। करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय की सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पं. लक्ष्मीनारायणजी चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लाल किला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चौक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिए इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरम्भ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गई थी।

कहते हैं कि नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चौक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। लाखों लोगों की भीड़ जुटी थी जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। हजारों संत थे और हजारों गोरक्षक थे। सभी संसद की ओर कूच कर रहे थे।

कहते हैं कि दोपहर १ बजे जुलूस संसद भवन पर पहुँच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब ३ बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानन्द भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानन्द ने कहा कि यह सरकार बहरी है। यह गोहत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूं कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींचकर बाहर ले आओ, तभी गोहत्याबन्दी कानून बन सकेगा।

कहा जाता है कि जब इंदिरा गांधी को यह सूचना मिली तो उन्होंने निहत्थे करपात्री महाराज और संतों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने संतों और गोरक्षकों की भीड़ परशुरू कर दी। संसद के सामने माना जाता है कि एक नहीं, , लेकिन मृतकों का सरकारी आंकड़ा ८ का था। जबकि हकीकत में पुलिस ने 5000 लोगों को गोलियों से भून दिया था

दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया। संचार माध्यमों को सेंसर कर दिया गया और हजारों संतों को तिहाड़ की जेल में ठूंस दिया गया।

गुलजारी लाल नंदा का इस्तीफा : इस हत्याकाण्ड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्रीगुलजारीलाल नन्दा ने अपना त्यागपत्र दे दिया और इस कांड के लिए खुद एवं सरकार को जिम्मेदार बताया। इधर, संत रामचन्द्र वीर अनशन पर डटे रहे, जो 166 दिनों के बाद समाप्त हुआ था। देश के इतने बड़े घटनाक्रम को किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह खबर सिर्फ मासिक पत्रिका 'आर्यावर्त' और 'केसरी' में छपी थी। कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका 'कल्याण' ने अपने गौ विशेषांक में विस्तारपूर्वक इस घटना का वर्णन किया था।

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ ने गोरक्षा के लिए प्रदर्शनकारियों पर किए गए पुलिस जुल्म के विरोध में और गोवधबंदी की मांग के लिए 20 नवंबर 1966 को पुनः अनशन प्रारम्भ कर दिया। वे गिरफ्तार किए गए। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का अनशन 30 जनवरी 1967 तक चला। 73वें दिन डॉ. राममनोहर लोहिया ने अनशन तुड़वाया। अगले दिन पुरी के शंकराचार्य ने भी अनशन तोड़ा। उसी समय जैन सन्त मुनि सुशील कुमार ने भी लंबा अनशन किया था।

  1. Lisa Kemmerer (2011). Animals and World Religions. Oxford University Press. pp. 58–65, 100–101, 110. ISBN 978-0-19-979076-0.
  2. Clive Phillips (2008). The Welfare of Animals: The Silent Majority. Springer. pp. 98–103. ISBN 978-1-4020-9219-0.
  3. Religious Nationalism, Hindus and Muslims in India, Peter van der Veer, pp. 83-94, ISBN 0-520-08256-7.
  4. Barbara D. Metcalf; Thomas R. Metcalf (2012). A Concise History of Modern India. Cambridge University Press. pp. 152–153. ISBN 978-1-139-53705-6.
  5. From Plassey to Partition, a History of modern India, Śekhara Bandyopādhyāẏa, p. 240, ISBN 81-250-2596-0.
  6. Mohandas Karmchand Gandhi (2004). V Geetha (ed.). Soul Force: Gandhi's Writings on Peace Archived 2019-07-11 at the वेबैक मशीन. London: Tara. pp. 115–117, 183–184. ISBN 978-81-86211-85-4.
  7. "Why the cow is worshipped in Hindutva politics". मूल से 22 जून 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 जून 2018.

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