गाय एक महत्त्वपूर्ण भगवान की प्यारी माता है जो संसार में प्रायः सर्वत्र पाई जाती है। परन्तु इस समय गाय की रक्षा के लिए सबको जागना होगा और भारत को गोहत्या के कलंक से मुक्त करना होगा, तभी भारत पूर्ण तरह से विक्सित् हो सकेगा इससे उत्तम किस्म का दूध प्राप्त होता है। हिन्दू, गाय को 'माता' (गौमाता) कहते हैं। इसके बछड़े बड़े होकर गाड़ी खींचते हैं एवं खेतों की जुताई करते हैं। भारत में वैदिक काल से ही गाय का महत्व रहा है। आरम्भ में आदान-प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गोसंख्या से की जाती थी। हिन्दू धार्मिक दृष्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है तथा उसकी हत्या महापातक पापों में की जाती है। श्याम लाल गोदारा राजस्थान से

भारत में गोपालन एक पवित्र कार्य माना जाता है।
गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।
यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ २३ ॥
भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २४ ॥ (देवीभागवतपुराणम्)

[1]

गाय राठी गर्भ से संबन्धित जानकारी

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  • प्रजनन काल - वर्षभर, तथा गर्मिओं में अधिक
  • वर्ष में गर्मी के आने का समय - हर 18 से 21 दिन (गर्भ न ठहरने पर) ; 30 से 60 दिन में (व्याने के बाद)
  • गर्मी की अवधि - 20 से 36 घंटे तक
  • कृत्रिम गर्भधान व वीर्य डालने का समय - मदकाल आरम्भ होने के 12 से 18 घंटे बाद , याद रखें, गाय हमारी माता हैं वा इसका कृत्रिम गर्भाधान कराना पाप है
  • गर्भ जांच करवाने का समय - कृत्रिम गर्भधान का टीका कराने के 60 से 90 दिनों में
  • गर्भकाल - गाय 275 से 280 दिन ; भैंस 308 दिन

भारतीय गाय

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समुद्रमन्थन के दौरान इस धरती पर दिव्य गाय की उत्पत्ति हुई | भारतीय गोवंश को माता का दर्जा दिया गया है इसलिए उन्हें "गौमाता" कहते है | हमारे शास्त्रों में गाय को पूजनीय बताया गया है इसीलिए हमारी माताएं बहनें रोटी बनाती है तो सबसे पहली रोटी गाय को ही देती हैं गाय का दूध अमृत तुल्य होता है |

भगवत पुराण के अनुसार, सागर मन्थन के समय पाँच दैवीय कामधेनु ( नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला, बहुला) निकलीं। कामधेनु या सुरभि (संस्कृत: कामधुक) ब्रह्मा द्वारा ली गई। दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषि को दी गई ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके।

भारतीय गाय की मुख्य २ विशेषताएँ हैं-

  • (१) सुन्दर कूबड़ (HUMP)
  • (२) उनकी पीठ पर और गर्दन के नीचे त्वचा का झुकाव है: गलकंबल (DEWLAP)

भारत में गाय की ३० से अधिक नस्लें पाई जाती हैं।[2] लाल सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लें भारत में दुधारू गायों की प्रमुख नस्लें हैं।

लोकोपयोगी दृष्टि में भारतीय गाय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में वे गाएँ आती हैं जो दूध तो खूब देती हैं, लेकिन उनकी पुंसंतान अकर्मण्य अत: कृषि में अनुपयोगी होती है। इस प्रकार की गाएँ दुग्धप्रधान एकांगी नस्ल की हैं। दूसरी गाएँ वे हैं जो दूध कम देती हैं किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के काम आते हैं। इन्हें वत्सप्रधान एकांगी नस्ल कहते हैं। कुछ गाएँ दूध भी प्रचुर देती हैं और उनके बछड़े भी कर्मठ होते हैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं। भारत की गोजातियाँ निम्नलिखित हैं:

साहीवाल जाति

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साहीवाल गाय का मूल स्थान पाकिस्तान में है। इन गायों का सिर चौड़ा उभरा हुआ, सींग छोटी और मोटी, तथा माथा मझोला होता है। भारत में ये राजस्थान के बीकानेर,श्रीगंगानगर, पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास लायलपुर, लोधरान, गंजीवार आदि स्थानों में पाई जाती है। ये भारत में कहीं भी रह सकती हैं। एक बार ब्याने पर ये १० महीने तक दूध देती रहती हैं। दूध का परिमाण प्रति दिन 10-20 लीटर प्रतिदिन होता है। इनके दूध में मक्खन का अंश पर्याप्त होता है। इसके दूध में वसा 4% से 6% पाई जाती है।

इनका मुख्य स्थान सिंध का कोहिस्तान क्षेत्र है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गायों का रंग बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। संतानोत्पत्ति के बाद ये ३०० दिन के भीतर कम से कम २००० लीटर दूध देती हैं।

कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मूलस्थान है। वैसे ये काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में भी मिलती हैं। ये सर्वांगी जाति की गाए हैं और इनकी माँग विदेशों में भी है। इनका रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है। सवाई चाल से प्रसिद्ध गाय है। केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में गाय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार कांकरेज गाय किसानों की आमदनी कई गुना बढ़ा सकती है। राजस्थान में इसे सांचोरी गाय के नाम से जानी जाती है।[3]

 
काँकरेज नस्ल

ये गाये मध्यम दुधारू होतीं हैं तथा प्रति ब्यात दूध देने की क्षमता 627-1227लीटर तक होती है। इनका शरीर ताकतवर और गठिला, रंग सफेद,भूरा या काला होता है तथा गर्दन कुछ काली होती है और इनकी गर्दन पर उभार होता है जिसे (hump) कहते हैं। गले के नीचे एक झालर लटकी रहती है जिसे गलकंबल कहते है। पूंछ लंबी और सुन्दर होती है जिसके अंतिम सिरा काले बालों से डंका रहता है। मालवी गाय के बछड़े बड़े बलवान होते हैं जिससे बड़े होने पर गाड़ी खींचने और खेती के काम में लिया जाता है। ये मालवा क्षेत्र में उज्जैन ,रतलाम,मंदसौर, राजगढ़,ब्यावरा,नरसिंहगढ़, शाजापुर के आस-पास पाई जाती हैं। इस गाय का मूल स्थान एमपी हैं

इनका प्राप्तिस्थान जोधपुर के आस-पास का प्रदेश है। ये गायें भी विशेष दुधारू नहीं होतीं, किंतु ब्याने के बाद बहुत दिनों तक थोड़ा-थोड़ा दूध देती रहती हैं।

थारपारकर

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ये गायें दुधारू होती हैं। इनका रंग खाकी, भूरा, या सफेद होता है। कच्छ, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर और सिंध का दक्षिणपश्चिमी रेगिस्तान इनका प्राप्तिस्थान है। इनकी खुराक कम होती है। इसका दूध 10 से 16 लीटर प्रतिदिन तक होता है।

 
थारपारकर नस्ल

पीलीभीत, पूरनपुर तहसील और खीरी इनका प्राप्तिस्थान है। इनका मुँह सँकरा और सींग सीधी तथा लंबी होती है। सींगों की लबाई १२-१८ इंच होती है। इनकी पूँछ लंबी होती है। ये स्वभाव से क्रोधी होती है और दूध कम देती हैं।

नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश इनका प्राप्तिस्थान है। ज्वार इनका प्रिय भोजन है। नाड़ी घास और उसकी रोटी बनाकर भी इन्हें खिलाई जाती है। ये गायें दूध खूब देती हैं।

पंजाब के डेरागाजीखाँ जिले में पाई जाती हैं। ये दूध कम देती हैं।

दूध साधारण मात्रा में देती है। प्राप्तिस्थान सतपुड़ा की तराई, वर्धा, छिंदवाड़ा, नागपुर, सिवनी तथा बहियर है। इनका रंग सफेद और कद मझोला होता है। ये कान उठाकर चलती हैं।

ये ८-१२ लीटर दूध प्रतिदिन देती हैं। गायों का रंग सफेद, मोतिया या हल्का भूरा होता हैं। ये ऊँचे कद और गठीले बदन की होती हैं तथा सिर उठाकर चलती हैं। इनका प्राप्तिस्थान रोहतक, हिसार, सिरसा, करनाल, गुडगाँव और जिंद है। भारत की पांच सबसे श्रेष्ठ नस्लो में हरयाणवी नस्ल आती है। यह अद्भुत है।

अंगोल या नीलोर

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ये गाएँ दुधारू, सुंदर और मंथरगामिनी होती हैं। प्राप्तिस्थान तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुंटूर, नीलोर, बपटतला तथा सदनपल्ली है। ये चारा कम खाती हैं।

इस गाय का मूल स्थान राजस्थान में बीकानेर, श्रीगंगानगर हैं। ये लाल-सफेद चकते वाली,काले-सफेद,लाल, भूरी,काली, आदि कई रंगों की होती है। ये खाती कम और दूध खूब देती हैं। ये प्रतिदिन का 10 से 20 लीटर तक दूध देती है। इस पर पशु विश्वविद्यालय बीकानेर राजस्थान में रिसर्च भी काफी हुआ है। इसकी सबसे बड़ी खासियत, ये अपने आप को भारत के किसी भी कोने में ढाल लेती है।

गीर- ये प्रतिदिन 30 लीटर या इससे अधिक दूध देती हैं। इनका मूलस्थान काठियावाड़ का गीर जंगल है। राजस्थान में रैण्डा व अजमेरी के नाम से जाना जाता है[उद्धरण चाहिए] केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में गाय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार गीर गाय किसानों की आमदनी कई गुना बढ़ा सकती है।[3]

देवनी - दक्षिण आंध्र प्रदेश और हिंसोल में पाई जाती हैं। ये दूध खूब देती है।

नीमाड़ी - नर्मदा नदी की घाटी इनका प्राप्तिस्थान है। ये गाएँ दुधारू होती हैं।

अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी नस्लें मैसूर की वत्सप्रधान, एकांगी गाएँ हैं। कंगायम और कृष्णवल्ली दूध देनेवाली हैं।

गाय के शरीर में सूर्य की गो-किरण शोषित करने की अद्भुत शक्ति होने से उसके दूध, घी, झरण आदि में स्वर्णक्षार पाये जाते हैं जो आरोग्य व प्रसन्नता के लिए ईश्वरीय वरदान हैं। पुण्‍य व स्‍वकल्‍याण चाहनेवाले गृहस्‍थों को गौ-सेवा अवश्‍य करनी चाहिए क्‍योंकि गौ-सेवा से सुख-समृद्धि होती है।

गौ-सेवा से धन-सम्‍पत्ति, आरोग्‍य आदि मनुष्‍य-जीवन को सुखकर बनानेवाले सम्‍पूर्ण साधन सहज ही प्राप्‍त हो जाते हैं। मानव #गौ की महिमा को समझकर उससे प्राप्त दूध, दही आदि पंचगव्यों का लाभ ले तथा अपने जीवन को स्वस्थ, सुखी बनाये - इस उद्देश्य से हमारे परम करुणावान ऋषियों-महापुरुषों ने गौ को माता का दर्जा दिया तथा कार्तिक शुक्ल अष्टमी के दिन गौ-पूजन की परम्परा स्थापित की। यही मंगल दिवस गोपाष्टमी कहलाता है।

गोपाष्‍टमी भारतीय संस्‍कृति का एक महत्‍वपूर्ण पर्व है। मानव–जाति की समृद्धि गौ-वंश की समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। अत: गोपाष्‍टमी के पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन-परिक्रमा कर विश्‍वमांगल्‍य की प्रार्थना करनी चाहिए।

विदेशी नस्ल की गाय की उत्पति

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जर्सी और कई विदेशी नस्लों कि “गाय” जिसे अंग्रेजी में "Cow" कहते है , उनकी मूल उत्पत्ति "URUS" नामक जंगली जानवर से हुई है | विदेशी नस्लों कि “गाय” को "Bos TaURUS" नाम से भी जाना जाता है |

विदेशी वैज्ञानिकों ने जर्सी और कई विदेशी नस्लों कि “गाय” (Bos TaURUS) कि मूल उत्पत्ति आनुवंशिक रूप से संशोधित "URUS नामक जंगली जानवर से कि है। जर्सी और कई विदेशी नस्लों (Bos TaURUS )आनुवंशिक रूप से संशोधित URUS नामक जंगली जानवर की मूल नस्ल है ।

विदेशी गाय की नस्लें बड़ी मात्रा में दूध देती हैं, क्योंकि वे आनुवंशिक रूप से संशोधित जानवर हैं, लेकिन दूध की गुणवत्ता इतनी अच्छी नहीं है |

जर्सी और कई विदेशी नस्लों कि “गाय” के मूत्र और गोबर में कोई चिकित्सा गुण नहीं पाया जाता है। एकमात्र उद्देश्य जिसके लिए इस मानव निर्मित जानवर को जी.एम. के माध्यम से बनाया गया था, वह दूध और मांस के लालच को पूरा करना है।

प्रमुख देशों में गायों की संख्या

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विश्व में गायों की कुल संख्या १३ खरब (1.3 बिलियन) होने का अनुमान है।[4] नीचे दी गई सारणी में विभिन्न देशों में सन् 2009 में गायों की संख्या दी गई है।[5]


 
जर्सी विदेशी गाय / अभारतीय गाय


गायों की संख्या
क्षेत्र/देश गायों की संख्या
भारत 281,700,000
ब्राजील 187,087,000
चीन 139,721,000
यूएसए 96,669,000
यूरोपीय संघ 87,650,000
अर्जेण्टीना 51,062,000
आस्ट्रेलिया 29,202,000
मैक्सिको 26,489,000
रूस 18,370,000
दक्षिण अफ्रीका 14,187,000
कनाडा 13,945,000
अन्य 49,756,000

हिन्दू धर्म में महत्व

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हिन्दू धर्मं के अनुसार गाय में 33 कोटि ( प्रकार ) देवताओ का वास होता है | स्कन्द पुराण के अनुसार गौ सर्ववेदमयी और वेद सर्वगौमयी है | [2]

  1. http://shiva.iiit.ac.in/SabdaSaarasvataSarvasvam/index.php/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8D[मृत कड़ियाँ]
  2. "संग्रहीत प्रति". Archived from the original on 8 जुलाई 2015. Retrieved 19 मार्च 2014.
  3. "मेरठ: वैज्ञानिकों का दावा- गीर व कांकरेज गाय किसानों की आमदनी कई गुना बढ़ाएगी !". News18 India. 2019-11-04. Archived from the original on 24 दिसंबर 2019. Retrieved 2019-12-24. {{cite web}}: Check date values in: |archive-date= (help)
  4. Muruvimi, F. and J. Ellis-Jones. 1999. A farming systems approach to improving draft animal power in Sub-Saharan Africa. In: Starkey, P. and P. Kaumbutho. 1999. Meeting the challenges of animal traction. Intermediate Technology Publications, London. pp. 10-19.
  5. "संग्रहीत प्रति". Archived from the original on 19 सितंबर 2010. Retrieved 5 अक्तूबर 2013. {{cite web}}: Check date values in: |access-date= (help)

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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