चीन की साम्यवादी क्रांति

चीनी गृह युद्ध का अंश, जिसका समापन मुख्य भूमि चीन में साम्यवादी शासन से हुआ।
(चीनी क्रांति से अनुप्रेषित)

चीनी साम्यवादी दल की स्थापना 1921 में हुई थी। सन 1949 में चीनी साम्यवादी दल का चीन की सत्ता पर अधिकार करने की घटना चीनी साम्यवादी क्रांति कहलाती है। चीन में 1946 से 1949 तक गृहयुद्ध की स्थिति थी। इस गृहयुद्ध का द्वितीय चरण साम्यवादी क्रान्ति के रूप में सामने आया। चीन ने आधिकारिक तौर पर इस अवधि को 'मुक्ति संग्राम' (War of Liberation , सरल चीनी : 解放战争; परम्परागत चीनी: 國共內戰; फीनयिन: Jiěfàng Zhànzhēng) कहा जाता है।

चीनी साम्यवादी क्रांति
中國新民主主義革命
第二次國共內戰

(Second Kuomintang-Communist Civil War)
चीन का गृहयुद्ध (since 1927) और शीतयुद्ध (1947–1950) का भाग
चित्र:Mao proclaiming the establishment of the PRC in 1949.jpg
चीनी लोक गणराज्य की स्थापना की घोषणा करते हुए माओ
तिथि 1945–1950
स्थान चीन
परिणाम
योद्धा
* साम्यवादी दल *  चीनी गणराज्य
सेनानायक
*
अध्यक्ष माओ ज़ेदोंग
*
राष्ट्रपति च्यांग काई शेक
शक्ति/क्षमता
* 1,270,000 regulars (1945-09)
  • 2,800,000 regulars (1948-06)
  • 4,000,000 regulars (1949-06)
* 4,300,000 (1946-07)
  • 3,650,000 (1948-06)
  • 1,490,000 (1949-06)
मृत्यु एवं हानि
250,000 in three campaigns 1.5 million in three campaigns[1]

19वीं सदी के मध्य तक चीन अपने गौरवपूर्ण इतिहास से लगभग अनभिज्ञ, ध्वस्त, पस्त एक एशियाई देश बचा रह गया था। भले ही वह औपचारिक रूप से किसी विदेशी ताकत का उपनिवेश नहीं था परन्तु उसकी हालत किसी दूसरे गुलाम देश से बेहतर नही थी। इतिहासकार चीन में यूरोपीय शक्तियों के संघर्ष को “खरबूजे का बटवारा” कहते थे, ऐसा फल जिसे अपनी इच्छानुसार शक्तिसंपन्न व्यक्ति फांक-फांक काटकर आपस में बांटते, खाते पचाते रहते हैं। चीन के प्रमुख शहरों में ऐसे अनेक इलाके थे जिन पर यूरोपीय ताकतों का कब्जा था और जहाँ चीनी शासक का राज नहीं चलता था। तटवर्ती बंदरगाह भी यूरोपियों के सैनिक नियंत्रण में थे। ब्रिटेन की नौसैनिक शक्ति का मुकाबला करने की क्षमता चीन में नहीं थी इसलिए चीन के व्यापार पर उन्हीं का नियंत्रण था। ब्रिटेन ने अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए चीन में अफीम के सेवन को बढ़ावा दिया था और इस नशे में गालिफ चीनियों का भरपूर उत्पीड़न किया था। अतः यह स्वाभाविक था कि राष्ट्रपे्रमी चीनियाें के मन में इन उत्पीड़क परिस्थितियों के प्रति आक्रोश पनप रहा था।

चीन की पहली क्रांति का स्वरूप मुख्यतः सांस्कृतिक था और इसका सूत्रपात डॉ॰ सनयात सेन ने किया था। उन्हीं के प्रयत्नों से राष्ट्रवादी चीनी पार्टी की स्थापना हुई जिसे 'कुओमितंग' के नाम से जाना जाता है।

1911 में जिस मांचू राजवंश का अंत कर गणतंत्र की स्थापना की गई उसका अस्थायी राष्ट्रपति युवान शिह काई था। किन्तु उसने प्रतिक्रियावादी एवं दमनात्मक कदम उठाते हुए कुओमितांग दल पर प्रतिबंध लगा दिया और सनयात सेन को जापान भागना पड़ा। 1916 में युवान शिह काई की भी मृत्यु हो गई और उसकी मृत्यु के पश्चात प्रांतीय गवर्नर व सेनापतियों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया, पूरा चीन अनेक युद्ध सरदारों (टूचेन) के नियंत्रण में बंट गया। 1917 ई. में कुओमितांग दल ने अराजकता के माहौल में गणतांत्रिक सरकार की स्थापना का प्रयास किया। इसी समय रूस में हुई साम्यवादी क्रांति से प्रभावित होकर 1923 में सनयात सेन ने रूसी साम्यवादी सरकार से सहयोगात्मक संधि कर गणतांत्रिक सरकार बनाने का प्रयास किया किन्तु 1925 में उनकी मृत्यु के कारण यह पूरा नही हो पाया। आगे उनके उत्तराधिकारी च्यांग काई शेक को चीन के साम्यवादी दल के साथ गृह युद्ध में फंसना पड़ा। अंततः माओत्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी दल ने 1 अक्टूबर, 1949 को चीनी लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की स्थापना की।

चीन में साम्यवादी क्रांति की परिस्थितियाँ एवं विकास

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1917 में हुई रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रभाव से चीनी भी अछूता न रहा। 1919 में पेकिंग के अध्यापकों व छात्रों ने साम्यवाद, मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए एक संस्था की स्थापना की। इन्हीं व्यक्तियों में माओत्से तुंग भी शामिल था जो आगे चलकर चीनी साम्यवादी दल का नेता बना। 1919 में इन्हीं लोगों के प्रयास से चीनी साम्यवादी दल (कुंगचांगतांग) की स्थापना हुई। शीघ्र ही कैंटन, शंघाई और हूनान प्रांतों में भी कम्यूनिस्ट पार्टी की शाखाएँ कायम हो गई और 1921 में शंघाई में इन सब शाखाओं का प्रथम सम्मेलन हुआ जिसमें विदेशी आधिपत्य से चीन को मुक्ति दिलाना लक्ष्य घोषित किया गया।

इस साम्यवादी विचारधारा ने चीन के उदार राष्ट्रवादियों को भी प्रभावित किया जिनमें सनयात सेन भी शामिल थे। वस्तुतः डॉ॰ सनयात सेन चीन को संगठित करने के लिए विदेशी सहायता प्राप्त करना चाहता था लेकिन पश्चिम के साम्राज्यवादी राज्यों ने उनकी कोई मदद नहीं की अंततः वह सोवियत संघ की ओर आकृष्ट हुआ। रूस ने साम्यवादी प्रसार के लोभ में चीन के प्रति सहानुभूति जताई और उसे हर तरह की सहायता देने का आश्वासन दिया। इसी संदर्भ में 1921 ई. में कॉमिन्टर्न के प्रतिनिधि मेरिंग ने सनयात सेन से मुलाकात कर आपसी सहयोग की चर्चा की।

डॉ॰ सनयात सेन के सूझबूझ एवं संगठनात्मक क्षमता की वजह से कुओमितांग तथा चीनी साम्यवादी दल में सहयोगपूर्ण संबंध बने। रूसी साम्यवादी विचारकों ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को कुओमितांग दल के साथ मिलजुल कर कार्य करने को कहा। दोनों मिलकर वहाँ साम्राज्यवाद के विरूद्ध कार्य करने लगे। सनयात सेन के जीवित रहने तक यह सहयोग बना रहा और दोनों दल मिलजुल कर कार्य करते रहे। किन्तु 12 मार्च, 1925 को सनयात सेन की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् चीनी साम्यवादी दल तथा कुओमितांग के बीच मतभेद उत्पन्न होने लगे। वस्तुतः चीनी साम्यवादी अपने संगठन को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने किसानों और मजदूरों को अपने पक्ष में संगठित किया और राष्ट्रीय स्तर पर एक मजदूर संघ की स्थापना की। फलतः मजदूरों की हड़तालों तथा मांगों की बारंबारता में वृद्धि हुई। इसी तरह किसानों के संघ बने जिन्होंने लगान में कमी तथा जमींदारी उन्मूलन की मांग की। सनयात सेन की मृत्यु के पश्चात 1925 में माओत्से तुंग ने हूनान प्रांत में एक उग्र किसान आंदोलन चलाया। इस आंदोलन ने न सिर्फ जमींदारों को उखाड़ फेंका बल्कि सम्पत्ति पर कब्जा कर समाज के ढांचे को बदला।

सनयात सेन की मृत्यु के बाद कुओमितांग दल का प्रधान च्यांग काई शेक बना। उसकी सद्भावना व्यावसासियों व जमींदारों के साथ थी। उसने साम्यवादियों को कुओमितांग दल से निष्कासित कर दिया। च्यांग का मानना था कि कम्युनिस्ट शक्तिशाली होते जा रहे हैं जो जमींदारों पर आक्रमण कर उनकी सम्पत्ति पर कब्जा कर रहे हैं। अतः इन्हें समाप्त करना आवश्यक है। च्यांग काई शेक ने कम्युनिस्टों को पार्टी से निकाल कर शुद्धीकरण आंदोलन चलाया जिसमें हजारों कम्युनिस्ट, ट्रेड यूनियनिस्ट तथा किसान नेता मारे गए। इस तरह च्यांग काई शेक ने नानकिंग में अपनी सत्ता को मजबूती से स्थापित किया।

1943 ई. में माओत्से तुंग चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का अध्यक्ष हुआ और शीर्षस्थ नेता बन गया। माओ के नेतृत्व में साम्यवादी दल ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और “कियांग्सी” प्रांत में अपनी सत्ता का केन्द्र बनाया। धीरे-धीरे फ्रूकिएन, हूनान आदि प्रांतों में भी अपनी सत्ता सरकारें स्थापित की। मीओ ने कम्यूनिस्ट पार्टी की रणनीति में व्यापक परिवर्तन करते हुए इस बात पर जोर दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी को औद्योगिक मजदूरों की तुलना में किसानों के बीच जनसमर्थन प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। कारण यह था कि चीन मूलतः एक कृषि प्रधान देश था जहाँ औद्योगिक क्रांति अभी पिछड़ी हुई थी। कियांग्सी प्रांत की कम्युनिस्ट माओं सरकार नानकिंग की कुओमितांग सरकार की सत्ता को स्वीकार नहीं करती थी।

च्यांग काई चेक के अधीन नानकिंग की सरकार अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कियांग्सी की कम्यूनिस्ट सरकार के विरूद्ध 1934 ई. में भयंकर अभियान किया। इसे “उन्मूलन अभियान” के नास से जाना जाता है। लाखों की संख्या में कम्युनिस्टों को मौत के घाट उतारा गया। इस दमन और अत्याचार से बचने के लिए साम्यवादियों ने उत्तर में शेन्सी प्रांत की ओर “महाप्रस्थान” (Long March) किया जो 16 अक्टूबर, 1934 से प्रारंभ होकर 20 अक्टूबर, 1935 में पूरा हुआ। इस 6000 मील लम्बी दूरी को अनेक नदियों, पहाड़ों, जंगलों को पार करते हुए शेन्सी प्रांत के येनान नगर में पहुँच कर उसे राजधानी बनाकर वहाँ अपनी सरकार स्थापित की।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि 1921 ई. में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया था। च्यांग काई शेक ने इस समय जापानी खतरे से बड़ा खतरा साम्यवाद को समझा और अपनी सम्पूर्ण शक्ति साम्यवादियों के दमन में लगा दी। साम्यवादियों ने महाप्रस्थान कर जिस शेन्सी प्रांत में अपनी सरकार स्थापित की वह जापान द्वारा अधिकृत उत्तरी चीन के निकट था और साम्यवादियों ने जापानी आक्रमण और प्रभुत्व के विरोध की बात की। माओ ने कहा कि कुओमितांग और साम्यवादियों दोनों को मिलकर देश में एक सरकार की स्थापना करनी चाहिए और मिलकर जापानी आक्रमण का मुकाबला कर, उन्हें देश से बाहर कर देना चाहिए। साम्यवादियों के इस दृष्टिकोण से चीनी जनता का बहुमत उनके साथ हो गया फलतः साम्यवादी को अपनी शक्ति बढ़ाने का मौका मिला।

च्यांग काई शेक जापानियों को रोकने के बजाय कम्युनिस्टों का सफाया करना अधिक महत्वपूर्ण मानता था और इसलिए 1936 में साम्यवादियों से संघर्ष करने के लिए लियांग के नेतृत्व में एक सेना शेन्सी प्रांत भेजी किन्तु साम्यवादियों ने अपने चीनी भाईयों से लड़ना उचित नहीं समझा और लियांग के अधीन भेजी गई सेना को राष्ट्रीय चेतना से युक्त कर जापनियों से संघर्ष करने को कहा। जब च्यांग काई शेक ने साम्यवादियों के दमन की ही बात की तब लियांग ने उसे बंदी बना लिया किन्तु साम्यवादियों के हस्तक्षेप से अंततः वह मुक्त हुआ। अतः चीनी लोकमत की इच्छा को देखते हुए च्यांग ने साम्वादियों के साथ बातचीत आरंभ की और 1937 में एक समझौता किया ताकि सम्मिलित प्रयास करते हुए जापान के प्रभुत्व को नष्ट किया जा सके। इस समझौते के अनुसार उत्तर-पश्चिमी चीन के शेन्सी और कांगसू प्रांत पर साम्यवादियों के शासन को स्वीकार किया गया और साम्यवादी सेना को चीन की राष्ट्रीय सेना का अंग मान लिया गया जिसे जापान के विरूद्ध महासेनापति च्यांग काई शेक के आदेशों का पालन करना था। इस प्रकार चीन में दो पृथक-पृथक सरकार इस समय विद्यमान थी। दोनों की अपनी-अपनी पृथक् सेनाएँ थी और दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में अपने आदर्शों के अनुसार शासन और सामाजिक व्यवस्था के विकास में तत्पर थी। यह समझौता साम्यवादियों की शक्ति को बढ़ाने में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया और उसे पराजित किया तथा चीन पर कब्जा कर लिया। नानकिंग पर जापान का अधिकार हो जाने से च्यांग काई शेक को पीछे हटना पड़ा और पश्चिम में चुंगकिंग को अपनी राजधानी बनाना पड़ा। दूसरी तरफ शेन्सी प्रांत में डटे हुए कम्युनिस्टों ने उत्तर में जापान के विरूद्ध कारगर छापामार लड़ाई का नेतृत्व किया और अपने को लोगों के सामने देशभक्त राष्ट्रीवादी के रूप प्रस्तुत किया। इस कारण जापानी अत्याचार से पीड़ित किसानों और मध्यवर्ग का भारी समर्थन मिला। इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया और चीन-जापान युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध का अंग बन गया। उस समय भी च्यांग काई शेक साम्यवादियों को बढ़ती शक्ति से चिंतित था, जापानी आक्रमण से नहीं। वह जापान के विरूद्ध संघर्ष की अपेक्षा चीन की आंतरिक राजनीति को अधिक महत्व देता था। अतः साम्यवादियों तथा कुओमितांग के बीच संघर्ष की स्थिति पुनः उत्पन्न हो गई।

द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरू हो जाने से चीन-जापान युद्ध अमेरिकी-ब्रिटिश नीतियों से प्रभावित होने लगा। अमेरिका और ब्रिटेन ने च्यांग काई शेक के सरकार की मदद हेतु वायुयान द्वारा लाखों टन युद्ध सामग्री पहुँचाई ताकि जापान या रूस का प्रभाव चीन में न बढ़े। वस्तुतः चीन के आंतरिक मामलों में अमेरिका और ब्रिटेन के हस्तक्षेप का एक बड़ा कारण उनका साम्यवादी विचारधारा का विरोधी होना था। ब्रिटेन व अमेरिका चीन में गृहयुद्ध को रोकना चाहते थे क्योंकि गृहयुद्ध की स्थिति में शक्तिशाली हो चुके साम्यवादियों की विजय निश्चित प्रायः नजर आ रही थी।

अमेरिका और ब्रिटेन ने चुंगकिंग की च्यांग कोई शेक सरकार को अपने पक्ष में करने के लिए 1943 में उसके साथ एक संधि की। संधि के तहत् चीन में इन दोनों देशों ने अपने विशेषाधिकारों को त्याग दिया और यह स्वीकार किया कि चीन राजनीतिक दृष्टि के पाश्चात्य देशों के समकक्ष है और संसार का एक प्रमुख शक्तिशाली राज्य है। अमेरिका सहित मित्रराष्ट्र यह चाहते थे कि चीन की च्यांग काई शेक सरकार जापान के साथ युद्ध को जारी रखे और उसके साथ कोई समझौता नही करें। साथ ही वह साम्यवादी सरकार के साथ मिलकर जापानियों का मुकाबला करे। इस उद्देश्य से परिचालित होकर अमेरिका ने जनरल स्टीलवेल तथा अमेरिकी राजदूत हर्ले के माध्यम से यह प्रयास किया कि च्यांग काई शेक तथा साम्यवादियों के बीच समझौता हो जाए और वे मिलकर जापानियों का सामना करे,किन्तु अमेरिका का यह प्रयास असफल रहा और दोनों के बीच समझौता न हो सका।

1945 ई. में जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत हो गया, किन्तु चीन की समस्या का अंत नहीं हुआ। वस्तुतः नानकिंग में जापान का नियंत्रण था और युद्ध की समाप्ति पश्चात् यह समस्या उत्पन्न हुई कि नानकिंग सरकार के अधिकृत प्रदेशों पर चुंगकिंग की कुओमितांग सरकार का आधिपत्य हो या येनान प्रांत की साम्यवादी सरकार के अधिकृत प्रदेशों पर चुंगकिंग की कुओमितांग सरकार का आधिपत्य हो या येनान प्रांत की साम्यवादी सरकार का, दोनों दल नानकिंग पर नियंत्रण हेतु आगे बढ़े। अतः चीन में पुनः गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई।

अमेरिका ने गृहयुद्ध को टालने के लिए 1945 में जनरल मार्शल को दोनों दलों के बीच समझौता कराने एवं लोकतंत्र की स्थापना कराने हेतु भेजा। मार्शल के प्रयासों से 10 जनवरी 1946 को यह समझौता संपन्न हुआ। समझौते के अनुसार जिस प्रदेश में जिस दल की सेना का अधिकार है वह उसी सेना के अधिकार में रहेगा, किन्तु यह समझौता स्थायी नहीं रहा और तमाम प्रदेशों पर अधिकार को लेकर गृहयुद्ध आरंभ हो गया। साम्यवादी सेना ने उत्तरी एवं पूर्वी चीन के अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित किया। जनवरी 1949 तक साम्यवादियों ने टिंटसिन और पीकिंग पर अधिकार कर लिया और आगे चलकर नानकिंग, शंघाई हैंको तथा कैंटन पर भी अधिकार कर लिया और 1 अक्टूबर, 1949 को साम्यवादियों ने पेकिंग में “लोकगणराज्य” की घोषणा की और सोवियत संघ सहित अनेक देशों ने इस साम्यवादी सरकार को मान्यता दे दी। इस प्रकार चीन में साम्यवदी क्रांति सफल हुई। च्यांग काई शेक की कुओमितांग सरकार फारमोसा द्वीप (ताइवान) में सिमट कर रह गई। अमेरिका ने चीन की साम्यवादी सरकार को मान्यता न देकर फारमोसा स्थित राष्ट्रवादी सरकार को चीन की सरकार के रूप में मान्यता दी और अपना संबंध बनाए रखा।

वस्तुतः साम्यवादियों और च्यांग काई शेक के बीच संघर्ष में अमेरिका चाहते हुए भी च्यांग को खुला समर्थन नहीं दे सका क्योंकि तब रूस साम्यवादियों के समर्थन में आ जाता। इस दशा में अमेरिका-रूस के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष की संभावना बनती। फलतः अमेरिका ने प्रायः तटस्थता की नीति का समर्थन किया और इस कारण च्यांग काई शेक की राजनीतिक स्थिति अत्यंत कमजोर हो गई।

साम्यवादियों की सफलता के कारण

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1. कुओमितांग दल की अलोकप्रियता एवं भ्रष्ट शासन : च्यांग काई शेक के नेतृत्व में कुओमितांग सरकार भ्रष्ट और निकम्मी थी। उनके जनता को सुधार के रूप में देने के लिए कुछ नहीं था। उन्होंने ऐसे किसी कार्यक्रम की घोषणा नहीं की जिससे व्यापक जनसमर्थन हासिल किया जा सके। इतना ही नहीं कुओमितांग सरकार ने अपना अधिकांश समय उद्योगपतियों, बैंकरों व जमींदारों के हितों की रक्षा में गंवाया। शासन में भ्रष्टाचार व्याप्त था, जनता के उपयोग हेतु लाई गई सामग्री निजी व्यापारिक साधनों में प्रयुक्त हो रही थी, ऐसी स्थिति में सरकार ने जनसमर्थन खो दिया।

2. सैन्य संगठन एवं सैन्य रणनीति की कमजोरियाँ : कुओमितांग दल की सैनिक कमजोरी यह थी कि उसके विरोध में यह भावना फैल गई थी कि उसका शीर्षस्थ सरकारी कर्मचारी बहुत अधिक भ्रष्ट और अक्षम है। सैनिकों को समय पर वेतन नहीं मिलता था। सैनिकों की भर्ती और पदोन्नति योग्यता पर आधारित न होकर च्यांग भक्ति पर आधारित थी। गृहयुद्ध के दौरान च्यांग के सरकार की सैन्य कमजोरी एवं अयोग्यता स्पष्ट हो गई वस्तुतः च्यांग की सेना ने युद्ध का संचालन बड़े-बड़े शहरों को केन्द्र बना कर किया, परन्तु ये शहर साम्यवादियों द्वारा चारों ओर से घेर लिए गए। इसके विपरीत साम्यवादी सेना दक्ष और कुशल थी। उन्होंने गुरिल्ला पद्धति की रणनीति अपनाकर युद्ध किया, सेना में अनुशासन बनाए रखा। फलतः राष्ट्रवादियों के विरूद्ध वे सफल हुए।

3. समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक-आर्थिक असंतोष : कुओमितांग सरकार द्वारा किसानों की गरीबी को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया। सूखे और अकाल से पीडि∏त कृषकों की दशा बेहाल थी दूसरी ओर शहरों में मुनाफाखोरों, सौदागरों की मडियों ने अनाज की कमी नहीं थी। अमेरिका प्रभुत्व चीन में अत्यधिक था और विदेशी पूँजीपति चीन का जमकर शोषण कर रहे थे। कुओमितांग सरकार इस शोषण को रोक पाने में असमर्थ थी। फलतः सामान्य जनता सहित पूँजीपति वर्ग के लोग भी सरकार के विरोधी हो गए। वस्तुतः जनसमर्थन हासिल करने के लिए कुओमितांग सरकार ने कोई ठोस सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रम पेश नहीं किया जबकि साम्यवादियों ने ऐसा कार्यक्रम पेश कर जनसमर्थन हासिल किया।

4. राष्ट्रवादी सरकार का साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ संबंध : चीन की राष्ट्रवादी कुओमितांग सरकार का अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देशों के साथ संबंध था। चीनी अर्थव्यवस्था अमेरिकी आर्थिक साम्राज्यवादी नीति से परिचालित हो रही थी। चीन की बैकिंग व्यवस्था पर अमेरिकी बैंक का नियंत्रण था। चीन में अत्यधिक मात्रा में अमेरिकी माल आ रहे थे। 1848 तक यह मात्रा इतनी अधिक हो गई थी कि चीन की अधिकांश औद्योगिक इकाईयाँ बंद हो गई और तमाम मजदूर बेकार हो गए। यही वजह है कि किसान-मजदूर आदि लोगों ने सरकार की नीति से असंतुष्ट होकर गृहयुद्ध में चीनी साम्यवादियों का साथ दिया। फलतः साम्यवादियों को सफलता मिली।

5. च्यांग काई शेक की अदूरदर्शिता : जापानी आक्रमण और साम्यवादियों के साथ संबंधों में च्यांग काई शेक ने अदूरदर्शिता का परिचय दिया। उसने जापानी आक्रमण के खतरे से कहीं ज्यादा बड़ा खतरा साम्यवादियों को माना और साम्यवादियों के दमन का प्रयास किया। जबकि साम्यवादियों ने जापानी आक्रमण को चीन के हितों के विरूद्ध मानकर अपने क्षेत्रों में उनका डटकर मुकाबला किया, ऐसी स्थिति में जनता का समर्थन साम्यवादियों को मिला और गृहयुद्ध में साम्यवादियों ने च्यांग काई शेक को पराजित कर सफलता प्राप्त की।

6. चीनी साम्यवादियों की रणनीति एवं लोकप्रियता :

  • साम्यवादियों ने सुविचारित आर्थिक-सामाजिक नीति को लागू किया। कम्युनिस्टशासी क्षेत्रों की भूमि संबंधी नीति किसानों को आकर्षित करती थी। उन्होंने धनी जमींदारों की जमीन लेकर भूमिहीन किसानों में बाँट दिया। इतना ही नहीं भू-राजस्व को कम करने तथा यह निश्चित करने का प्रयास किया कि सबसे गरीब मजदूर को भी एक छोटा भूखंड मिल सके। इस नीति के कारण साम्यवादियों को छोटे-छोटे किसानों के साथ छोटे भूमिपतियों का भी समर्थन मिला। इसके अतिरिक्त कम्युनिस्ट शासित क्षेत्रों में किसानों के सर्वागीण उन्नति के प्रयास हो रहे थे उन्हें खेती के नए तरीके समझाए जाते थे, लिखना-पढ़ना समझाया जाता था। इन सब कारणों से साम्यवादियों की लोकप्रियता बढ़ी।
  • साम्यवादी दल के कार्यकर्ता, नेता तथा प्रशासक ईमानदार, कर्मठ एवं निष्पक्ष थे। कम्युनिस्ट नेता जैसे माओत्से तुंग, चाउ-एन-लाई, लिन पियाओ आदि पूरी तरह प्रतिबद्ध और समर्पित थे। उनके नेतृत्व में साम्यवादी सेना और उनका युद्ध संचालन अत्यंत कुशल था। गुरिल्ला युद्ध में साम्यवादी अत्यंत दक्ष थे। इन नेताओं ने कुशल नेतृत्व कर साम्यवादी विजय को सुनिश्चित किया।
  • साम्यवादियों को कुछ सफलता भूतपूर्व कुओमितांग कमांडरों को अपने भीतर आत्मसात कर लेने से भी प्राप्त हुई थी।
  • इस तरह साम्यवादियों की सफलता का कारण उनकी बढ़ती हुई शक्ति तथा साथ ही साथ कुओमितांग दल की शक्ति का उसी अनुपात में निरंतर क्षीण होते जाना था। लोगों ने साम्यवाद को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वे इसके सिद्धान्तों को विशेष्ज्ञ रूप से प्यार करते थे बल्कि इसलिए कि वे कुओमितांग के शासन से तंग आ चुके थे और इससे बचने के लिए उस समय साम्यवाद के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नही था।

चीनी क्रांति के परिणाम/प्रभाव

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  • चीन में 1 अक्टूबर, 1949 को साम्यवादियों ने लोगणराज्य की स्थापना कर दी, इस प्रकार चीन साम्यवादी हो गया। माओ के नेतृत्व में साम्यवादी शासन की स्थापना के साथ चीन का रूपांतरण तो हुआ ही साथ ही पूरा विश्व भी गहरे स्तर पर प्रभावित हुआ। इसके कुछ प्रभाव तो वर्तमान तक जारी है, ताइवान-तिब्बत के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है।
  • चीन की साम्यवादी क्रांति ने एशिया महाद्वीप के विशाल क्षेत्र पर आधिपतय स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इससे पश्चिमी शक्ति एवं साम्यवादियों के बीच एक नया शक्ति संतुलन स्थापित हुआ।
  • साम्यवादी क्रांति की सफलता से चीन में गृहयुद्ध की समाप्ति हुई। चूँकि माओ ने सत्ता, सैनिक संग्राम में सफलता के बाद हासिल की थी। अतः क्रांति को चुनौती देने वाला कोई सामरिक प्रतिद्वन्द्वी बचा नहीं था, बैरी पड़ोसी जापान तो पहले ही पराजित हो चुका था। अतः किसी बाहर शक्ति द्वारा आओत्से तुंग और चाउ एन लाई ने चीन की राजनीतिक एवं आर्थिक प्रणाली को तत्काल एक ढाँचे में शामिल करना शुरू कर दिया। यहाँ ध्यान रखने योग्य बात है कि रूसी क्रांति के पश्चात् उसे क्रांति विरोध्यिों का सामना करना पड़ा था।
  • साम्यवादी क्रांति के पश्चात् च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार को भाग कर फारमोसा (ताइवान) में शरण लेनी पड़ी और उसे अमेरिका का समर्थन मिला था। इसी बिन्दु पर चीनी-अमेरिकी संबंधों में तनाव की स्थिति पैदा हुई।
  • 1949 में जनवादी चीनी गणराज्य की स्थापना से यह लगने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में साम्यवादी खेमा एकाएक पहले से कहीं अधिक मजबूत हो गया और लाल तलवार के प्रसार को तत्काल रोकने की जरूरत अमेरिका को महसूस हुई।
  • नए चीन की सबसे बड़ी प्राथमिकता अंतर्राष्ट्रीय जगत में मान्यता प्राप्त करने की थी। अमेरिका इस बात के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा कि माओं के चीन को लगभग संक्रामक रोग से ग्रस्त अछूत की तरह रखा जाए, इसलिए संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में चीन की स्थाई सीट पर फारमोसा (ताइवान) वाले च्यांग काई शेक को बरकरार रखा गया।
  • चीन में माओवादी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में उपनिवेशवाद विरोधी साम्राज्यवाद के उन्मूलन के लिए सक्रिय लोगों के सामने एक नया ओर आकर्षक विकल्प रखा। तीसरी दुनिया के समक्ष 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में माओवाद को एक विकल्प के रूप में देखा जाने लगा।
  • भारत सहित चीन के आसपास के देशों में माओवादी चिंतन को प्रोत्साहन मिला। समस्याओं के निराकरण हेतु बहुत सारे हिंसक माओवादी स्वरूप सामने आए।
  • माओवादी चीन ने दुनियाभर में प्रवासी चीनियों को इस बात के लिए ललकारा कि वे अपनी जन्मभूमि, पैतृक भूमि के प्रति पे्रम और निष्ठा को प्रमाणित कर अपने स्वाभिमान को राष्ट्रीय गौरव के साथ जोड़ना आरंभ करे। इण्डोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर जैसे देशों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा चीनी मूल के लोगों का है। वर्षों तक इण्डोनेशिया की साम्यवादी पार्टी पेकिंग के निर्देशानुसार ही काम करती रही। वियतनाम का राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम माओवादी नमूने का (छापामार वाला) ही रहा।
  • चीनी साम्यवादी क्रांति की सफलता से उत्साहित होकर साम्यवादियों ने तिब्बत में एक सफल सैनिक अभियान का संचालन किया। फलतः भारत के साथ उसके संबंधों में तनाव पैदा हुआ क्योंकि भारत ने तिब्बत की लामा सरकार को अपने यहाँ मानवीय मूल्यों के आधार पर शरण दे रखी है।
  • अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर चीनी क्रांति का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। भले ही लगभग एक दशक तक सोवियत साम्यवादी खेमे की दरार जगजाहिर नहीं हुई, पर सभी बड़ी ताकतें यह स्वीकार करने को मजबूर हुई कि अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संतुलन निर्णायक रूप से बदल चुका है। इसका एक महत्वपूर्ण घटक चीनी साम्राज्य है
  1. Lynch, Michael (2010). The Chinese Civil War 1945–49. Osprey Publishing. पृ॰ 91. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-84176-671-3. मूल से 2 जनवरी 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 जनवरी 2019.

इन्हें भी देखें

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