कलचुरि राजवंश

भारतीय राजवंश
(चेदी राजवंश से अनुप्रेषित)

कलचुरि प्राचीन भारत का विख्यात त्रिकुटा–आभीर राजवंश था।[1][2][3][4][5][6][7] इस वंश की शुरुआत राजा ईश्वरसेन उर्फ महाक्षत्रप ईश्वरदत्त ने की थी।[8][9]'कलचुरी ' नाम से भारत में दो राजवंश थे- एक मध्य एवं पश्चिमी भारत (मध्य प्रदेश तथा राजस्थान) में जिसे 'चेदी' 'हैहय' या 'उत्तरी कलचुरि' कहते हैं तथा दूसरा 'दक्षिणी कलचुरी' जिसने वर्तमान कर्नाटक के क्षेत्रों पर राज्य किया।

महिष्मति के कलचुरि

550 ई.–625 ई.
कलचुरि राजवंश का पश्चिमी क्षत्रप के आधार पर, कलचुरि राजवंश के राजा कृष्णराज (550-575 ई.) का चांदी का सिक्का।
पश्चिमी क्षत्रप के आधार पर, कलचुरि राजवंश के राजा कृष्णराज (550-575 ई.) का चांदी का सिक्का।
प्रारंभिक कलचुरियों का मानचित्र
प्रारंभिक कलचुरियों का मानचित्र
राजधानीमहिष्मति
प्रचलित भाषाएँसंस्कृत
धर्म
शैव धर्म
सरकारराजशाही
इतिहास 
• स्थापित
550 ई.
• अंत
625 ई.
पूर्ववर्ती
परवर्ती
पश्चिमी क्षत्रप
अल्चोन हूण
वाकाटक राजवंश
विष्णुकुंडिन राजवंश
त्रैकूटक राजवंश
औलिकार राजवंश
चालुक्य वंश
त्रिपुरी के कलचुरी
अब जिस देश का हिस्सा हैभारत
1200 ई में एशिया के राज्य ; इसमें 'यादव' राज्य एवं उसके पड़ोसी राज्य देख सकते हैं।

चेदी प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसका शासन क्षेत्र मध्य तथा पश्चिमी भारत था। आधुनिक बुंदेलखंड तथा उसके समीपवर्ती भूभाग तथा मेरठ इसके आधीन थे। शक्तिमती या संथिवती इसकी राजधानी थी।[10]

कलचुरी शब्द के विभिन्न रूप- कटच्छुरी, कलत्सूरि, कलचुटि, कालच्छुरि, कलचुर्य तथा कलिचुरि प्राप्त होते हैं। विद्वान इसे संस्कृत भाषा न मानकर तुर्की के 'कुलचुर' शब्द से मिलाते हैं जिसका अर्थ उच्च उपाधियुक्त होता है। अभिलेखों में ये अपने को हैहय नरेश अर्जुन का वंशधर बताते हैं। इन्होंने २४८-४९ ई. से प्रारंभ होनेवाले संवत् का प्रयोग किया है जिसे कलचुरी संवत् कहा जाता है। पहले वे मालवा के आसपास रहनेवाले थे। छठी शताब्दी के अंत में बादमी के चालुक्यों के दक्षिण के आक्रमण, गुर्जरों का समीपवर्ती प्रदेशों पर आधिपत्य, मैत्रकों के दबाव तथा अन्य ऐतिहासिक कारणों से पूर्व जबरपुर (जाबालिपुर?) के आसपास बस गए। यहीं लगभग नवीं शताब्दी में उन्होंने एक छोटे से राज्य की स्थापना की। अभिलेखों में कृष्णराज, उसके पुत्र शंकरगण, तथा शंकरगण के पुत्र बुधराज का नाम आता है। उसकी मुद्रओं पर उसे 'परम माहेश्वर' कहा गया है। शंकरगण शक्तिशाली नरेश था। इसने साम्राज्य का कुछ विस्तार भी किया था। बड़ौदा जिले से प्राप्त एक अभिलेख में निरिहुल्लक अपने को कृष्णराज के पुत्र शंकरगण का सांमत बतलाता है। लगभग ५९५ ई. के पश्चात शंकरगण के बाद उसका उतराधिकारी उसका पुत्र बुधराज हुआ। राज्यारोहण के कुछ ही वर्ष बाद उसने मालवा पर अधिकार कर लिया। महाकूट-स्तंभ-लेख से पता चलता है कि चालूक्य नरेश मंगलेश ने इसी बुधराज को पराजित किया था। इस प्रदेश से कलचुरी शासन का ह्रास चालुक्य विनयादित्य (६८१-९६ ई.) के बाद हुआ।

 
कलचुरि राजवंश का राजचिह्न

इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक कोक्ल्ल प्रथम था जो 845 ई. के लगभग सिंहासन पर बैठा। उसने वैवाहिक संबंधों के द्वारा अपनी शक्ति दृढ़ की। उसका विवाह नट्टा नाम की एक चंदेल राजकुमारी से हुआ था और उसने अपनी पुत्री का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के साथ किया था। इस युग की अव्यवस्थित राजनीतिक स्थित में उसने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कई युद्ध किए। उसने प्रतिहार नरेश भोज प्रथम और उसके सांमत कलचुरि शंकरगण, गुहिल हर्षराज और चाहपान गूवक द्वितीय को पराजत किया। कोक्कल्ल के लिए कहा गया है कि उसने इन शासकों के कोष का हरण किया और उन्हें संभवत: फिर आक्रमण न करने के आश्वासन के रूप में भय से मुक्ति दी। इन्हीं युद्धों के संबंध में उसने राजस्थान में तुरुष्कां को पराजित किया जो संभवत: सिंध के अरब प्रांतपाल के सैनिक थे। उसने वंग पर भी इसी प्रकार का आक्रमण किया था। अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय को पराजित करके उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया था किंतु अंत में उसने राष्ट्रकूटों के साथ संधि कर ली थी। इन युद्धों से कलचुरि राज्य की सीमाओं में कोई वृद्धि नहीं हुई। कोक्कल्ल के 18 पुत्र थे जिनमें से 17 की उसने पृथक पृथक मंडलों का शसक नियुक्त किया; ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण उसके बाद सिंहासन पर बैठा। इन 17 पुत्रों में से एक ने दक्षिण कोशल में कलचुरि राजवंश की एक नई शाखा की स्थापना की जिसकी राजधानी पहले तुम्माण और बाद में तृतीय नरेश नत्नराज द्वारा स्थापित रत्नपुर थी। इस शाखा में नौ शासक हुए जिन्होंने 12वीं शताब्दी के अंत तक राज्य किया।

शंकरगण ने कोशल के सोमवंशी नरेश से पालि छीन लिया1 पूर्वी चालुक्य विजयादित्य तृतीय के आक्रमण के विरुद्ध वह राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की सहायता के लिए गया किंतु उसके पक्ष की पूर्ण पराजय हुई। उसने अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह कृष्ण द्वितीय के पुत्र जगत्तुंग के साथ किया था जिनका पुत्र इंद्र तृतीय था। इंद्र तृतीय का विवाह शंकरगण के छोटे भाई अर्जुन की पौत्री से हुआ था।

शंकरगण के बाद पहले उसका ज्येष्ठ पुत्र बालहर्ष और फिर कनिष्ठ पुत्र युवरा प्रथम केयूरवर्ष सिंहासन पर बैठा। युवराज (दसवीं शताब्दी का द्वितीय चरण) ने गौड़ और कलिंग पर आक्रमण किया था। किंतु अपने राज्यकाल के अंत समय में उसे स्वयं आक्रमणों का समना करना पड़ा और चंदेल नरेश यशोवर्मन् के हाथों पराजित होना पड़ा। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय युवराज का दोहित्र था और स्वयं उसकी पत्नी भी कलचुरि वंश की थी। उसने अपने पिता के राज्यकाल में ही एक बार कालंजर पर आक्रमण किया था। सिंहासन पर बैठने के बाद उसने मैहर तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया था किंतु शीघ्र ही युवराज को राष्ट्रकूटों को भगाने में सफलता मिली। कश्मीर और हिमालय तक उसके आक्रमण की बात अतिश्योक्ति लगती है।

युवराज के पुत्र लक्ष्मणराज (10वीं शताब्दी का तृतीय चरण) ने पूर्व में बंगाल, ओड्र और कोसल पर आक्रमण किया। पश्चिम में वह लाट के सामंत शासक और गुर्जर नरेश (संभवत: चालुक्य वंश का मूल राज प्रथम) को पराजित करके सोमनाथ तक पहुँचा था। उसकी कश्मीर और पांड्य की विजय का उल्लेख संदिग्ध मालूम होता है। उसने अपनी पुत्री बोन्थादेवी का विवाह चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ से किया था जिनका पुत्र तैल द्वितीय था।

लक्ष्मणराज के दोनों पुत्रों शंकरगण और युवराज द्वितीय में सैनिक उत्साह का अभाव था। युवराज द्वितीय के समय तैज द्वितीय ने भी चेदि देश पर आक्रमण किए। मुंज परमार ने तो कुछ समय के लिए त्रिपुरी पर ही अधिकार कर लिया था। युवराज की कायरता के कारण राज्य के प्रमुख मंत्रियों ने उसके पुत्र कोक्कल्ल द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया। कोक्कल्ल के समय में कलचुरि लोगों को अपनी लुप्त प्रतिष्ठा फिर से प्राप्त हुई। उसने गुर्जर देश के शासक को पराजित किया। उसे कुंतल के नरेश (चालुक्य सत्याश्रय) पर भी विजय प्राप्त हुई। उसने गौड़ पर भी आक्रमण किया था।

कोक्कल्ल के पुत्र विक्रमादित्य उपाधिधारी गांगेयदेव के समय में चेदि लोगों ने उत्तरी भारत पर अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित करने की ओर चरण बढ़ाए। उसका राज्यकाल 1019 ई. के कुछ वर्ष पूर्व से 1041 ई. तक था। भोज परमार और राजेंद्र चोल के साथ जो उसने चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया उसमें वह असफल रहा। उसने कोसल पर आक्रमण किया और उत्कल को जीतता हुआ वह समुद्र तट तक पहुँच गया। संभवत: इसी विजय के उपलक्ष में उसने त्रिकलिंगाधिपति का विरुद धारण किया। भोज परमार और विजयपाल चंदेल के कारण उसकी साम्राज्य-प्रसार की नीति अवरुद्ध हो गई। उत्तर-पूर्व की ओर उसने बनारस पर अधिकार कर लिया और अंग तक सफल आक्रमण किया किंतु मगध अथवा तीरभुक्ति (तिरहुत) हो वह अपने राज्य में नहीं मिला पाया। 1034 ई. में पंजाब के सूबेदार अहमद नियाल्तिगीन ने बनारस पर आक्रमण कर उसे लूटा। गांगेयदेव ने भी कीर (काँगड़ा) पर, जो मुसलमानों के अधिकार में था, आक्रमण किया था।

गांगेयदेव का पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्ण कलचुरि वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था और उसकी गणना प्राचीन भारतीय इतिहास के महान्‌ विजेताओं में होती है। उसने प्रयाग पर अपना अधिकार कर लिया और विजय करता हुआ वह कीर देश तक पहुँचा था। उसने पाल राज्य पर दो बार आक्रमण किया किंतु अंत में उसने उनसे संधि की और विग्रह पाल तृतीय के साथ अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह किया। राढा के ऊपर भी कुछ समय तक उसका अधिकार रहा। उसने वंग को भी जीता किंतु अंत में उसने वंग के शासक जातवर्मन्‌ के साथ संधि स्थापित की और उसके साथ अपनी पुत्री वीरश्री का विवाह कर दिया। उसने ओड्र और कलिंग पर भी विजय प्राप्त की। उसने कांची पर भी आक्रमण किया था और पल्लव, कुंग, मुरल और पांड्य लोगों को पराजित किया था। कुंतल का नरेश जो उसके हाथों पराजित हुआ, स्पष्ट ही सोमेश्वर प्रथम चालुक्य था। 1051 ई. के बाद उसने कीर्तिवर्मन्‌ चंदेल को पराजित किया किंतु बुंदेलखंड पर उसका अधिकार अधिक समय तक नहीं बना रह सका। उसने मालव के उत्तर-पश्चिम में स्थिति हूणमंडल पर भी आक्रमण किया था। भीम प्रथम चालुक्य के साथ साथ उसने भोज परमार के राज्य की विजय की किंतु चालुक्यों के हस्तक्षेप के कारण उसे विजित प्रदेश का अधिकार छोड़ना पड़ा। बाद में भीम ने कलह उत्पन्न होने पर डाहल पर आक्रमण कर कर्ण को पराजित किया था।

1072 ई. में वृद्धावस्था से अशक्त लक्ष्मीकर्ण ने सिंहासन अपने पुत्र यश:कर्ण को दे दिया। यश:कर्ण ने चंपारण्य (चंपारन, उत्तरी बिहार) और आंध्र देश पर आक्रमण किया था किंतु उसके शासनकाल के अंतिम समय जयसिंह चालुक्य, लक्ष्मदेव परमार और सल्लक्षण वर्मन्‌ चंदेल के आक्रमणों के कारण चेदि राज्य की शक्तिक्षीण हो गई। चंद्रदेव गांहड़वाल ने प्रयाग और बनारस पर अपना अधिकार कर लिया। मदनवर्मन्‌ चंदेल ने उसके पुत्र जयसिंह ने कुमारपाल चालुक्य, बिज्जल कलचुरि और खुसरव मलिक के आक्रमणों का सफल सामना किया। जयसिंह के पुत्र विजयसिंह का डाहल पर 1211 ई. तक अधिकार बना रहा। किंतु 1212 ई. में त्रैलोक्यवर्मन्‌ चंदेल ने ये प्रदेश जीत जिए। इसके बाद इस वंश का इतिहास में केई चिह्न नहीं मिलता। (ल.गो.)

चेदि (कलचुरि) राज्य में सांस्कृतिक स्थिति

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महाराजा कर्णदेव (1042-1072 ई)द्वारा अमरकण्टक में निर्मित प्राचीन मन्दिर
 
उत्तरी कर्नाटक के कुदालसंगम में स्थित संगमनाथ मन्दिर

कर्ण, यश:कर्ण और जयसिंह ने सम्राट की प्रचलित उपाधियों के अतिरिक्त अश्वपति, गजपति, नरपति और राजत्रयाधिपति की उपाधियाँ धारण की। कोक्कल्ल प्रथम के द्वारा अपने 17 पुत्रों की राज्य के मंडलों में नियुक्ति चेदि राज्य के शासन में राजवंश के व्यक्तियों को महत्वपूर्ण स्थान देने के चलन का उदाहरण है। राज्य को राजवंश का सामूहिक अधिकार माना जाता था। राज्य में महाराज के बाद युवराज अथवा महाराजपुत्र का स्थान था। महारानियाँ भी राज्यकार्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। मंत्रिमुख्यों के अतिरिक्त अभिलेखों में महामंत्रिन्‌, महामात्य, महासांधिविग्रहिक, महाधर्माधिकरण, महापुरोहित, महाक्षपटलिक, महाप्रतीहार, महासामंत और महाप्रमातृ के उल्लेख मिलते हैं। मंत्रियों का राज्य में अत्यधिक प्रभाव था। कभी-कभी वे सिंहासन के लिए राज्य परिवार में से उचित व्यक्ति का निर्धारण करते थे। राजगुरु का भी राज्य के कार्यों में गौरवपूर्ण महत्व था। सेना के अधिकारियों में महासेनापति के अतिरिक्त महाश्वसाधनिक का उल्लेख आया है जो सेना में अश्वारोहियों के महत्व का परिचायक है। कुछ अन्य अधिकारियों के नाम हैं : धर्मप्रधान, दशमूलिक, प्रमत्तवार, दुष्टसाधक, महादानिक, महाभांडागारिक, महाकरणिक और महाकोट्टपाल। नगर का प्रमुख पुर प्रधान कहलाता था। पद वंशगत नहीं थे, यद्यपि व्यवहार में किसी अधिकारी के वंशजों को राज्य में अपनी योग्यता के कारण विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था। धर्माधिकरण के साथ एक पंचकुल (समिति) संयुक्त होता था। संभवत: ऐसी समितियाँ अन्य विभागों के साथ भी संयुक्त है। राज्य के भागों के नामों में मंडल और पत्तला का उल्लेख अधिक थी। चेदि राजाओं का अपने सामंतों पर प्रभावपूर्ण नियंत्रण था। राज्य-करों की सूची में पट्टकिलादाय और दुस्साध्यादाय उल्लेखनीय हैं, ये संभव: इन्हीं नामों के अधिकारियों के वेतन के रूप में एकत्रित किए जाते थे। इसी प्रकार घट्टपति और तरपति भी कर उगाहते थे। शौल्किक शुल्क एकत्रित करनेवाला अधिकारी था। विषयादानिक भी कर एकत्रित करनेवाला अधिकारी था। विक्रय के लिए वस्तुएँ मंडपिका में आती थीं जहाँ उनपर कर लगाया जाता था।

ब्राह्मणों में सवर्ण विवाह का ही चलन था किंतु अनुलोम विवाह अज्ञात नहीं थे। कुछ वैश्य क्षत्रियों के कर्म भी करते थे। कायस्थ भी समाज के महत्वपूर्ण वर्ग थे। कलचुरि नरेश कर्ण ने हूण राजकुमारी आवल्लदेवी से विवाह किया था, उसी की संतानयश: कर्ण था। बहुविवाह का प्रचलन उच्च कुलों में विशेष रूप से था। सती का प्रचलन था किंतु स्त्रियाँ इसके लिए बाध्य नहीं थीं। संयुक्त-परिवार-व्यवस्था के कई प्रमाण मिलते हैं। व्यवसाय और उद्योग श्रेणियों के रूप में संगठित थे। नाप की इकाइयों में खारी, खंडी, गोणी, घटी, भरक इत्यादि के नाम मिलते हैं। गांगेयदेव ने बैठी हुई देवी की शैली के सिक्के चलाए। ये तीनों धातुओं में उपलब्ध हैं। यह शैली उत्तरी भारत की एक प्रमुख शैली बन गई और कई राजवंशों ने इसका अनुकरण किया।

धर्म के क्षेत्र में सामान्य प्रवृत्ति समन्वयवादी और उदार थी। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की समान पूजा होती थी। जैन धर्म भी बहु विख्यात था। विष्णु के अवतारों में कृष्ण के स्थान पर बलराम की अंकित किए जाते थे। विष्णु की पूजा का अत्यधिक प्रचलन था किंतु शिव-पूजा उससे भी अधिक जनप्रिय थी। चेदि राजवंश के देवता भी शिव थे। युवराज देव प्रथम के समय में शैवधर्म का महत्व बढ़ा। उसने मत्तमयूर शाखा के कई शैव आचार्यों को चेदि देश में बुलाकर बसाया और शैव मंदिरों और मठों का निर्माण किया। कुछ शैव आचार्य राजगुरु के रूप में राज्य के राजनीतिक जीवन में महत्व रखते थे। गोलकी मठ में 64 योगिनियों और गणपति की मूर्तियाँ थीं। वह मठ दूर-दूर के विद्वानों और धार्मिकों के आकर्षण का केंद्र था और उसकी शाखाएँ भी कई स्थानों में स्थापित हुई थीं। ये मठ शिक्षा के केंद्र थे। इनमें जनकल्याण के लिए सत्र तो थे ही, इनके साथ व्याख्यानशालाओं का भी उल्लेख आता है। गणेश, कार्तिकेय, अंबिका, सूर्य और रेवंत की मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। बौद्ध और जैन धर्म भी समृद्ध दशा में थे। जगह जगह आज भी अत्याधिक संख्या में कल्चुरी कालीन जैन तीर्थंकर और जैन देवी-देवता यक्ष यक्षी की प्रतिमाएं भूगर्भ से प्राप्त होती रहती है। लेकिन जैन मंदिर अवशेष कम देखने में आते है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की जैन और शैव धर्मों के देवस्थान पहले एक ही रहें होंगे।

चेदि नरेश दूर-दूर के ब्राह्मणों को बुलाकर उनके अग्रहार अथवा ब्रह्मस्तंब स्थापित करते थे। इस राजवंश के नरेश स्वयं विद्वान्‌ थे। मायुराज ने उदात्ताराघव नाम के एक नाटक और संभवम: किसी एक काव्य की भी रचना की थी। भीमट ने पाँच नाटक रचे जिनमें स्वप्नदशानन सर्वश्रेष्ठ था। शंकरगण के कुछ श्लोक सुभाषित ग्रंथों में मिलते हैं। राजशेखर के पूर्वजों में अकालजलद, सुरानंद, तरल और कविराज चेदि राजाओं से ही संबंधित थे। राजशेखर ने भी कन्नौज जाने से पूर्व ही छ: प्रबंधों की रचना की थी और बालकवि की उपाधि प्राप्त की थी। युवराजदेव प्रथम के शासनकाल में वह फिर त्रिपुरी लौटा जहाँ उसने विद्धशालभंजिका और काव्यमीमांसा की रचना की। कर्ण का दरबार कवियों के लिए पसिद्ध था। विद्यापति और गंगाधर के अतिरिक्त वल्लण, कर्पूर और नाचिराज भी उसी के दरबार में थे। बिल्हण भी उसके दरबार में आया था। कर्ण के दरबार में प्राय: समस्यापूरण की प्रतियोगिता होती थी। कर्ण ने प्राकृत के कवियों को भी प्रोत्साहन दिया था।

कलचुरि नरेशों ने, विशेष रूप से युवराजदेव प्रथम, लक्ष्मणराज द्वितीय और कर्ण ने, चेदि देश में अनेक भव्य मंदिर बनवाए। इनके उदाहरण पर कई मंत्रियों और सेनानायकों ने भी शिव के मंदिर निर्मित किए। इनमें से अधिकांश की विशेषता उनका वृत्ताकार गर्भगृह है। इनकी मूर्तियों की कला पर स्थानीय जन का प्रभाव स्पष्ट है। ये मूर्तिफलक विषय की अधिकता और भीड़ से बोझिल से लगते हैं।

  • वासुदेव विष्णु मिराशी : इंसक्रिप्शंस ऑव दि कलचुरि-चेदि इरा ;
  • आर.डी.बनर्जी : दि हैहयाज़ ऑव त्रिपुरी ऐंड देयर मान्यूमेंट्स
  1. Madhya Pradesh: Dewas. Government Central Press, 1993. 1993. पृ॰ 30.
  2. Siṃhadeba, Jitāmitra Prasāda (2006). Archaeology of Orissa: With Special Reference to Nuapada and Kalahandi. R.N. Bhattacharya, 2006. पृ॰ 113. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788187661504.
  3. "Tripurī, history and culture". google.com. मूल से 7 जुलाई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 नवंबर 2019.
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इन्हें भी देखें

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