जुर्गन हैबरमास
जुरगेन हैबरमास ( जन्म 18 जून 1929) आलोचनात्मक सिद्धांत और व्यावहारिकता (प्रैग्मटिज्म) की परम्परा में एक जर्मन दार्शनिक और समाजशास्त्री हैं। उनकी कृतियाँ संचार तर्कसंगतता और सार्वजनिक क्षेत्र से सम्बन्धित हैं।
व्यक्तिगत जानकारी | |
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जन्म | 18 जून 1929 Düsseldorf, Rhine Province, Prussia, Germany |
जीवनसाथी(याँ) | Ute Wesselhöft |
वृत्तिक जानकारी | |
युग | Contemporary philosophy |
क्षेत्र | Western philosophy |
विचार सम्प्रदाय (स्कूल) | |
मुख्य विचार | |
प्रमुख विचार |
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शिक्षा | University of Bonn (PhD) University of Marburg (Dr. phil. hab.) |
हस्ताक्षर |
हैबरमास के विचार
संपादित करेंहैबरमास फ्रैंकफर्ट स्कूल की दूसरी पीढ़ी के विचारक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका लेखन बहुत समृद्ध था। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जन आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करते हैं। हैबरमास का सिद्धान्त है कि आज के प्रजातान्त्रिक, दफ्तरशाही तथा वैज्ञानिक संस्कृति प्रधान समाज में स्वतन्त्र संवाद की बहुत बड़ी आवश्यकता है तथा वे आग्रह करते हैं कि इस संवाद का आधार बुद्धिसंगत, होना चाहिए। वह व्यवहार या आचरण के सिद्धान्त के साथ जोड़ना चाहते हैं परम्परा वास्तव में मार्क्सवादी ही है। जीवन विश्व एवं व्यवस्था पर अपने विचार स्पष्ट करते समय हैबरमास ने एक नई मानवतावादी परम्परा का विकास करने का प्रयास किया है। उनकी मानवतावादी परम्परा में हीगल और मार्क्स के कार्यों पर पर्याप्त जोर दिया गया है।
हैबरमास का कहना है कि उन्नत औद्योगिक समाज के मौलिक अन्तर्विरोधों को पूजीवाद से सम्बन्धित कट्टर मार्क्सवादी सिद्धान्त के आधार पर समझ पाना कठिन है। इसी कारण उन्होंने अपने सिद्धान्त में पँजीवादी समाजो का तीन प्रकारों में बाँटा है।
- (१) उदार पंजीवाद (Liberal Capitalism), जो उन्नीसवीं शताब्दी का पूँजावाद है और जिसके बारे में स्वयं मार्क्स ने भी अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है।
- (२) संगठित पूंजीवाद (Syndicate Capitalism), जिसे हैबरमास ने पश्चिमी औद्योगीकृत समाजों की विशेषता कहा है।
- (३) उत्तर पूँजीवाद (Post Capitalism), जिसे उसने समाजवादी राज्यों समाजों को उत्तर पूँजीवादी समाज कहा है।
हैबरमास ने कार्ल मार्क्स के समान ही स्वीकार किया है कि इन तीनों प्रकार की पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्थाओं में जो अन्तर्विरोध निहित है, वे ही उनको विघटन तथा परिवर्तन की दिशा में ले जायेंगे। ऐसे परिवर्तनों को लाने में व्यक्तियों के विचार जागरूकता तथा उनकी सामाजिक भूमिका महत्वपूर्ण घटक सिद्ध होंगे।
हैबरमास का सिद्धान्त निर्माण का अधिगम/उपागम
संपादित करेंहैबरमास के सिद्धान्त की रणनीति का आधार ज्ञान है। मनुष्य के विकास के लिए ज्ञान की प्राप्ति सर्वप्रथम आवश्यकता है। इस दृष्टि से समाज विज्ञानों में तीन प्रकार के सिद्धान्त हैं। तीनों प्रकार के सिद्धान्त संज्ञान के हेतुओं पर आधारित हैं। संज्ञान एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से अपने समाज के बारे में बोध ग्रहण करते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हम अपने सामान पर ध्यान न रखें, तो कोई भी उसे उठाकर रफूचक्कर हो सकता है। यह हमारा इन्द्रियों द्वारा किया गया बोध है। इसी बोध के द्वारा हम अपना निर्णय लेते हैं। हैबरमास ने इसे ‘संज्ञान हेतु’ कहा है, जिसे ज्ञान सिद्धान्त के इन तीनों प्रकारों में देखा जाता है। यह ज्ञान तीन प्रकार का है –
उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम ज्ञान को विकसित करते हैं, जिसे ‘आनुभविक विश्लेषणात्मक सिद्धान्त’ (Empica-analytic Theories) कहते हैं। यह ज्ञान प्रत्यक्षवादी है, जो संचार के माध्यम से सम्पूर्ण समाज में आ जाता है। यह मनुष्य के विकास में बड़ा लाभकारी होता है।
ज्ञान हमारे व्यावहारिक हितों की पूर्ति करता है। यह ज्ञान दैनिक जीवन की आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ है। तकनीकी भाषा में हैबरमास ने इसे ‘भाष्य विज्ञान (Hermenatic) कहा है। यह हमारी अन्तक्रियाओं में काम आता है। हम अन्तक्रियाओं को भाषा के माध्यम से समझते हैं। प्रतीकात्मक अन्तक्रियाएँ, एथनोमेथडोलॉजी, उत्तर-संरचनावाद, आदि भाष्य विज्ञान के ही उदाहरण हैं।
ज्ञान उद्धारक होता है। हैबरमास के अनुसार, व्यावहारिक ज्ञान एक तीसरे हेतु से जन्म देता है, जिसे उद्धारक ज्ञान (Emancipatory knowledge) कहते है। इसका सम्बन्ध भी अन्तर्क्रिया और संचार से होता है। यही ज्ञान विवेचनात्मक (Critical) सिद्धान्तों को जन्म देता है। इसमें हम अन्तर्क्रियाओं का लाभ प्राप्त करके समाज का अहित करते है। यह ज्ञान अपने स्वरूप में भ्रष्ट होता है। अहित का हेतु शक्ति के माध्यम से पूरा होता है। इसीलिए शक्ति की प्राप्ति के लिए समाज में संघर्ष होता है।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "Pragmatism". iep.utm.edu. Internet Encyclopedia of Philosophy.
- ↑ Anders Bordum, "Immanuel Kant, Jürgen Habermas and the categorical imperative", Philosophy & Social Criticism 31(7), 2005.
- ↑ Christian Damböck (ed.), Influences on the Aufbau, Springer, 2015, p. 258.