तिरुमंत्रम् तमिल भाषा में रचित शैव स्तोत्र ग्रंथ है। यह एक काव्य ग्रन्थ है जिसकी रचना द्वितीय शताब्दी ईस्वी में सन्त तिरुमूलर ने की थी। तिरुमंत्रम् , शैवसिद्धान्त के प्रसिद्ध ग्रन्थ तिरुमुरै के बारह भागों में से १०वाँ भाग है। 'तिरुमंत्रम्' का शाब्दिक अर्थ है 'श्रीमंत्र' या 'पवित्र मंत्र' । तिरुमंत्रम्‌ का आदर तमिलनाडु में उपनिषदों के समान ही होता रहा है, और अब भी होता है।

परिचय संपादित करें

शैव भक्तिसाहित्य दो भागों में विभाजित किया जा सकता है : 'स्तोत्र ग्रंथ और 'शास्त्र ग्रंथ'। शैव संतों द्वारा रचित भक्ति साहित्य को 'स्तोत्र ग्रंथ' कहते हैं। इनकी संख्या 12 है। शैव धर्म के दार्शनिक आचार्यो द्वारा रचे गए ग्रंथ 'शास्त्र ग्रंथ' कहलाते हैं। इन शास्त्र ग्रंथों में आत्मा, परमात्मा, पंचभूतों तथा कर्म आदि का विवेचन किया गया है। स्तोत्र ग्रंथों को शैव तिरुमुरै भी कहते है। तेरारम्‌, तिरुवाचागम्‌ तिरुमंगम्‌ आदि तिरुमुरे के अंतर्गत आते है। इस लेख में तिरुमंत्रम्‌ का परिचय दिया जा रहा है।

तिरुमंत्रम्‌ के रचियता शैव संत तिरुमूलर थे। इन्होंने इस ग्रंथ में 3000 पद्य लिखे हैं। समस्त ग्रंथ नौ तंत्रों में विभाजित हैं। ग्रंथ का प्रमुख विषय भक्ति है। किंतु इसमें भक्ति के साथ साथ दार्शनिक तत्वों का भी विशद विश्लेषण किया गया है। तमिल की सुप्रसिद्ध भक्त कवयित्री औवयार ने तिरुक्कुलर, तेवारम्‌ और तिरुवाचगम्‌ के वर्ग में तिरुमूलर के तिरुमंत्रम्‌ को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। शैव सिद्धांतों की दृष्टि से इस चारों ग्रंथों में एकवाक्यता पाई जाती है।

तिरुमूलर ने प्रेम और भगवान्‌ को एक ही तत्व माना है। शिव ओर शक्ति को वे भिन्न नहीं मानते। वे शक्ति को शिव का अनुग्रह मानते है। शैव सिद्धांतों के अनुसार मूल तत्व तीन हैं - पति, पशु ओर पाश। इन्हीं का दूसरा नाम परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति है। ये तीनों तत्व क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के प्रतीक हैं। अक्षर, पद, मंत्र, कला, तत्व और भुवन इन छः पदार्थो में संत तिरुमूलर ने परम शिव को व्यापक माना है। तिरुमूलर ने भगवान्‌ को रवि, सोम, मंगल, बुध, शुक्र, शनि आदि ज्येतिष्क पिंडो के अतिवर्ती के रूप में वर्णन किया है। वे शिव को श्रेष्ठतम उपास्य देव मानते हैं। उन्होने लोगों को वेद के मार्ग से चलने की प्रेरणा दी है।

तिरुमूलर के प्रथम तंत्र में भक्त के लिये आवश्यक शील की व्याख्या गई है। द्वितीय तंत्र में अगन्तियर का दक्षिणपथ में आगमन और शिव के वीरतापूर्ण कृत्यों का वर्णन है। प्रलय संबंधी कथाओं, सृष्टि, पालन, संहार, तिरोधान और अनुग्रह इन पाँच कृत्यों तथा शिव और शक्ति की लीलाओं का वर्णन भी इसी तंत्र में है। तृतीय तंत्र में अष्टांग योग और उसके अभ्यास की व्याख्या है। चतुर्थ तंत्र में हठयोग के साधनों का विवेचन है। पंचम तंत्र में चर्या, क्रिया, योग और ज्ञान नामक चार भागों का वर्णन है। षष्ठ तंत्र में शिव गुरु दर्शन की महिमा का वर्णन है, गुरु और शिव को एक ही बताया गया है। सप्तम तंत्र में अंडलिंग, र्पिडलिंग, सदाशिव लिंग, आत्मलिंग, ज्ञानलिंग और शिवलिंग के छ: आधारों का कथन है। धर्माचरण, शिवोपासना, संतमहिमा, योगमुद्रा आदि का विवरण भी इसी तंत्र में हैं। अष्टम तंत्र में शरीररचना, शिव में लीन होने के लिये शरीर त्याग करने की पद्धति, पति, पशु और पाश की व्याख्या आदि का विवेचन है। नवम और अंतिम तंत्र में गुरु, गुरुमठ, गुरुदर्शन शिवानंद नृत्य, चिदंबर नृत्य, आश्चर्य नृत्य, ज्ञानोदय, शिवदर्शन और समाधिदशा आदि का विस्तृत विवेचन है।

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