नारायणप्रसाद 'बेताब' (१८७२ - १५ सितम्बर, १९४५) नाटककार, फिल्म कथाकार थे। 'अल्फ्रेड थिएट्रिकल कम्पनी' नामक एक पारसी थिएटर कम्पनी ने इन्हे अपना नाट्यकार नियुक्त किया था। १९३० के दशक की लगभग दो दर्जन फिल्मों के लिए उन्होने गीतों की भी रचना की।

नारायण प्रसाद बेताब का जन्म बुलंदशहर जिले के औरंगाबाद कस्बे में संवत् १८७२ में एक ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिताजी पेशे से हलवाई थे। जब वे मात्र दो वर्ष के ही थे, उनकी माता का निधन हो गया और उनके पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। बेताब विद्यालय में जाकर पढ़ना चाहते थे किन्तु उन्हें पैत्रिक पेशे में ही लगा दिया गया। [1]

बाल्यकाल से ही उन्हें तुकबंदी का शौक था। औरंगाबाद के पंडित श्लेषचंद वैद्य से उन्होंने पिंगल शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया और ये 'भूलना' लिखकर दंगलों में सुनाने लगे। वैद्य जी के अतिरिक्त बेताब ने हकीम मो. खाँ साहब तालिब को उस्ताद मानकर उनसे भी उर्दू की शिक्षा प्राप्त की। साथ ही उन्होंने निजामी तथा कैफ साहब से पद-विन्यास-पद्धति तथा उर्दू न्यायशास्त्र सीखा।

उन्होने छन्दःशास्त्र की पुस्तक 'पिंगलखार' तथा आलोचना की दिशा में 'पद्य परीक्षा' नामक पुस्तक की रचना की। नये कवियों के पथप्रदर्शन के लिए बेताब ने 'प्रासपुंज' नामक पुस्तक लिखी। 'मिश्र बंधु प्रलाप' नामक पुस्तक में हिंदी नवरत्न में मिश्रबंधुओं द्वारा ब्रह्म भट्ट जाति पर लगाए गए लांछनों का युक्तियुक्त खंडन किया। यह पुस्तक अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज की ओर से प्रकाशित हुई है।

१९०३ ई. में बेताब पारसी थियेट्रिकल कंपनी में कार्य करने के लिए बंबई चले गए। बंबई में एल्फ्रडे कंपनी ने इनके महाभारत, रामायण तथा जहरी साँप, गणेशजन्म, सीता वनवास नामक नाटकों को खेला। नाटकों के अतिरिक्त बेताब ने चलचित्रों में भी योग दिया है।

बेताब प्रिंटिंग प्रेस

१९१२ के आसपास पंडित जी ने बेताब प्रिंटिंग प्रेस खोली और विभिन्न पुस्तकों की रचना और प्रकाशन किया। यह प्रेस उनकी मृत्यु के पश्चात 'भानु प्रिंटिंग प्रेस' के नाम से संचालित होती रही, जिसे उनके पुत्र भानू जी ने संचालित किया। भानू जी के मुम्बई प्रस्थान के बाद भानू जी के साले श्री राजकुमार जी और उनके भाई द्वारा इसे चलाया गया। २०१० के दशक में यह प्रेस किसी अन्य को बेच दी गई।

पटकथा लेखन

१९३१ ई. में रणजीत फिल्म कंपनी के चित्र 'देवी देवयानी' के आपने संवाद तथा गीत लिखे। भारतीय फिल्म जगत् के सफल कलाकार पृथ्वीराज कपूर जोकि बेताब जी को अपना गुरु मानते थे, को पृथ्वी थियेटर्स के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग दिया। मार्च, १९४४ में आपने पृथ्वी थियेटर के लिए 'शकुन्तला' नामक नाटक लिखा। नाटकों की भाषा के संबंध में बेताब हिंदुस्तानी के पक्षपाती थे। इनकी हिंदुस्तानी एकदम उर्दू की ओर झुकी हुई नहीं होती थी परन्तु उसमें यथास्थान संस्कृत हिंदी के भी काफी शब्द रहते थे। बेताब की भाषा मुहावरेदार तथा टकसाली थी।

उन्होंने २४ नाटकों, ३७ फिल्मी कथाओं तथा ३८ अन्य पुस्तकों की रचना की है। उन्होने 'शेक्सपीयर' नामक एक पत्रिका प्रकाशित की। आर्य समाज के प्रभाव में आने पर उन्होने हिन्दुस्तानी और उर्दू के बजाय हिन्दी को अधिक महत्व दिया और 'महाभारत', 'रामायण' आदि धार्मिक नाटक लिखे। महाभारत को उन्होने राष्ट्रवादी एवं सुधारवादी दृष्टिकोण से दर्शाने का प्रयत्न किया। उन्होने निम्न-जाति के लोगों एवं अछूतों के कष्टों को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होने निम्नलिखित नाटक लिखे-

ज़हरी साँप (१९०६), कत्ले नज़ीर, फरेबे-मुहब्बत, महाभारत (१९१३), रामायण (१९१५), गोरख-धन्धा, पत्नी-प्रताप (१९१९), कृष्ण-सुदामा (१९२०), शंख की शरारत (१९२०), हमारी भूल (१९३७), शकुन्तला (१९४५)[2]
  1. Stages of Life: Indian Theatre Autobiographies By Kathryn Hansen, page 53
  2. Encyclopaedia of Indian Literature: A-Devo Archived 2016-03-17 at the वेबैक मशीन (edited by Amaresh Datta, page 415)