नौइंजीनियरी

सागर संबंधी महायंत्रों की अभियांत्रिकी

नौइंजीनियरी (Naval engineering) प्रौद्योगिकी की वह शाखा है जिसमें समुद्री जहाजों एवं अन्य मशीनों के डिजाइन एवं निर्माण में विशिष्टि (स्पेसलाइजेशन) प्रदान की जाती है। इसके अलावा किसी जलयान पर नियुक्त उन व्यक्तियों (क्रिउ मेम्बर्स) को भी नौइंजीनियर (नेवल इंजीनियर) कहा जाता है जो उस जहाज को चलाने एवं रखरखाव के लिये जिम्मेदार होते हैं। इसके अलावा नौइंजीनियरों को जहाज का सीवेज, प्रकाश व्यवस्था, वातानुकूलन एवं जलप्रदाय व्यवस्था भी देखनी पड़ती है।

'अर्गोनॉट' नामक फ्रांसीसी जहाज का नियंत्रण कक्ष (कन्ट्रोल रूम)
प्राकृतिक गैस के उत्पादन के लिये P-51 नामक मंच : ऐसे मंचों का निर्मान भी नौइंजीनियरी के अन्तर्गत आता है।

नौइंजीनियरी, नौकाओं के निर्माण तथा उनके संचालन की कला बहुत पुरानी है। इसकी चर्चा प्राचीनतम साहित्य में पाई जाती है।

यद्यपि भारत के प्राचीन ग्रंथों का एक बड़ा भाग लुप्त हो गया है, किंतु वेद, पुराणादि जितने भी प्राचीन ग्रंथ इस समय उपलब्ध हैं उनके अध्ययन से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में भी भारतीय लोग सदृढ़ जहाज बनाकर समुद्रपार के सुदूर देशों में व्यापार तथा दिग्विजय के लिए जाया करते थे। युक्तिकल्पतरु नामक एक प्राचीन ग्रंथ में तो नौकाओं तथा जहाजों के दस दस भेद भी बताए गए हैं। भोजराज के समय में लिखित एक ग्रंथ में काष्ठों का वर्गीकरण करके बताया है कि नौकानिर्माण के लिए से काष्ठ अधिक उपयुक्त होंगे।[1]महाभारत के आदि पर्व में विदुर द्वारा स्थापित एक नौका के लिए "सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्" कहकर उसके यंत्रचालित होने का भी संकेत किया है।

यूरोपीय इतिहास से भी पता चलता है कि 18वीं शती के अंतिम भाग तक जहाज लकड़ियों को धातु की कीलों और पत्तियों से जोड़कर ही बनाए जाते थे और समुद्र में पालों की सहायता से हवा की शक्ति द्वारा संचालित किए जाते थे। 1784 ई. में जब जेम्स वाट ने अपना द्विक्रियात्मक पंप इंजन (double-acting steam engine) बना लिया, तब वहाँ के लोगों का ध्यान जहाजों में वाष्प की शक्ति का प्रयोग करने की तरफ गया और क्रमश: उनका ढाँचा भी पूर्णतया इस्पात का बनाया गया। वस्तुत: नौकाओं पर इंजनों के प्रयोग के प्रयास तो 18वीं शती से ही होने लगे थे। वाष्पइंजनचालित नौकाओं का संक्षिप्त विकासक्रम निम्न प्रकार है :

  • 1698 ई. में प्रोफेसर पॉपेन (Papain) और लाइपसिट्स (Leibnits) के बीच हुए एक पत्रव्यवहार से विदित होता है कि एक नौका में सेवरी (Savery) का पंप इंजन लगाकर उसके पैडल चक्र को पानी की धारा के बल से चलाने का प्रयत्न किया गया था। इस प्रयोग के समय प्रो॰ पॉपेन भी उपस्थित थे, लेकिन यह प्रयोग असफल रहा।
  • 1707 ई. में स्वयं प्रो॰ पॉपेन ने मार्बर्ग में एक नौका पर सेवरी का पंप इंजन लगाकर सफलतापूर्वक उसका संचालन किया, लेकिन मल्लाहों ने इसका घोर विरोध किया और उस नौका पर आक्रमण भी किया, जिसमें पॉपेन की जान मुश्किल से बची।
  • 1736 ई. में जॉनथैन हल्स (Jonathan Hulls) ने "स्टीमटग" नामक नौका पर न्यूकोमेन (Newcomen) का वायुमंडलीय इंजन लगाकर, उसके पैडल चक्रों को रस्सों द्वारा घुमाने का प्रयत्न किया, लेकिन वह प्रयोग भी असफल रहा।
  • 1783 ई. में फ्रांस के मॉर्क्वस ड जूफ्व्रा (Morquis de Jouffroy) ने 150 फुट लंबी तथा 16 फुट चौड़ी नौका पर वॉट का एक क्रियात्मक इंजन लगाकर उसके 14 फुट व्यास के पैडल चक्र को चलाया। लेकिन फ्रांस की सरकार से प्रोत्साहन न मिलने के कारण यह प्रयोग भी असफल रहा।
  • 1787 ई. में फिलाडेल्फिया के जॉन फिच (John Fitch) ने नौका ने वॉट के एक क्रियात्मक इंजन द्वारा उसके पैडल को चलाकर तीन चार मील प्रति घंटे की गति से संचालन किया, लेकिन कई व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण वे असफल रहे। इसके पश्चात् 1796 ई. में उन्होंने एक प्रकार का स्क्रूप्रोपेलर बनाकर वॉट के एकक्रियात्मक इंजन द्वारा नौका चलाने का प्रयत्न किया, लेकिन इंजन अनुपयुक्त होने के कारण प्रोपेलर को एक समान बल से गति नहीं मिली अत: यह प्रयोग भी असफल रहा। वास्तव में 1752 ई. में बेर्नूली (Bernoulli) ने ही स्क्रूप्रोपेलर का आविष्कार किया था, लेकिन उसे चलाने के लिए उपयुक्त प्रकार का इंजन न मिलने पर प्रयास असफल रहा।
  • 1788 ई. में स्कॉटलैंड के मिलर (Miller), टेलर (Taylor) और साइमिंग्टन (Symington) नामक इंजीनियरों ने 25 फुट लंबी और 7 फुट चौड़ी नौका पर एकक्रियात्मक, चार इंच व्यास के सिलिंडरों से युक्त, दो इंजन लगाकर पैडल चक्र को चलाया, जिससे पाँच मील प्रति घंटा की रफ्तार भी प्राप्त की, लेकिन दोनों इंजनों का समकालन (synchronisation) ठीक न होने के कारण प्रयोग असफल रहा।

उपर्युक्त विवरण में हम देखते हैं कि 18वीं शताब्दी में इंजनों द्वारा नौकाओं को चलाने के जितने भी प्रयोग हुए, लगभग असफल रहे क्योंकि इंजन की बनावट एकदिश क्रियात्मक होने के कारण उसकी चाल में स्थिरता नहीं आने पाती थी।

  • 1801 ई. में साइमिंग्टन ने शारलॉट डंडैस (Charlotte Dundas) नामक नौका बनाकर उसे फोर्थ (Forth) और क्लाइड (Clyde) नहर में चलाया, जिसका पैडलचक्र वॉट के बनाए द्विक्रियात्मक इंजन से चलता था। यही सर्वप्रथम प्रयोग है, जो सफल समझा जाता है।
  • 1807 ई. में न्यूयार्क के राबर्ट फुल्टन (Robert Fulton) ने क्लेरमाँ (Clermont) नामक नौका बनाई, जिसकी लंबाई 133 फुट, चौड़ाई 18 फुट और गहराई 9 फुट थी। इस पर बोल्टन और वॉट (Boulton and Watt) का बनाया एक द्विक्रियात्मक इंजन लगाया था, जिसके सिलिंडर का व्यास दो फुट और स्ट्रोक चार फुट था। पैडलचक्र के चलने पर नौका की गति पाँच मील प्रति घंटा हो जाती थी। यह प्रयोग भी सफल रहा।
  • 1812 ई. में इंग्लैंड के हेनरी बुल (Henry Bull) ने अपने पूर्ववर्ती इंजनों के समस्त दोषों को सुधारकर, तीन अश्वशक्ति का द्विक्रियात्मक इंजन बनाया। इसे 30 टन भारी, 40 फुट लंबी और फुट चौड़ी कॉमेट नामक नौका पर लगाया। इस नौका
  • सन् 1812 में निर्मित ने ग्लासगो ओर ग्रीनक के बीच कई वर्षों तक यात्रियों के ले आने, ले जाने का काम किया। यह प्रयोग इतना सफल रहा कि 1814 ई. में इसी नमूने की पाँच नौकाएँ और बनीं, फिर उनकें कुद सुधारकर 1820 ई. में 20 नौकाएँ तैयार की गई। फिर तो इनकी बनावट तथा इंजनों में अनेक महत्वपूर्ण सुधार कर ग्लास्गो नगर के रॉबर्ट नेपियर ऐंड संस ने व्यापारिक ढंग एक से एक कारखाना खोलकर 1840 ई. तक 1,325 नौकाएँ बना डालीं। इनमें और भी अधिक सुधार कर अन्य कारखानेदारों ने 1888 ई. तक 1930 समुद्री जहाज तथा नौकाएँ बना लीं। आरंभ में इनपर जो पैडलचक्र लगाए जाते थे उनके त्रिज्यीय दिशा में स्थिर पैडल लगाए जाते थे; बाद में इन्हें सुधारकर पंखनुमा अस्थिर पैडल लगाए गए।

वॉट के द्विक्रियात्मक इंजन में भी कई ऐसे दोष थे जिनके कारण नौकासंचालन में बड़ी असुविधा होती थी। आरंभिक काल में स्टीफेंसन के वाल्व गतियंत्र का भी उपयोग हुआ, लेकिन जब ज्वायज़ (Joys) के वाल्व गतियंत्र का आविष्कार हुआ तो नौसंचालन केलिए इसका उपयोग बड़ा सुविधाजनक सिद्ध हुआ। नौकाओं पर जगह की कमी के कारण उपर्युक्त प्रकार के आड़े इंजन बड़े असुविधा जनक रहते थे, अत: लोगों ने कई प्रकार के खड़े इंजनों का भी आविष्कार किया। 1850 ई. तक इंग्लैंड में जितने भी जहाज या नौकाएँ बनीं उनके पैडलचक्रों को चलाने के लिए बगली लीवर युक्त इंजनों की ही प्रधानता थी, जो जहाजी कामों के लिए साधारण बीम इंजन के ही परिष्कृत रूप थे। इसके बाद, ग्रासहॉपर नामक एक विशेष प्रकार के बीम इंजन का आविष्कार हुआ, जो अपने पूर्ववत्र्ती आड़े इंजनों की अपेक्षा कम जगह घेरता था

  • इसके बाद 1827 ई. में उत्तरी अमरीका के रॉबर्ट स्टिवेंसन ने एक "वॉकिंग बीम" नामक इंजन का निर्माण किया जिसके सिलिंडरों का व्यास इंच और स्ट्रोक 8 फुट था। इसका पैडलचक्र प्रति मिनट 24 चक्कर लगाता था।
  • 1840 ई. में स्टपुल (Stuple) इंजन और 1885 ई. में डायगोनैल (Diagonal) इंजन का आविष्कार हुआजो जहाजों पर बहुत ही कम जगह घेरते थे। डाइगनल इंजन में जाइस के वाष्प गतियंत्र का उपयोग होता था।
  • 1850 ई. में दोलक (Oscillating) इंजन का आविष्कार हुआ, जिसका सिलिंडर स्थिर रहने के बदले दो चूलों पर झूमा करता था। इस इंजन ने इतनी सफलता दिखाई कि पुरानी नौकाओं पर, एक शताब्दी बाद, अब भी यह कभी कभी देखने को मिल जाता है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पेंन का ट्रंक इंजिन (Penn's Trunk Engine) और मूड्स्ले का रिटर्न कनेकिं्टग रॉड (Moudslay's Return Connecting Rod) इंजन का आविष्कार हुआ। आरंभ में तो इनसे पैडलचक्र ही चलाए जाते थे लेकिन इनकी अनुदैघ्र्य लंबाई इतनी छोटी और सुविधाजनक बन गई कि इन्हें नौकाओं पर आड़ा लगाकर स्क्रूप्रोपेलर भी बड़ी आने लगा। क्रमश: यह इंजन इतना विकसित हो गया कि इसके द्वारा 9,000 अश्व शक्ति तक प्राप्त की जाने लगी और यह संयोजी प्रकार (compound) के त्रिप्रसारीय भी बनने लगे।
  • वास्तव में इंजनों के संयुक्तीकरण का विचार जेम्स वॉट के दिमाग में भी था, लेकिन लंदन के ऑर्थर उल्फ (Arthur Woolf) ने 1804 ई. में अपने बनाए एक इंजन पर 40 पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब की वाष्प से ही सर्वप्रथम सफल प्रयोग किया। संयुक्तीकरण की इस प्रयुक्ति को डब्ल्यू. मैकनॉट (W. Mc Naught) ने 1845 ई. में और भी परिष्किृत किया। 1854 ई. में रैनडॉल्फ एवं एल्डर (Randolph and Elder) नामक अंग्रेजी जहाज निर्माता ने स्क्रूप्रोपेलर युक्त अपने ब्रैंडन (Brandon) नामक समुद्री जहाजपर संयुक्तीकरण का सफल प्रयोग किया जिसकी वाष्प दाब 22 पाउंड प्रति वर्ग इंच थी। इसके बाद 1870 ई. तक सभी जहाजों पर संयुक्त इंजन लगाए जाने लगे। इनकी वाष्प दाब 60 पाउंड प्रति वर्ग इंच तक होती थी।
  • 1874 ई. में ए. सी. कर्क (A. C. Kirk) ने अपने स्क्रूप्रोपेलर युक्त प्रापूटिस (Propoutis) नामक जहाज पर त्रिप्रसार (triple expansion) इंजन लगाया, जिसके सिलिंडरों का व्यास क्रमश: 23 इंच, 41 इंच और 62 इंच था तथा उनका स्ट्रोक 42 इंच था। यह इंजन एक मानक प्रकार के जहाजी इंजन के रूप में समझा जाने लगा। 1880 ई. में इन इंजनों की वाष्प दाब 100पाउंड प्रति वर्ग इंच, 1890 ई. में 160 पाउंड प्रति वर्ग इंच और 1900 ई. में 200 पाउंड प्रति वर्ग इंच तक बढ़ गई।
  • इधर अंतर्दहन इंजनों का प्रयोग नौकाओं पर आरंभ हो जाने के कारण और डीज़ल इंजन जहाजों पर सुविधाजनक सिद्ध हो जाने के कारण, वाष्प और अंतर्दहन इंजनों में प्रतिद्वंद्विता बढ़ने लगी। अत: वाष्प इंजनों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए, अल्पदाब सिलिंडर के आगे वाष्प टरबाइन लगाना आरंभ हो गया। 1894 ई. में ही टरबाइनों केआविष्कार पारसन्स ने स्क्रू प्रोपेलर युक्त एक जहाज पर स्वनिर्मित टरबाइन लगाया। इस जहाज की लंबाई 100 फुट, चौड़ाई 9 फुट और भार, टन था। इसका टरबाइन अकेले ही जहाज के स्क्रूप्रोपेलर को बड़ी दक्षता से चलाता था, लेकिन इसमें इंजन की अपेक्षा प्रति अश्व शक्ति अधिक वाष्प खर्च होता था। अत: अन्य बड़े जहाजों में खड़े त्रिप्रसार इंजनों की क्षमता बढ़ाने के लिए इंजन के सहायक रूप में ही टरबाइन, जिसमें अल्पदाब सिलिंडर से निकला हुआ वाष्प ही काम करता था, लगाया जाने लगा।
  • 1914 ई. में "ब्रिटैनिक" नामक जहाज में चार सिलिंडर युक्त, त्रिप्रसार इंजन लगाया गया, जिसके सिलिंडर क्रमश: 54 इंच, 84 इंच और 97 इंच व्यास के तथा 75 इंच स्ट्रोक युक्त थे और इसके बॉयलर की वाष्प दाब 230 पाउंड प्रति वर्ग इंच थी। इसके सिलिंडरों में 16,000 सूचित अश्व शक्ति (I. H. P.) उत्पादित कर तथा नोदक धुरों को 77 चक्कर प्रति मिनट चलाने के बाद, अल्प दाब सिलिंडरों से निकला हुआ वाष्प 9 पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब पर मध्यवर्ती एक पारसन्स टरबाइन को चलाता था, जिससे 18,000 धुरीय अश्व शक्ति (shaft horse power) 170 चक्कर प्रति मिनट पर प्राप्त हो जाती थी। 1930 ई. तक टरबाइनों में गियरबक्स (gear box) लगाकर प्रणोदित्र युक्त बड़े बड़े जहाजों को बिना इंजनों की सहायता से, केवल टरबाइनों द्वारा ही चलाया जाने लगा।

अब तो जहाजी बॉयलर भी इतने उन्नत हो गए हैं कि जलनालिका बायलरों से 575 पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब का वाष्प, जिसका ताप लगभग 399रू सें. होता है, 2,00,000 पाउंड प्रति घंटा तक प्राप्त किया जा सकता है। आधुनिक जहाजी वाष्प इंजन भी अब इतने शक्तिशाली बनाए जाने लगे हैं कि उनके द्वारा चतुष्प्रसार क्रम के प्रत्येक सिलिंडर से 1,000 से लेकर 3,000 तक अश्वशक्ति प्राप्त की जा सकती है।

विंटरथर (Winterthur) की सुल्ज़र ब्रदर्स (Sulzer Brothers) नामक फर्म जहाजी उपयोगों के लिए इस प्रकार के डीजल इंजन बनाती है जिनकी प्रत्येक इकाई में 1,000 अश्व शक्ति उत्पन्न करनेवाले 10 सिलिंडर तक होते हैं। ये दोहरे स्ट्रोक की विधि से काम करते हैं।

नौशक्ति संयंत्र तथा उपसाधित्र

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(Marine power plants and accessories)

 
पैडलचक्र (Paddle wheel)

पैडलचक्र

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इंजन चालित जहाजों के आरंभिक काल में सभी नौकाएँ पैडल चक्रों (Paddle wheel) द्वारा ही चलाई जाती थीं, लेकिन प्रणोदित्र (propeller) का आविष्कार हो जाने के बाद से समुद्री जहाजों में पैडलचक्रों का प्रयोग बंद हो गया, फिर भी नदियों में चलनेवाली नौकाओं में अब भी इनका प्रयोग होता है। लकड़ी के प्लवों (floats) की बनावट के अनुसार पैडलचक्र दो प्रकार के होते हैं :

(1) अरीय प्लव (स्थिर पैडल) युक्त चक्र, और
(2) पंखनुमा चल प्लव (अस्थिर पैडल) युक्त चक्र

अरीय प्लव तो चक्र की परिधि के ऊपर त्रैज्य दिशा में पक्के कसे होते हैं। पंखनुमा प्लव अपनी चूल पर थोड़ा घूमकर आवश्यकतानुसार तिरछे भी हो जाते हैं। अरीय प्लर्वों में यह दोष है कि पानी से ऊपर उठते समय वे कुछ पानी अपने साथ भी ले जाते हैं, जिसे उठाने में इंजन की शक्ति का थोड़ा अपव्यय होता है। दूसरा दोष यह है कि पैडल चक्र के चक्कर के केवल थोड़े से भाग में वे लगभग ऊध्र्वाधर स्थिति में रह पाते हैं। इसमें ही वे पानी पर अच्छी ताकत लगा सकते हैं। पंखनुमा प्लव अपने त्रैज्य संयोजक दंडों की सहायता से, जो चक्र के वक्ष से संबंधित रहते हैं, आवश्यकतानुसार अपनी चूल पर घूमकर अपने कोण को बदलकर, जब तक वे पानी में रहते हैं उसपर पूरा दबाव डालते हैं। बाहर निकलने पर वे अपने साथ अधिक पानी भी नहीं उठाते।

पैडल चक्रों को चलानेवाले इंजन

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पैडल चक्रों को चलानेवाले धुरे नौकाओं के मध्य भाग में आड़े लगाए जाते हैं और नौका के मध्य में दो इंजन इस प्रकार लगाए जाते हैं कि यदि चाहें तो दोनों इंजन मिलकर दोनों ही पैडलचक्रों को एक साथ चलाएँ और चाहें तो असंबद्ध होकर केवल अपने अपने ही पैडलचक्र को यथेच्छा, एक आगे और दूसरा पीछे की तरफ चलाकर, आवश्यकतानुसार नौका की दिशा को बदल दें या पैतरा बदली करें। ऐसा कर सकने के लिए दोनों इंजनों के धुरों बीच में जहाँ मिलते हैं, वहाँ एक धुरे के सिरे को पनालीदार (w) (splined) बनाकर उसपर सरकती हुई, चालक चर्खी (sheave) लगा देते हैं। जब दोनों को एक साथ चलाना होता है तब वह चर्खी सरककर दूसरे धुरे पर बनी एक क्रैंक पिन में फँस जाती है। पैडल चक्रों की छोटी नौकाओं को चलाने के लिए खड़े इंजन तो अपने झोंके के कारण अनुपयुक्त होते ही है और आड़े इंजन बहुत जगह घेरते हैं; अत: इनके लिए 19वीं शताब्दी में कई विशेष प्रकार के इंजन बनाए गए थे, जो ऊँचे भी नहीं थी और अधिक जगह भी नहीं घेरते थे। इन इंजनों में स्टपुल इंजन (Stuple engine), डायैगोनैल इंजन (Diagonal engine), औसिलेटिंग इंजन (Oscillating engine), पेन का ट्रंक इंजन (Penn's Trunk engine) और माउड्स्ले का रिटर्न कनक्टिंग रॉड इंजन (Moudslay's Return Connecting Rod Engine) मुख्य हैं।

पेंच प्रणेदित्र

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आधुनिक मध्यम आकार के आधुनिक जलयान का नोदक (प्रोपेलर)

पेंच प्रणोदित्र के सिद्धांत और क्रिया (Principles and action of screw propeller)

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आधुनिक जहाजों को चलाने के लिए उनके पिछले सिरे पर जो पंखेनुमा यंत्र लगाया जाता है उसे नोदक या प्रणोदित्र अथवा 'प्रणोदी पेंच' कहते हैं। इसकी आकृति पंखेनुमा दिखाई देती हैं, लेकिन क्रिया ठीक चूड़ीदार पेंच के समान ही होती है। यह पंखेनुमा पेंच समुद्र के पानी में चूड़ी सी काटता हुआ जहाज को लेकर आगे बढ़ जाता है। पेंच के ऊपर तो हमें चूड़ियों की पूरी वेष्ठनें दिखाई पड़ती हैं, लेकिन इन पंखों में नहीं दिखाई पड़तीं, क्योंकि प्रत्येक पंखुड़ी, एक बहुत बड़े (pitch) पिचवाले अभिकल्पित पेंच की पतली सी अंगोडी (slice) की एक त्रैज्य फाँक हैं। साधारण पेंच में जैसे-जैसे चूड़ी की गलियों की संख्या बढ़ती हैं उसकी लीड (lead) की लंबाई भी उसी अनुपात से बढ़ जाती है। प्रणोदित्र की पंखुड़ियों का वक्र भी एक बहुत बड़ी लीड में फिट होता हुआ बनाते हैं। अत: यदि कोई पंखा छोटी लीड का है तो उसे लंबे फासले को तय करने के लिए अधिक चक्कर लगाने पड़ेंगे और यदि वह बड़े लीड का है तो वह कम चक्करों में ही उस फासले को तय कर सकता है। जिस प्रकार ठोस पेंच और लीड के हिसाब से चक्कर लगाने पर एक निश्चित फासला तय कर लेता है, पानी में चलनेवाला यह पंखेनुमा पेंच वैसा ही नहीं कर सकता, क्योंकि पानी तरल पदार्थ होने के कारण इधर उधर वह जाता है। इस प्रकार जहाज की चाल में जो कमी आ जाती है उसे प्रणोदित्र का सर्पण या सरक (slip) कहते हैं।

सर्वप्रथम जब प्रणोदित्र का आविष्कार हुआ, उस समय जहाजी इंजीनियरों के सामने उसे तेज चाल से चलाने की समस्या आई। पैंडलचक्रों को चलानेवाले इंजन बहुत ही धीमे (gears) की सहायता लेनी पड़ी। बाद में द्रुत गति से चलनेवाले खड़े इंजन बन जाने और फिर टरबाइन तथा डीजल इंजनों का प्रयोग आरंभ हो जाने से यह समस्या हल हो गई।

प्रणोदित्र संचालन

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प्रणोदित्र के ठीक प्रकार से काम करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पंखे पानी में पूरी तरह से डूबे रहें। अत: उसे चलानेवाले धुरे भी जहाज के पीछे की तरफ किसी उपयुक्त प्रकार के छेद में से होकर उसके फ्रेम और आवरण के बाहर निकले रहें। यह जल-तल-रेखा से काफी नीचे होता है। उन छेदों की परिधि और धुरों की परिधि के बीच ऐसा प्रबंध भी होता है कि समुद्र का पानी उसमें से जहाज में न घुसने पाए। इस काम के लिए अनेक प्रकार की युक्तियों बनाई गई हैं। साधारण युक्तियों में धुरा गरम भी हो जाता है, अत: इसमें तेल भरकर चलाने का प्रर्वध और विशेष अवसरों पर गरम पानी से ताप कम करने का प्रबंध भी किया गया है। जिन जहाजों में दो या तीन प्रणोदित्र लगाए जाते हैं उनमें बगली प्रणोदित्रों के धुरों की खोलों को सहारा देने के लिए जहाज के बाजू के फ्रेम में उचित प्रकार से ब्रैकेट लगाकर, उनमें खोलों को स्थिरता से बाँधकर प्रणोदित्र का धुरा चलाया जाता है।

प्रणोदित्र का नोद (Thrust of propeller)

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प्रणोदित्र घूमते समय जब पानी को चीरकर जहाज को आगे की तरफ ढकेलता है, उस समय उसकी प्रतिक्रिया के रूप में उसी परिमाण का नोद आगे की तरफ मुड़ता है, जिससे बेयरिंगों (bearings) के बहुत ही शीघ्र घिस जाने तथा पुर्जों के स्थानच्युत हो जाने का डर रहता है। अत: प्रणोदी धुरे की पिछली खोल, जिसमें से वह धुरा पीछे की तरफ बाहर निकला रहता है और इंजन अथवा टरबाइन के बीच एक बॉक्सनुमा नोदक बेयरिंग लगा दिया जाता है, जिसके भीतर की तरफ खाँचों में धुरे पर बनी कई कालरें (collar) सही सही बैठी रहती हैं और वे सब मिलाकर प्रणोदी पंखे से आनेवाले नोद को सह लेती हैं। बेयरिंग के खाँचों में, धुरे की कालरों के दोनों तरफ, मुलायम पीतल के बने अर्धचंद्राकार अस्तरपट्ट डाल दिएजाते हैं और ऊपर से उनपर तेल चुआने का प्रबंध रहता है। कई नोदक बेयरिंग बॉक्सों में तेल की नाँद नीचे की तरफ बनी होती है, जिसमें धुरे की कॉलरें खंडश: डूबी हुई चला करती हैं। इनमें लगे अस्तरपट्ट घोड़े की नाल की आकृति के होते हैं।

प्रणोदित्रों को चलनेवाले इंजन

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वाष्प टरबाइनों के आविष्कार के पहिले तक, प्रणोदित्रों को चलाने के लिए ऊपर की तरफ सिलिंडरोंवाले खड़े वाष्प इंजन काम में लाए जाते थे, जो अक्सर चतुष्संयोजी (quadruple compound) प्रकार के हुआ करते थे। जहाजों में प्रत्येक प्रणोदित्र को चलाने के लिए दो दो इंजन एक जोड़े में लगाए जाते हैं। जब जहाज का परिभ्रमण हो या दिशा बदलनी हो तब उन दो में से केवल एक का ही प्रयोग किया जाता है। जहाज को तेजी से आगे चलाते समय दोनों इंजन मिलकर एक प्रणोदित्र को चलाते है।

वाष्प टरबाइन

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प्रणोदित्रों को चलाने के लिए आजकल टरबाइनों का रिवाज बढ़ता जा रहा है, क्योंकि ये कई बातों में इंजनों से भी अधिक सुविधाजनक तथा सस्ते पड़ते हैं। वैसे इनमें इंजनों की अपेक्षा वाष्प का खर्चा प्रति अश्वशक्ति अधिक होता है। चित्र 16, में एक प्रणोदित्र युक्त छोटे जहाज में एक उच्च दाब और एक अल्प दाब के टरबाइनों का जोड़ा उनके संघनित्र सहित दिखाया है। टरबाइन बड़ी तेजी से घूमनेवाला यंत्र है, इधर प्रणोदित्र से दक्षतापूर्वक काम लेने के लिए उसे टरबाइन की अपेक्षा काफी मंद गति से चलाना पड़ताहै। अत: प्रणोदित्र की चाल मंद करने के लिए बीच में छोटी और बड़ी गरारी लगाना आवश्यक हो जाता है। टरबाइन की धुरी पर छोटा पिनियन (pinion) और प्रणोदित्र के धुरे पर बड़ा पिनियन लगाया जाता है।

किसी जहाज में कहाँ कहाँ टरबाइन बैठाए जाऐं यह, बात उस जहाज के आकार एवं प्रकार पर निर्भर करती है। सब से सरल तरीका तो यह है कि एक प्रणोदित्र के लिए कम से कम एक टरबाइन तो अवश्य ही होना चाहिए। दूसरा तरीका यह है कि उच्चदाब और अल्पदाब के टरबाइन का जोड़ा संघनित्र सहित प्रत्येक प्रणोदित्र के साथ लगाए जाए। इस प्रबंध में बॉयलर में से आनेवाला ताजा वाष्प पहले उच्चदाब के टरबाइन में और फिर अल्पदाब के टरबाइन में काम करने के बाद संघनित्र में जाकर विसर्जित हो जाएगा। इस प्रबंध में उत्पादित शक्ति का इस प्रकार से समविभाजन किया जाता है कि प्रत्येक टरबाइन का जोड़ा एक एक प्रणोदित्र को गियर के माध्यम से दोनों तरफ स्वतंत्रतापूर्वक चला सके। कई जहाजों में, जिनमें तीन प्रणोदित्र होते हैं, उच्चदाब की टरबाइन तो बीच के प्रणोदित्र को चलाता है और दोनों बाजुओं में लगे अल्पदाब टरबाइन बगली प्रणोदित्रों को चलाते हैं।

इंजनों और टरबाइनों का संयुक्त प्रयोग

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टरबाइनों के प्रयोग के आरंभिक काल में और आजकल भी, कई बड़े बड़े जहाजों में संयोजी इंजनों (compound engines) के साथ साथ टरबाइनों का भी प्रयोग किया जाता है। जब जहाज पूरे वेग से आगे चलता है तब तो टरबाइन और इंजन दोनों ही मिलकर काम करते हैं, लेकिन जब जहाज को उल्टा चलाना होता है तब टरबाइन का संबंध धुरे से काट दिया जाता है। ऐसा करते समय अल्पदाब के सिलिंडर में काम करने के बाद वाष्प, टरबाइन में जाकर काम करने के बदले सीधे संघनित्र में चला जाता है। इसमें जहाज का मध्यवर्ती प्रणोदित्र तो उच्चदाब, मध्यदाब और अल्पदाब के त्रिप्रसारीय संयोजी इंजन द्वारा चलाया जाता है और अल्पदाब के सिलिंडर में काम कर चुकने के बाद वाष्प लगभग नौ पाउंड प्रतिवर्ग इंच की दाब पर, बाजुओं में लगी टरबाइनों को चलाता है, जिससे बाजुओं के प्रणोदित्र चलते हैं। फिर बाद में यह वाष्प संघनित्र में जाकर विसर्जित हो जाता है। जिन बड़े जहाजों की रफ्तार 16 नॉट प्रति घंटा से नीची हो उन्हीं में इंजन और टरबाइनों का संयुक्त विन्यास उपयोगी हो सकता है। इससे ऊँची रफ्तारवाले जहाजों के लिए तो पूर्णतया टरबाइनों का प्रयोग ही लाभदायक रहता है।

जहाजी वाष्प इंजनों तथा टरबाइनों के सहायक एवं अनुसंगी उपकरण

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(Auxiliaries and accessories for steam engines and turbines)

20वीं शताब्दी के प्रथम चरण तक जहाजी इंजनों को वाष्प देने के लिए अग्निनाल बायलरों का ही अधिकतर प्रयोग हुआ करता था, जिनमें स्कॉच (Scotch) सर्वोत्तम समझा जाता था और जलनाल बायलरों में विलकॉक्स-बैबकॉक (Wilcox Babcok) बायलर ही श्रेष्ठ समझा जाता था। अब जलनालिका बायलरों का प्रचार बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इनके द्वारा उच्च दाब का वाष्प विपुल मात्रा में बहुत ही थोड़े समय में प्राप्त किया जा सकता है। अब विलकॉक्स-बैवकॉक में भी बहुत सुधार हो गए हैं। इनके अतिरिक्त स्टलिंग (Stirling) बॉयलर, थॉरनिक्राप्ट (Thornycroft) बॉयलर, यारो (Yarrow) बॉयलर, ह्वाइटफॉस्टर (Whitefoster) बॉयलर आदि, जलनालिका बायलरों का जहाजी कामों में बहुत प्रयोग हुआ करता है।

समुद्री पानी खारा होता है अत: उसका प्रयोग सीधा ही बॉयलरों में नहीं किया जा सकता और यह पीने के योग्य भी नहीं होता। जहाजों पर इस पानी को काम के योग्य बनाने के लिए आसवन यंत्र (distiller), उद्वाष्पक (evaporator) आदि उपसाधित्र लगाए जाते हैं। बॉयलर के भीतर पानी पहुँचाने के लिए विशेष प्रकार के भरणयंत्र (feed pump) और बॉयलर में प्रवेश करने के पहले ही उसे काफी गरम करने के लिए भरण तापक (feed heater) लगाए जाते हैं। इंजनों और टरबाइनों में प्रयोग करने के बाद वाष्प को वृथा न जाने देकर, उसे संघनित्रों में जमाकर तथा ठंढाकर पानी के रूप में फिर से प्रयोग के लायक बना लिया जाता है। आसवनयंत्र और उद्वाष्पक तो संघनित्र के पानी में होनेवाली कमी को ही पूरा करते हैं। खाद्य पदार्थों को पूरी यात्रा भर सुरक्षित रखने के लिए प्रशीतित्र (refrigerator) लगाए जाते हैं। संवातन (ventilation) तथा छोटे यंत्रोंपकरणों को अटकाव की जगहों पर चलाने के लिए वायुसंपीड़क (air compresser), प्रकाश के लिए विद्युदत्पादक यंत्र (विद्युत जनित्र/ dynamo), कर्ण गियर (steering gear) तथा क्रेनों के लिए द्रवचालित पंप (hydraulic pumps) आदि उपसाधित्रों के रूप में लगाए जाते हैं। बंदरगाहों पर पहुँचने पर मुय वाष्प इंजन बंद कर दिए जाते हैं। वहाँ जहाज को आगे पीछे चलाने तथा प्रकाश और मरम्मत के कामों के लिए छोटे डीज़ल और तेल इंजन लगाए जाते हैं।

जहाजों को चलाने के लिए अंतर्दहन इंजनों का उपयोग

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घाट नौकाओं (ferries) और नदियों में चलनेवाली नौकाओं (river boats) के संचालन के लिए आजकल तेल और पेट्रोल इंजनों का अधिकतर प्रयोग होता है। समुद्र में चलनेवाले छोटे जहाज ऑटो साइकल के अनुसार काम करनेवाले डीज़ल इंजनों से चलाए जाते हैं। बहुत बड़े जहाज तो अब भी वाष्प इंजन और टरबाइनों से भी चलते हैं, क्योंकि डीज़ल जहाजों पर लगभग 5-6 डीज़ल इंजन मिलकर एक प्रणोदक धुरे को चला पाते हैं। डीज़ल इंजनों में एक ही सिलिंडर होता है, जो साधारणतया 1,000 अश्वशक्ति से अधिक का नहीं होता। आधुनिक प्रकार के अच्छे से अच्छे, विशेष प्रकार के, डीज़ल इंजन से भी प्रति सिलिंडर दो या ढाई हजार से अधिक अश्वशक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। यदि एक प्रणोदित्र के लिए पाँच डीज़ल इंजन भी एक साथ लगाए जाएँ तो वे हजार अश्वशक्ति ही प्राप्त होगी, जबकि एक आधुनिक प्रकार के बड़े जहाज को निरतर 70-80 हजार अश्वशक्ति की आवश्यकता हुआ करती है। इसलिए बहुत बड़े जहाजों का चलाने के लिए अब भी वाष्प इंजनों का ही प्रयोग किया जाता है। हाँ, उनपर छोटे मोटे कामों के लिए डीज़ल इंजनों से सहायता ली जा सकती है। बेशक, छोटे जहाजों के लिए डीज़ल इंजन सर्वथा उपयुक्त होते हैं, क्योंकि इनका प्रयोग करने से बॉयलर, कोयला, उद्वाष्पक, भरणजलतापक, भरण फिल्टर, भरणपंच और संघनित्रों की आवश्यकता नहीं रहती और उनसे बचा हुआ स्थान व्यापारिक माल लादने के काम में आ सकता है। थोड़ी सी जगह में ही पूरी यात्रा के लिए तेल भर कर रखा जा सकता है, डीज़ल इंजनों के चौगिर्द अच्छी सफाई रखी जा सकती है, क्योंकि वहाँ राख, कोयला और धुएँ का काम ही नहीं होता। फायरमैन जैसे कुशल कर्मचारियों की भी आवश्यकता नहीं रहती और एक ही चालक कई इंजनों को सँभाल सकता है, अत: वेतन में भी बचत हो जाती है।

स्टीयरिंग गियर तथा रडर

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आधुनिक समुद्री जहाज का अरित्र (रडर) : नोदक (पंखे) के आगे लम्बा, लाल आयताकार संरचना; यह यान की दिशा बदलने के काम आती है।

जहाजों तथा नौकाओं का संचालन (दायें-बांयें मोड़ना) रडर (Rudder) के द्वारा होता है, जो स्टर्नपोस्ट (कुदास) के आधार पर लगा होता है। इसे चलाने के लिए छोटी नौकाओं में तो रडर के डंठल के ऊपरी सिरे पर हाथचर्खी लगा दी जाती है, लेकिन बड़े जहाजों में उसे चलाने के लिए छोटे इंजनों या जलशक्तिचालित (हाइड्रालिक) यंत्रों की सहायता ली जाती है। रडर को घुमाने के लिए आवश्यक बल रडर के आकार, जहाज की रफ्तार और जहाज की अनुदैर्घ्य मध्यरेखा से रडर के पल्ले के कोण पर निर्भर करता है। उदाहरणत:, यदि कोई जहाज 15 नॉट प्रति घंटे की रफ्तार से चल रहा हो उसके रडर के पानी में डूबे हुए भाग का क्षेत्रफल 100 वर्ग फुट हो तथा मध्यरेखा से उसका कोण 30 डिग्री हो तो गणित द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि उस रडर को घुमाने में 32,130 पाउंड का बल लगाना पड़ेगा, जो मानवीय सामर्थ्य के बाहर की बात है। इस काम के लिए ब्राउन की हाइड्रॉलिक स्टियरिंग टेलिमोटर, हैरीसन का स्टियरिंग गियर (जिसमें दो छोटे छोटे वाष्प इंजनों का प्रयोग होता है), हेस्टी (Hastie) का स्टियरिंग गियर और हैले-शॉ मार्टिन्यू (Hele Shas Martinue) का हाइड्रॉलिक स्टियरिंग गियर आदि मुख्य हैं। छोटे वाष्प इंजनों के जोर से कुछ दंतचक्र चलकर रडर दंड के ऊपर लगे एक बड़े दंतचक्र को आवश्यकतानुसार घुमा देते हैं। उस चक्र को इच्छित जगह पर रोक रखने के लिए विशेष प्रकार की कमानी और क्लच ब्रेक आदि भी लगे होते हैं।

  1. "भारत का वैज्ञानिक चिन्तन : नौका शास्त्र". मूल से 6 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 अगस्त 2015.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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सामुद्रिक संघ