पीपाजी

महान रामानन्दी संत
(पीपानन्दाचार्य जी से अनुप्रेषित)

पीपाजी (१४वीं-१५वीं शताब्दी) गागरोन के शाक्त राजा एवं सन्त कवि थे। वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। गुरु ग्रंथ साहिब के अलावा २७ पद, १५४ साखियां, चितावणि व ककहारा जोग ग्रंथ, पीपा परची

इनके द्वारा रचित संत साहित्य की अमूल्य निधियां हैं। इन्हें पीपा बैरागी के नाम से भी जाना जाता है। इनका बचपन का नाम प्रताप सिंह था। पीपाजी की छत्तरी गागरोन झालावाङ में स्थित है

जीवनचरित

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भक्तराज पीपाजी का जन्म विक्रम संवत १३८० में राजस्थान में कोटा से ४५ मील पूर्व दिशा में गागरोन में हुआ था।[1] वे क्षत्रिय(चौहान वंश) के (खींची गोत्र) के प्रतापी राजा थे। सर्वमान्य तथ्यों के आधार पर पीपानन्दाचार्य जी का जन्म चैत्र शुक्ल पूर्णिम, बुधवार विक्रम संवत १३८० तदनुसार दिनांक ३१ मार्च १३२३ को हुआ था। उनके बचपन का नाम प्रतापराव खींची था। उच्च राजसी शिक्षा-दीक्षा के साथ इनकी रुचि आध्यात्म की ओर भी थी, जिसका प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। किवदंतियों के अनुसार आप अपनी कुलदेवी से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते थे व उनसे बात भी किया करते थे।

पिता के देहांत के बाद संवत १४०० में आपका गागरोन के राजा के रूप में राज्याभिषेक हुआ। अपने अल्प राज्यकाल में पीपाराव जी द्वारा फिरोजशाह तुगलक, मलिक जर्दफिरोज व लल्लन पठान जैसे योद्धाओं को पराजित कर अपनी वीरता का लोहा मनवाया। आपकी प्रजाप्रियता व नीतिकुशलता के कारण आज भी आपको गागरोन व मालवा के सबसे प्रिय राजा के रूप में मान सम्मान दिया जाता है। संत पीपा कुछ समय द्वारिका रहे थे।

रामानन्द की सेवा में

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दैवीय प्रेरणा से पीपाराव गुरु की तलाश में काशी के संतश्रेष्ठ जगतगुरु रामानन्दाचार्य जी की शरण में आ गए तथा गुरु आदेश पर कुएँ में कूदने को तैयार हो गए। रामानन्दाचार्य जी आपसे बहुत प्रभावित हुए व पीपाराव को गागरोन जाकर प्रजा सेवा करते हुए भक्ति करने व राजसी संत जीवन व्यतित करने का आदेश दिया। एक वर्ष पश्चात संत रामानन्दाचार्य जी अपनी शिष्य मंडली के साथ गागरोन पधारे व पीपाजी के करुण निवेदन पर आसाढ शुक्ल पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) संवत १४१४ को दीक्षा देकर वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये नियुक्त किया। पीपाराव ने अपना सारा राजपाठ अपने भतीजे कल्याणराव को सौपकर गुरुआज्ञा से अपनी सबसे छोटी रानी सीताजी के साथ वैष्णव-धर्म प्रचार-यात्रा पर निकल पडे।

पीपानन्दाचार्य जी का संपुर्ण जीवन चमत्कारों से भरा हुआ है। राजकाल में देवीय साक्षात्कार करने का चमत्कार प्रमुख है उसके बाद संन्यास काल में स्वर्ण द्वारिका में ७ दिनों का प्रवास, पीपावाव में रणछोडराय जी की प्रतिमाओं को निकालना व आकालग्रस्त इस में अन्नक्षेत्र चलाना, सिंह को अहिंसा का उपदेश देना, लाठियों को हरे बांस में बदलना, एक ही समय में पांच विभिन्न स्थानों पर उपस्थित होना, मृत तेली को जीवनदान देना, सीता जी का सिंहनी के रूप में आना आदि कई चमत्कार जनश्रुतियों में प्रचलित हैं।

रचना की संभाल

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गुरु नानक देव जी ने आपकी रचना आपके पोते अनंतदास के पास से टोडा नगर में ही प्राप्त की। इस बात का प्रमाण अनंतदास द्वारा लिखित 'परचई' के पच्चीसवें प्रसंग से भी मिलता है। इस रचना को बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में जगह दी।

पीपाजी की रचना का एक नमूना
कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ॥
काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजउ पाती ॥१॥
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई ॥
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ॥१॥ रहाउ ॥
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ॥
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होइ लखावै ॥२॥३॥
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजे सो पावै॥
(जो प्रभु पूरे ब्रह्माँड में मौजूद है, वह मनुष्य के हृदय में भी विद्यमान है।)


पीपा प्रणवै परम ततु है, सतिगुरु होए लखावै॥२॥
(पीपा परम तत्व की आराधना करता है, जिसके दर्शन पूर्ण सतिगुरु द्वारा किये जाते हैं।)
  1. विश्वनाथ सिंह (७ नवम्बर २०११). "हमारे संत/ पीपा जी". लाइव हिन्दुस्तान. मूल से 16 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २७ जुलाई २०१५.