प्राण सुख यादव

भारतीय सेना-नायक और 1857 की क्रांति में भागीदार (1802-1888)

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1857
Greatest Commander Pran Sukh Yadav

प्राण सुख यादव (राव साहब) (1802–1888) एक सेना नायक [1], 1857 की क्रांति में भागीदार क्रांतिकारी[2] तथा सिख कमांडर हरी सिंह नलवा के मित्र थे।[3][4] अपने पूर्व के समय में वह सिख खालसा सेना व फ्रेंच आर्म्स की तरफ से लड़ते थे। महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद उन्होने प्रथम व द्वितीय ब्रिटिश-सिख संघर्ष में भागीदारी निभाई।.[5] बाद में 1857 में भारत के पहले विद्रोह के दौरान उन्होंने नसीबपुर की लड़ाई में रेवाड़ी के राव तुला राम के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी ।

महाराजा रणजीत सिंह ने प्राणसुख यादव के लिए " रणबांकुरे " शब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने आगे कहा कि प्राणसुख सूर्य की तरह चमकते थे, उनकी लंबी और अच्छी मूंछें और दाढ़ी भी थी, और उनका शरीर 7.5 "फुट का विशाल था और छाती का फैलाव 38 अंगुल यानी 56 इंच था और वे चामुंडा और महादेव के महान भक्त थे ।

अपने शुरुआती करियर में उन्होंने सिख खालसा सेना को प्रशिक्षित किया। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, अंग्रेजों के प्रति उनकी अत्यधिक नफरत के कारण, उन्होंने पहले और दूसरे एंग्लो-सिख युद्धों में लड़ाई लड़ी। उन्होंने अहीरवाल क्षेत्र के किसानों को सैन्य प्रशिक्षण देना भी शुरू किया।

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प्राण सुख यादव का प्रारंभिक जीवन

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प्राण सुख के पिता हरि सिंह नलवा के मित्र थे। उनके जन्म के समय उनके पिता बंगाल युद्ध में लड़ रहे थे। 5 वर्ष की आयु में ही अपने पिता की देख-रेख में उन्होंने युद्ध कला सीखने के साथ-साथ कुशल युद्ध रणनीतियां भी बनानी सीखीं। यह उनके पिता की शिक्षा और ज्ञान की देन थी कि वे सत्रह वर्ष की छोटी सी आयु में हरि सिंह नलवा की सेना के सेना प्रमुख बन गए।

प्राण सुख यादव के वंशजों में राव जय दयाल यादव, गांव निहालपुरा, नीमराणा का शाही परिवार शामिल है। उनके परपोते देव व्रत यादव राजस्थान उच्च न्यायालय के एक प्रख्यात वकील हैं। स्वतंत्र भारत में रियासत के विलय के बाद , राव जय दयाल यादव ने अहीरवाल क्षेत्र का विकास किया और पश्चिमी शिक्षा सुविधाओं को जमीनी स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कश्मीरी मुसलमानों के साथ संघर्ष

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प्राणसुख अपने पिता की अनुपस्थिति में अकेले ही हिमाचल प्रदेश के नैनीखड्ड (तब पंजाब) में घूमने निकल पड़े । नैनीखड्ड कश्मीर के बहुत करीब का गांव है। गांव से दूर प्राणसुख को जंगल दिखाई दिया। जंगल के रास्ते में उन्हें एक सैन्य छावनी दिखी जिसने उनसे जंगल में आने का कारण पूछा।

प्राणसुख साहब ने जोरदार अंदाज में जवाब दिया कि "यह हमारा इलाका है, आप कौन हैं और यहां क्यों आए हैं? कारण बताओ।" सिपाही ने जवाब दिया "यह कश्मीर है और हम महमूद शाह दुर्रानी के सिपाही हैं ।"

प्राणसुख कुछ समझ पाते, उससे पहले ही मुस्लिम सेनापति ने अपने तीस सैनिकों के साथ प्राणसुख पर हमला कर दिया। अपने पिता द्वारा दिए गए हथियार के ज्ञान से उसने तुरंत मोर्चा संभाला और सभी तीस सैनिकों को मार गिराया। सैनिकों के साथ प्राण साहब की लड़ाई देखकर सेनापति भागने लगा। प्राणसुख ने उसका पीछा किया और अंत में उसने भाला फेंका और भाला उसके सीने को पार करते हुए पेड़ के तने में जा लगा।

प्राणसुख साहब मात्र बारह वर्ष के थे जब उन्होंने नरसंहार किया।

पखली की लड़ाई

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अब प्राणसुख जी 17 वर्ष के हो गए, और कश्मीरी मुसलमानों की क्रूरता फिर से बढ़ने लगी, सिख साम्राज्य भी एक छोर से लड़ रहा था। चूंकि साहिब के पिता नलवा के मित्र थे, इसलिए उन्होंने नलवा से कहा कि वे प्राणसुख के साथ अहीरवाल के सभी युद्धप्रिय यादव ठिकानों के सरदारों को देश के कल्याण के लिए दूसरे छोर से युद्ध में सिखों की मदद करने के लिए भेजें।

इसलिए कश्मीर पर शासन कर रहे मुस्लिम शासक पर हमला करने का समय आ गया। हरि सिंह नलवा ने प्राणसुख साहिब को अपना सेनापति नियुक्त किया।

मोर्चे पर यादवों और सिखों की सेना का नेतृत्व कर रहे प्राणसुख ने खौफनाक अंदाज में तलवार लहराई कि विरोधी खेमा पहले ही पीछे हट गया। युद्ध के बाद कई छोटी-छोटी कश्मीरी रियासतें नलवा में शामिल हो गईं ।

इस युद्ध के बाद सिख साम्राज्य के लिए अफगानिस्तान और ईरान पर शासन करने का द्वार खुल गया ।

प्रथम आंग्ल सिख युद्ध

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प्राणसुख जी ने अहीरवाल के तमाम युद्धप्रिय अहीर योद्धाओं की टोली के साथ मिलकर दोनों एंग्लो-सिख युद्धों में ब्रिटिश सेना का बहादुरी से विरोध किया। पहला युद्ध उनके नाम ही रहा, जिसमें उनकी बहादुरी को देखकर लंदन की महारानी ने उन्हें एशिया में अपना सेनापति बनने की पेशकश की जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि, " क्षत्रिय, सिंह और तलवारे आज़ादी से चलते हुए बेहतर अधिकारी हैं। " शेर-ए-पंजाब की मृत्यु के बाद भी प्राणसुख साहब युद्ध के मैदान में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे।

रणजीत सिंह ने उनकी प्रशंसा में कहा था कि:- जब हम रणनीति पर अमल करने के बारे में सोच रहे थे तब तक प्राणसुख ने अकेले ही सौ से अधिक सैनिकों को मार गिराया था। नलवा के अधीन उनके शासन में , जब सैनिकों और अन्य सेनाओं के कमांडर को पता चला कि यादव युद्ध के मैदान में है, तो कई सैनिक भाग गए। नलवा ने उनकी प्रशंसा में कहा:- "यदि युद्ध के दौरान सैनिक युद्ध के मैदान से भागने लगें तो हो सकता है कि प्राणसुख भी मैदान में हो"।

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में प्राण सुख यादव ने 25 हजार सैनिकों के विरुद्ध मात्र 6 हजार सैनिकों की बटालियन का नेतृत्व कर जो वीरता दिखाई, वह इतिहास के पन्नों में अमर हो गई।

1857 की क्रांति

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1857 की क्रांति में, राव तुलाराम व प्राण सुख यादव नसीब पुर के युद्ध में ब्रिटिश सेना से लड़े थे।[6][7] राव तुला राम उसके बाद सैन्य सहायता हेतु रूस गए जहाँ रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गयी।[8]

एरीपुरा रेजीमेंट में बगावत की खबर पाकर प्राण सुख यादव ने जोधपुर लेजियन के कमांडर से संपर्क किया व तय किया कि नारनौल में ब्रिटिश सेना से लड़ने का यही सही समय है। वह एक कुशल सेना नायक व रननीतिज्ञ थे, बहादुरी से लड़ते हुये उन्होने कर्नल गेरार्ड अपनी पसंदीदा राइफल से मार गिराया था। उन्होने जब लाल कोट पहने कर्नल पर निशाना साधा जिसके बाकी के सैनिक खाकी वर्दी में थे, पहली बार उनका निशाना चूक गया था परंतु दूसरी बार सही लगा व कर्नल गेरार्ड नारनौल में मारा गया। यद्यपि भारतीय इस लड़ाई में हार गए थे, प्राण सुख बाकी के बागियों के साथ दो-तीन साल तक छिपे रहे व बाद में अपने पैतृक गाँव अलवर (राजस्थान) जिले के निहालपुर में आकर वापस बस गए।[9] अपने आखिरी वर्षों में वह आर्य समाज के अनुयायी बन गए थे।[10][11][12]

प्रसिद्ध लड़ाइयाँ

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  1. पखली की लड़ाई
  2. प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध
  3. द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध
  4. मीरपुर की लड़ाई
  5. राजौरी की लड़ाई
  6. बारामूला की लड़ाई
  7. धमतौर का युद्ध
  8. गांधीगढ़ का युद्ध
  9. जमरूद की लड़ाई
  10. नसीबपुर की लड़ाई
  11. मनकेरा की घेराबंदी

संदर्भ सूत्र

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  1. "Pran: Pran News in Hindi, Videos, Photo Gallery – IBN Khabar". khabar.ibnlive.com. ibnlive.com. मूल से 22 अगस्त 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 July 2016.
  2. Books, Hephaestus (2011). Revolutionaries of Indian Rebellion of 1857, Including: Rani Lakshmibai, Bahadur Shah II, Nana Sahib, Mangal Pandey, Tantya Tope, Begum Hazrat Mahal, Azimullah Khan, Bakht Khan, Rao Tula RAM, Raja Nahar Singh, Jhalkaribai, Mirza Mughal, Pran Sukh Yadav (अंग्रेज़ी में). Hephaestus Books. पृ॰ Book title. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781242761577. मूल से 21 अगस्त 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 July 2016.
  3. "13th November 1780: Maharaja Ranjit Singh, founder of the Sikh Empire, was born". mapsofindia.com. मूल से 7 नवंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 February 2016.
  4. Nayyar, Gurbachan Singh; Bureau, Punjabi University Publication (1995). The campaigns of General Hari Singh Nalwa (अंग्रेज़ी में) (1st ed. संस्करण). Patiala: Punjabi University. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788173801419. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 July 2016.सीएस1 रखरखाव: फालतू पाठ (link)
  5. Six Battles for India: The Anglo-Sikh Wars, 1848-6, 1848-9 (अंग्रेज़ी में). Arthur Barker Limited. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 July 2016.
  6. M.K. Singh (2009). Encyclopaedia Of Indian War Of Independence (1857-1947) (Set Of 19 Vols.). Anmol Publications Pvt. Ltd,. पृ॰ 80. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788126137459. मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 जुलाई 2016.सीएस1 रखरखाव: फालतू चिह्न (link)
  7. "Revolutionary Movements in India and their Aims" (PDF). shodhganga. shodhganga. पृ॰ 21. मूल से 3 मार्च 2016 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 26 February 2016.
  8. Saran, Renu (2008). Freedom Struggle of 1857 (अंग्रेज़ी में). Delhi: Diamond Pocket Books Pvt Ltd. पृ॰ THE REVOLT. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789350830659. मूल से 21 अगस्त 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 July 2016.
  9. Antiques International. "ALWAR INDIA PRINCELY STATE VICTORIA EMPRESS SILVER ONE RUPEE 1880". Antiques International. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 February 2016.
  10. "Modern Indian Political Thought" (PDF). Rai Technology University. Rai Technology University e-content. पृ॰ 199. मूल (PDF) से 8 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 March 2016.
  11. "Maharshi Dayanand Saraswati Rishi Gatha". Youtube. अभिगमन तिथि 26 February 2016.
  12. Jawaharlal Nehru University, Centre for Historical Studies (1997). Studies in History Vol 13 (अंग्रेज़ी में). नई दिल्ली: Sage. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 July 2016.