अहीरवाल

भारत का क्षेत्र
अहीरवाल क्षेत्र
अहीरवाल
गुजरवाल एक ऐसा क्षेत्र है जो दक्षिणी हरियाणा और उत्तर-पूर्वी राजस्थान के हिस्सों में फैला हुआ है, जो भारत के वर्तमान राज्य हैं। यह क्षेत्र एक बार रेवाडी के शहर से नियंत्रित रियासत थी और मुगल साम्राज्य के सहयोग से ओर पतन और बाद में शासन किया समुदाय के सदस्यों द्वारा नियंत्रित था।

। जेई श्वार्ट्ज़बर्ग ने इसे "लोक क्षेत्र" और लुसिया माइकलुट्टी को "सांस्कृतिक-भौगोलिक क्षेत्र" के रूप में वर्णित किया है। .. जिसमें राजस्थान के अलवर, भरतपुर और हरियाणा राज्य में गुड़गांव महेंद्रगढ़ शामिल हैं। दक्षिणी हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र में तीन विधानसभा क्षेत्रों में फैले 11 विधानसभा क्षेत्रों - भिवानी-महेंद्रगढ़, गुड़गांव और रोहतक (केवल एक खंड) में अहीर मतदाताओं की बढ़िया उपस्थिति है।[उद्धरण चाहिए]

अहिरवाल के अहीरो की विदेशी और दिल्ली के शासकों को बार बार टक्कर देने के कारण इस क्षेत्र को "भारत का इस्राइल " भी कहते हैं।

वीर भूमि गुजरवाल में यह कहावत बहुत प्रसिद्ध हैं।cn
उपनाम: अहीर बाल्ट
अहीरवाल क्षेत्र is located in पृथ्वी
अहीरवाल क्षेत्र
अहीरवाल क्षेत्र
देश भारत
राज्यहरियाणा, राजस्थान, दिल्ली
ज़िलेअलवर, महेंद्रगढ़, गुरुग्राम, दक्षिण पश्चिम दिल्ली, रेवाड़ी, कोटपुतली , नीम का थाना , झज्जर , अलवर , नारनौल ,कोसली
राजधानीमहेन्द्रगढ़
भाषा
मुख्य जातियों
लोक सभा चुनाव-क्षेत्रपांच
प्रथम दिल्ली के मुख्यमंत्रीचौधरी ब्रह्म प्रकाश यादव
द्वितीय हरियाणा के मुख्यमंत्रीराव बिरेंद्र सिंह यादव

राव शासक संपादित करें

राव रूड़ा सिंह संपादित करें

तिजारा के एक अहीर शासक राव रूड़ा सिंह ने रेवाड़ी के जंगलो को साफ करवा कर नए गावों की स्थापना की थी और रेवाड़ी को राजधानी बनाया था। राव रूड़ा सिंह का नाम राव रुद्र सिंह था बोलचाल की भाषा में रूड़ा सिंह बोला जाने लगा। हुमायू ने भी राव रुद्र सिंह को क्षत्रिय धर्म की दुहाई दे कर सामरिक सहायता मांगी थी। [1][2][3][4] रूड़ा सिंह ने रेवाड़ी से दक्षिण पूर्व में 12 किलोमीटर दूर बोलनी गाँव को अपना मुख्यालय बनाया।[5] उन्होंने जंगलों को साफ करवा कर नवीन गावों की स्थापना की। [6][7]

राव मित्रसेन अहीर संपादित करें

राव मित्रसेन, राव तुलसीराम के पुत्र थे तथा चंद्रवंशी अहीर शासक थे जिन्होंने रेवाड़ी पर राज किया।[8] राव राजा मित्रसेन ने मुस्लिम आक्रमणकारियो, अंग्रेज़ो, जयपुर के कछवाहा व शेखावत राजपूत इत्यादि से युद्ध किया।[9] रेवाड़ी से बदला लेने के उद्देश्य से, सन 1781 के प्रारम्भिक महीनो में जयपुर के राजपूत शासकों ने रेवाड़ी पर हमला बोल दिया, परंतु वे राव मित्रसेन से हार गए और सामरिक दृष्टिकोण से उन्हे भारी नुकसान झेलना पड़ा।[8][10]

राव राम सिंह संपादित करें

रूड़ा सिंह के बाद, उनके पुत्र राव राम सिंह (रामोजी) ने रेवाड़ी की गद्दी को सँभाला। उनके राज्य में डाकुओं व लुटेरों के कारण भय व असंतोष का माहौल था। राम सिंह ने बोलनी में एक दुर्ग का निर्माण किया तथा सुरक्षा हेतु उसपर सैनिक तैनात किए। वह एक निडर योद्धा थे अतः एक लंबे संघर्ष के बाद अपराधियों को बेअसर करने में सफल हुए। दो मशहूर डाकुओं को गिरफ्तार करके उन्होंने सम्राट अकबर के हवाले किया। राम सिंह के इस साहसपूर्ण कार्य से प्रसन्न होकर मुग़ल सम्राट ने उन्हें दिल्ली सूबे की रेवाड़ी सरकार का फौजदार नियुक्त कर दिया। राम सिंह अकबर व जहाँगीर के काल में रेवाड़ी की गद्दी पर आसीन रहे।[3][6] सन 1785 में राव राम सिंह ने रेवाड़ी पर मराठा आक्रमण को विफल किया। राव मित्रसेन की मृत्यु के बाद मराठों ने रेवाड़ी पर पुनः आक्रमण किया परंतु वे राव राम सिंह से जीत नहीं पाये।[8] परंतु राव राम सिंह लड़ते हुए शहीद हो गए।[10]

राव शाहबाज सिंह संपादित करें

राव राम सिंह के बाद उनके पुत्र व उत्तराधिकारी, शाहबाज़ सिंह राजा बने, जो कि शाहजहाँ व औरंगज़ेब के समकालीन थे।[3] राव एक महान योद्धा थे तथा धाना के बढगुजर, हाथी सिंह नामक डाकू के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए।[6]

राव नंदराम सिंह व राव मान सिंह संपादित करें

शाहबाज सिंह के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र नंदराम राजा बने।[3][6] औरंगज़ेब ने उनकी जागीर का हक संपादित कर उन्हें "चौधरी" के खिताब से सम्मानित किया।[11] उन्होंने अपना मुख्यालय बोलनी से रेवाड़ी में स्थानांतरित किया। रेवाड़ी में नन्द सागर नामक जल संग्राहक आज भी उनकी स्मृति का द्योतक है। भरतपुर के तत्कालीन राजा ने डाकू हाथी सिंह को अपनी सेवा में लगा लिया था, तथा हाथी सिंह की बढती हुयी शक्ति नंदराम व उनके भाई मान सिंह के लिए असहनीय थी। बाद में दोनों भाइयों ने मिलकर हाथी सिंह को आगरा में मार गिराया तथा अपने पिता की मौत का बदला लिया। नंदराम सन 1713 में मृत्यु को प्राप्त हुए तथा राज्य की बागडोर उनके ज्येष्ठ पुत्र बलकिशन को सौंपी गयी।[6]

राव बाल किशन संपादित करें

बालकिशन औरंगज़ेब की सैन्य सेवा में रहते हुए 24 फरवरी 1739 को करनाल युद्ध में नादिर शाह के विरुद्ध लड़ते हुए मारे गए। उनकी बहादुरी से खुश होकर मोहम्मद शाह ने बालकिशन के भाई गुजरमल को "राव बहादुर" का खिताब दिया तथा 5000 की सरदारी दी।[3] उनके राज्य की सीमा का विस्तार करके उसमें हिसार जिले के 52 गाँव व नारनौल के 52 गाँव जोड़े गए। उनकी जागीर में रेवाड़ी, झज्जर, दादरी, हांसी, हिसार, कनौद, व नारनौल आदि प्रमुख नगर शामिल थे। सन 1743 में 2,00,578 रुपए कि मनसबदारी वाले कुछ और गाँव भी जोड़ दिये गए।[6]

राव गुजरमल सिंह संपादित करें

फर्रूखनगर का बलोच राजा व हाथी सिंह का वंशज घसेरा का बहादुर सिंह दोनों राव गुजरमल के कातर शत्रु थे। बहादुर सिंह, भरतपुर के जाट राजा सूरजमल से अलग होकर स्वतंत्र शासन कर रहा था। तब राव गुजरमल ने सूरजमल के साथ मिलकर उसे मुहतोड़ जवाब दिया। गुजरमल का बहादुर सिंह के ससुर नीमराना के टोडरमल से भी मैत्रीपूर्ण सम्बंध था। सन 1750 में, टोडरमल ने राव गूजरमल को बहादुर सिंह के कहने पर आमंत्रित किया ओर धोखे से उनका वध कर दिया। अहीर परिवार की शक्ति राव गुजरमल के समय में चरम सीमा पर थी। गुरावडा व गोकुल गढ़ के किले इसी काल की देन है। गोकुल सिक्का मुद्रा का प्रचालन इसी काल में किया गया। अपने पिता के नाम स्तूप व जलाशय का भी निर्माण गूजरमल ने करवाया था। उन्होने मेरठ के ब्रहनपुर व मोरना तथा रेवाड़ी में रामगढ़, जैतपुर व श्रीनगर गावों की स्थापना की थी।[6][12]

राव भवानी सिंह संपादित करें

राव गुजरमल का पूत्र भवानी सिंह उनके बाद राजा बना। भवानी सिंह आलसी ब नकारा साबित हुआ। उसके राज्य के कई हिस्सों पर फर्रूखनगर के बलोच नवाब, झज्जर के नवाब व जयपुर के राजा का कब्जा हो गया और भवानी सिंह के पास मात्र 22 गाँव ही शेष बचे। उसी के राज्य के एक सरदार ने 1758 में उसका वध कर दिया।[6]

राव तेज़ सिंह संपादित करें

अगला राजा हीरा सिंह भी नकारा था और राज काज का नियंत्रण एक स्थानीय व्यवसायी जौकी राम ने हथिया लिया था। दिल्ली के एक बागी सरदार नजफ़ कुली खान ने गोकुलगढ़ किले पर कब्जा जमा लिया था। दिल्ली के सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बेगम समरू के साथ मिलकर उसे दंडित करने की ठान ली। 12 मार्च 1788 को, भाड़ावास में शाह आलम ने डेरा डेरा जमाया व रात के समय नजफ़ कुली पर हमला बोल दिया जिसमें नजफ़ कुली को भरी नुकसान पहुँचा। बेगम समरू के तोपखाने के असर से कुली खान समझौते के लिए मजबूर हो गया।[6]

जौकी राम की प्रभुता पूरे राज्य के लिए असहनीय थी। तब रेवाड़ी के राव के एक रिश्तेदार तेज़ सिंह जो कि तौरु के शासक थे, राव राम सिंह कि माता के अनुरोध पर सामने आए। उन्होंने रेवाड़ी पर हमला किया व जौकी राम को मौत के घाट उतार दिया और खुद की सत्ता स्थापित की।[6][13]

बाद में, 1803 में तेज सिंह व उनका सम्पूर्ण राज्य ब्रिटिश हुकूमत ने अपने कब्जे में ले लिया और तेज़ सिंह के पास मात्र 58 गाँव ही शेष बचे। 1823 में उनकी मौत के बाद उनकी सम्पत्ति उनके तीन पुत्रों पूरन सिंह, नाथु राम व जवाहर सिंह के हाथों में आयी। जवाहर सिंह के कोई संतान नहीं थी। पूरन सिंह व नाथु राम के बाद उनके राज्य के उत्तराधिकारी उनके पुत्र तुलाराम व गोपालदेव बने।[6]

राव तुलाराम सिंह संपादित करें

 
अहीरवाल नरेश राव तुलाराम सिंह

राजा राव तुलाराम सिंह ( 9 दिसंबर 1825 – 1863), एक अहीर शासक थे,[14][15] वह ॰हरियाणा में 1857 की स्वतन्त्रता क्रांति के प्रमुख नायक थे।[16] अस्थायी रूप से ब्रिटिश शासन की जड़ें वर्तमान के दक्षिण पश्चिम हरियाणा से उखाड़ फेकने तथा दिल्ली के क्रांतिकारियों की तन, मन, धन से मदद का श्रेय तुलाराम को ही दिया जाता है। 1857 की क्रांति के बाद उन्होंने भारत छोड़ दिया व भारत की आज़ादी के युद्ध हेतु अफगानिस्तान, ईरान के शासकों व रूस के जारों की मदद मांगी। परंतु उनकी यह योजना 23 सितम्बर 1863 में 38 वर्ष कि अल्पायु में उनकी मृत्यु के कारण असफल रही। [17]

राव गोपालदेव सिंह संपादित करें

 
राव गोपालदेव, रेवाड़ी

राव गोपालदेव सिंह रेवाड़ी में 19वी शताब्दी के क्रांतिकारी थे,[18] जिन्होंने अपने चचेरे भाई राव तुलाराम सिंह[19] के साथ मिलकर, 1857 की क्रांति में अंग्रेज़ों से लोहा लिया।[20]

राव किशन गोपाल संपादित करें

राव तुलाराम सिंह के अनुज राव किशन गोपाल उनकी रेवाड़ी की सेना के सेनापति थे।[6] वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी में भी अधिकारी थे।[21] अहीर वीर राव किशन गोपाल के नेतृत्व में मेरठ में स्वतन्त्रता संग्राम आरंभ हुआ था तथा नसीबपुर के युद्ध में उन्होने ही जनरल टिमले को मारा था।[22]

प्राण सुख यादव संपादित करें

प्राण सुख यादव (1802–1888) अपने समय का एक सैन्य कमांडर थे [23] वह 1857 की क्रांति में भागीदार क्रांतिकारी थे।[24] वह हरि सिंह नलवा और प्रसिद्ध पंजाब शासक महाराजा रणजीत सिंह के करीबी मित्र थे। अपने पूर्व के समय में वह सिख खालसा सेना की तरफ से लड़ते थे।[25][26] महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद उन्होने प्रथमद्वितीय ब्रिटिश-सिख संघर्ष में भागीदारी निभाई।[27] सिखों की हार के बाद अंग्रेजों के प्रति उनके अत्यधिक नफरत के कारण उन्होंने अहीरवाल (अलवर, रेवाड़ी, नारनौल, और महेंद्रगढ़) क्षेत्र के किसानों को सैन्य प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। 1857 के विद्रोह में, राव तुलाराम सिंह के साथ प्राण सुख यादव ने नसीबपुर में ब्रिटिश सेना से लड़ाई लड़ी।[28]

अहीरवाल के किसान संपादित करें

अहीरवाल क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में कृषि समुदायों का वर्चस्व है। अहीरवाल के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रमुख कृषक समुदाय हैं और ये क्षेत्र के लिए आय का सबसे बड़ा स्रोत भी हैं। यादव (अहिर) इस क्षेत्र में सबसे बड़ी एकल जाति (20 प्रतिशत) हैं[उद्धरण चाहिए] और इसके शासक भी रहे हैं, क्षेत्र में गुज्जर, राजपूत, जाट और दलित भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय लगभग 10% है, मुख्यतः रंगारों, मेव, जाट, गुज्जर और दलित हैं। विभाजन के पहले क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्रों में 20% मुस्लिम आबादी थी, जिनमें से अधिकांश पाकिस्तान चाले गए हैं।[उद्धरण चाहिए]

ब्रिटिश औपनिवेशिक एच. ए. रोस, हेनरी एम. इलियट, डब्लू. ई. पेर्सर, हर्बर्ट चार्ल्स फोन्सवे और डेंज़िल चार्ल्स जे. इबेट्सन लेखकों ने लिखा है कि "अहीरवाल के अहीर कृषकों में पहले रैंक का किसान हो सकता हैं, वे अपनी अच्छी खेती प्रसिद्ध है "।[29]

अहीर के बारे में उनकी आम राय यह थी -

अहीरवाल का अहीर, खेती की तद्बीर

अर्थ - अहीरवाल के अहीर अपनी कुशल खेती के लिए प्रसिद्ध हैं।[30][31]

वे किरकिरा भूमि को भी बदल सकते हैं समृद्ध और फलदायी देश में। [32][33]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Man Singh, Abhirkuladipika Urdu (1900) Delhi, p.105, Krishnanand Khedkar, the Divine Heritage of the Yadavas, pp. 192-93; Krishnanand, Ahir Itihas, p.270
  2. K.C. Yadav, 'History of the Rewari State 1555-1857; Journal of the Rajasthan Historical Research Society, Vol. 1(1965), p. 21
  3. S. D. S. Yadava (2006). Followers of Krishna: Yadavas of India. Lancer Publishers,. पृ॰ 82. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170622161.सीएस1 रखरखाव: फालतू चिह्न (link)
  4. Man Singh, Abhirkuladipika Urdu (1900) Delhi, p.105,106
  5. Krishnanand Khedkar, the Divine Heritage of the Yadavas, pp. 192-93; Krishnanand, Ahir Itihas, p.270.
  6. District Administration, Mahendragarh. "Mahendragarh at A Glance >> History". District Administration, Mahendragarh. india.gov.in. मूल से 23 अप्रैल 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 April 2015.
  7. Man Singh, op. cit., 1900. pp. 105-6
  8. Man Singh, Abhirkuladipika (Urdu), 1900, Delhi p. 123
  9. Man Singh, Abhirkuladipika (Urdu), 1900, Delhi, pp. 292-93
  10. Krishnanand Khedkar, The Divine Heritage Of the Yadavas, p. 193
  11. Lucia Michelutti (2002). "Sons of Krishna: the politics of Yadav community formation in a North Indian town" (PDF). PhD Thesis Social Anthropology. London School of Economics and Political Science University of London. पृ॰ 83. मूल से 21 मई 2015 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 10 June 2015.
  12. S. D. S. Yadava (2006). Followers of Krishna: Yadavas of India. Lancer Publishers. पृ॰ 51. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170622161.
  13. S. D. S. Yadava (2006). Followers of Krishna: Yadavas of India. Lancer Publishers. पपृ॰ 52, 53, 54. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170622161.
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  15. S. C. Bhatt, Gopal K. Bhargava (2006). Land and People of Indian States and Union Territories: In 36 Volumes. Haryana. Kalpaz Publications, Delhi. पृ॰ 341. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788178353562. मूल से 23 जून 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 मई 2017.
  16. "Republic Day Celebrations". The Tribune. January 28, 2008. मूल से 14 फ़रवरी 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 मई 2017.
  17. Haryana (India) (1988). Haryana District Gazetteers: Mahendragarh. Haryana Gazetteers Organization. मूल से 15 जनवरी 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 September 2012.
  18. S. D. S. Yadava (2006). Followers of Krishna: Yadavas of India. Lancer Publishers. पृ॰ 54. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170622161.
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  21. S. D. S. Yadava (2006). Followers of Krishna: Yadavas of India. Lancer Publishers. पृ॰ 82. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170622161.
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