भैरव प्रसाद गुप्त
भैरव प्रसाद गुप्त (1918-1995) हिन्दी साहित्य के, प्रगतिशील विचारधारा के, कहानीकार एवं उपन्यासकार तथा प्रख्यात सम्पादक थे। विशेषत: 'कहानी' एवं 'नयी कहानियाँ' पत्रिकाओं के संपादन द्वारा उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक मानदंड भी कायम किया तथा लंबे समय तक नयी कहानी आन्दोलन के संचालन में प्रशंसनीय योगदान भी दिया।
जीवन-परिचय
संपादित करेंभैरव प्रसाद गुप्त का जन्म 7 जुलाई 1918 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सिवानकलाँ नामक गाँव में हुआ था। प्राथमिक विद्यालय में जाने से पूर्व उन्हें महाजनी की शिक्षा दी गयी। उस दौर में इस प्रकार के महाजनी स्कूल गाँवों में चलते थे जिनमें बनियों-महाजनों के बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जो उन्हें दुकानदारी के हिसाब किताब में मदद पहुँचा सके।[1] उच्च शिक्षा के लिए वे इर्विन कॉलेज इलाहाबाद गये। वहाँ वे शिवदान सिंह चौहान, जगदीश चन्द्र माथुर, गंगा प्रसाद पांडे, राजबल्लभ ओझा आदि साहित्यकारों के संपर्क में आये। ये लोग हिंदी साहित्य परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता थे। इलाहाबाद और उन साथियों के बीच भैरव प्रसाद गुप्त की साहित्यिक और राजनीतिक अभिरुचियों का विकास हुआ।[2] स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा अर्जित करने वाले भैरव प्रसाद गुप्त ने अपना कैरियर दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचारक के रूप में आरम्भ किया। सन् 1938 से सन् 1940 तक वे मद्रास स्थित 'हिन्दी प्रचारक महाविद्यालय' में कार्यरत रहने के बाद 1942 तक त्रिचिरापल्ली में अध्यापन किया और वहीं आकाशवाणी में भी सेवाएँ दीं। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौर में उन्हें सेंट्रल आर्डनेंस डिपो, कानपुर में काम करना पड़ा। आगे चलकर सन् 1944-1954 की अवधि में उन्होंने माया और मनोहर कहानियाँ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। इसके बाद वे पूरी तरह से साहित्यिक पत्रिका ’कहानी' (1954-1960) और ‘नयी कहानियाँ'(1960-1963) के संपादन में दत्तचित्त रहे। बाद में वे स्वतंत्र लेखन के अतिरिक्त 1974 से 1980 तक मित्र प्रकाशन, इलाहाबाद के परामर्शदाता रहे। उनका निधन 7 अप्रैल 1995 को अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) में हुआ।
सम्पादन
संपादित करेंभैरव प्रसाद गुप्त ने अपने जीवन का एक प्रमुख भाग संपादन के प्रति समर्पित किया। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनके लेखक रूप से भी कहीं अधिक महत्त्व उनके संपादक रूप को दिया जाता है। 'माया' एवं 'मनोहर कहानियाँ' से लेकर 'नयी कहानियाँ' तक उन्होंने संपादन के अनेक कीर्तिमान बनाये।
मनोहर कहानियाँ
संपादित करेंएक संपादक के रूप में भैरव प्रसाद गुप्त ने अपने कैरियर की शुरुआत सन् 1944 में मित्र प्रकाशन की पत्रिकाओं -- 'माया' एवं 'मनोहर कहानियाँ' के संपादकीय विभाग में कार्य करने से किया। उन्होंने 'माया' के संपादकीय विभाग में काम किया और 'मनोहर कहानियाँ' का संपादन किया। 1953 ई० तक वे वहाँ रहे। इसके बाद अपने दूसरे दौर में भी सन '75 से '80 के बीच उन्होंने इसके संपादकीय विभाग में कार्य किया। जिस समय गुप्त जी इस विभाग से जुड़े उस समय 'माया' और 'मनोहर कहानियाँ' मूलतः मनोरंजनधर्मा हल्की-फुल्की कहानियों की पत्रिकाएँ थीं जिनका गंभीर और सुरुचि संपन्न पाठकों के बीच कोई मान नहीं था। गुप्त जी ने प्रेमचन्द के एक संबंधी राजेश्वर प्रसाद सिंह के साथ मिलकर संपादन करते हुए इन पत्रिकाओं की प्रकृति ही बदल डाली। हिन्दी के प्रायः सभी महत्वपूर्ण कहानीकारों को उन्होंने इनसे जोड़ा और महत्वपूर्ण विदेशी कहानियों के अनुवाद की शुरुआत की। उनका अपना पहला उपन्यास 'शोले' भी धारावाहिक रूप से मनोहर कहानियाँ में ही प्रकाशित हुआ था और छह महीने में ही पत्रिका का सर्कुलेशन दुगुना हो गया था।[3] उनके इसके संपादन से अलग रहने के समय (सन् 1973 में) अधिक व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से 'मनोहर कहानियाँ' को सत्य कथाओं पर केंद्रित कर दिया गया।[4]
कहानी
संपादित करेंकहानी पत्रिका सन् 1938 से ही सरस्वती प्रेस से श्रीपत राय के संपादन में निकल रही थी।[5] भैरव प्रसाद गुप्त सन् 1955 में इसके संपादन से जुड़े और 1960 तक इसका संपादन करते रहे। "सन् '55 और सन् '56 में प्रकाशित उसके वार्षिक अंक अपने ऐतिहासिक महत्व के कारण आज भी मील के पत्थर के रूप में स्वीकृत हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं के महत्त्वपूर्ण कहानीकारों को एक मंच पर लाने का काम कहानी ने किया।"[6] बाद में नीतिगत मतभेद के कारण उन्हें कहानी के संपादन से अलग होना पड़ा। इस संबंध में उन्होंने स्वयं लिखा है:
"1959 के अंत में श्रीपत राय ने रामनारायण शुक्ल के सहयोग से 'कहानी' को एक व्यावसायिक पत्रिका बनाने का निर्णय लिया। मुझे जब यह मालूम हुआ तो मैंने 1 जनवरी 1960 को इस्तीफ़े के साथ पंद्रह दिन का नोटिस दे दिया। श्रीपत राय ने मुझे 13 जनवरी को ही पंद्रह दिन की तनख़्वाह दे कर मुक्त कर दिया...।"[7]
नयी कहानियाँ
संपादित करेंकहानी पत्रिका से मुक्त होते ही उन्होंने राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने वाली 'नयी कहानियाँ' का संपादन सँभाला। वस्तुतः उनके 'कहानी' पत्रिका में रहते हुए ही राजकमल प्रकाशन के तत्कालीन प्रबन्ध निदेशक ओम प्रकाश कहानी-केंद्रित पत्रिका निकालने की योजना बना रहे थे और एक सक्षम संपादक के रूप में स्वभावतः भैरव प्रसाद गुप्त इस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। अतः 'कहानी' पत्रिका से मुक्ति के दिन ही उन्हें राजकमल प्रकाशन दिल्ली से ओमप्रकाश का तार मिला, जिसमें उनसे कहीं और नियुक्ति न लेने का अनुरोध किया गया, क्योंकि अगले दिन ही वे बात करने के लिए इलाहाबाद आ रहे थे। 14 जनवरी को ओमप्रकाश इलाहाबाद आये, भैरव प्रसाद गुप्त से बात हुई और 15 जनवरी को ही उन्होंने 'नयी कहानियाँ' का संपादन-भार संभाल लिया।[8]
भैरव प्रसाद गुप्त का योगदान कहानी तथा नयी कहानियाँ के संपादक के रूप में नयी कहानी आंदोलन के संचालन के अतिरिक्त कहानी के गुणात्मक विकास तथा कहानी-समीक्षा को गुणात्मक रूप से विकसित करने में अहम भूमिका निभाने के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। मार्कण्डेय के शब्दों में:
"प्रेमचन्द के बाद से कथा-साहित्य के पूरे विकास के लंबे दौर में शायद यह पहला अवसर था जब कथा-समीक्षा को एक वैज्ञानिक समीक्षा प्रणाली देने के गंभीर प्रयास हुए। 'नयी कहानियाँ' में दो स्तम्भ शुरू हुए -- 'हाशिए पर' तथा 'जो लिखा जा रहा है'। एक नामवर सिंह लिखते रहे और दूसरा मैं।"[9]
जनवरी 1963 तक उन्होंने 'नयी कहानियाँ' का संपादन किया और एक बार फिर नीतिगत मतभेद के कारण ही इसके संपादन से भी हट गये।
'समारम्भ' एवं 'प्रारम्भ'
संपादित करें'नयी कहानियाँ' से अलग होने के बाद भैरव प्रसाद गुप्त ने अपनी स्वतंत्र पत्रिका के रूप में जनवरी-मार्च 72 अंक के रूप में 'समारम्भ' निकाला। फिर सन् 73 में इसका दूसरा और अंतिम अंक 'प्रारम्भ' के नाम से प्रकाशित हुआ। आर्थिक कठिनाइयों के कारण आगे वे पत्रिका नहीं निकाल पाये।
लेखन-कार्य
संपादित करेंप्रकाशित कृतियाँ
संपादित करें- उपन्यास-
- शोले - १९४६
- मशाल - १९४८
- गंगा मैया - १९५२
- जंजीरें और नया आदमी - १९५४
- सतीमैया का चौरा - १९५९
- धरती - १९६२
- आशा - १९६३
- कालिन्दी - १९६३
- अन्तिम अध्याय - १९७०
- नौजवान - १९७२
- एक जीनियस की प्रेमकथा - १९८०
- सेवाश्रम - १९८३
- काशी बाबू - १९८७
- भाग्य देवता - १९९२
- अक्षरों के आगे (मास्टरजी) - १९९३
- छोटी सी शुरुआत - १९९७ (मरणोपरांत प्रकाशित)
- कहानी-संग्रह-
- मुहब्बत की राहें - १९४५
- फरिश्ता - १९४६
- बिगड़े हुए दिमाग - १९४८
- इंसान - १९५०
- सितार का तार - १९५१
- बलिदान की कहानियाँ - १९५१
- मंज़िल - १९५१
- आँखों का सवाल - १९५२
- महफिल - १९५८
- सपने का अन्त - १९६१
- मंगली की टिकुली - १९८२
- आप क्या कर रहे हैं - १९८३
- नाटक और एकांकी-
- चंदबरदाई (नाटक) - १९६७
- कसौटी (एकांकी संग्रह) - १९४३
- अनूदित-
- माँ
- काँदीद
- कर्कशा
- चेरी की बगिया
- डोरी और ग्रे
- बुलबुल
- हमारे लेनिन
- मालवा
- माओ-त्से-तुङ ग्रन्थावली
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ भैरव प्रसाद गुप्त (विनिबंध), मधुरेश, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ-7.
- ↑ भैरव प्रसाद गुप्त (विनिबंध), मधुरेश, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ-10.
- ↑ भैरव प्रसाद गुप्त (विनिबंध), मधुरेश, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ-73.
- ↑ भारतीय पत्रकारिता कोश, खण्ड-2, विजयदत्त श्रीधर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2010, पृष्ठ-1035.
- ↑ भारतीय पत्रकारिता कोश, खण्ड-2, विजयदत्त श्रीधर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2010, पृष्ठ-1010.
- ↑ भैरव प्रसाद गुप्त (विनिबंध), मधुरेश, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ-74.
- ↑ लेखन, अंक-3-4 (जुलाई 1984, भैरव प्रसाद गुप्त पर केंद्रित), संपादक- विद्याधर शुक्ल, पृष्ठ 30 पर लिखित; भैरव प्रसाद गुप्त (विनिबंध), मधुरेश, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ-77 पर उद्धृत।
- ↑ भैरव प्रसाद गुप्त (विनिबंध), मधुरेश, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2000, पृष्ठ-77.
- ↑ कहानी की बात, मार्कण्डेय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-1984, पृष्ठ-8.