रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव

डॉ॰ रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव (9 जुलाई 1936 - 3 अक्‍तूबर, 1992) हिन्दी के भाषाचिन्तक एवं मनीषी थे।

परिचय संपादित करें

प्रो॰ रवींद्रनाथ श्रीवास्तव का जन्म 9 जुलाई 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा गाँव में ही संपन्न हुई। वे वस्तुतः विज्ञान के विद्‍यार्थी थे। लेकिन उन्होंने साहित्य की ओर अपना कदम बढ़ाया। साहित्य से उनकी रुचि भाषाविज्ञान की ओर बढ़ी। उन्होंने लेनिनग्राद विश्‍वविद्‍यालय (सोवियत संघ) से भाषाविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्‍त की। फिर उन्होंने कैलिफोरनिया से पोस्ट डॉक्टरेट किया। उन्होंने विभिन्न अंतरराष्‍ट्रीय परंपराओं में हुए चिंतनों को भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में व्यापक दृष्‍टिकोण प्रदान किया। उन्होंने अपने गंभीर लेखन एवं वैचारिकता से भारतीय भाषाविज्ञान के संपूर्ण परिदृश्‍य को बदल डाला।

प्रो॰ श्रीवास्तव बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्‍ति थे। वे कर्मठ, जिज्ञासु, सहज विनम्र, अनुशासनप्रिय, मितभाषी और जागरूक भाषा अध्येता थे। उन्हें करीब से जाननेवाले और पहचाननेवाले आत्मीयों के लिए वे आडंबर रहित व्यक्‍ति थे। उनके व्यक्‍तित्व के बारे में स्पष्‍ट करते हुए उनकी अर्धांगिनी डॉ॰ बीना श्रीवास्तव ने एक स्थान पर कहा है - "उनका व्यक्‍तित्व अत्यंत जीवंत था। वे पूरी तरह ‘लाइफ फुल’ थे। जहाँ पहुँचते जैसे रोशनी हो जाती। घर में उन्हें कोई गंभीर व्यक्‍ति मानने के लिए तैयार नहीं होता था। उनकी रुचि बहुमुखी थी। सिनेमा, दूरदर्शन, सैर-सपाटे, पिकनिक आदि उन्हें बहुत पसंद थी।" (बीना श्रीवास्तव, रवींद्र जी : अपने घर में ; पूर्णकुंभ, सितंबर - 1996; रवींद्रनाथ श्रीवास्तव स्मृति अंक; पृ.17). प्रो॰ श्रीवास्तव मनुष्‍यों के बीच कोई भेद भाव स्वीकार नहीं करते थे। शायद इसीलिए वे अपने विद्‍यार्थियों को भी ‘जी’ लगाकर संबोधित करते थे।

भाषावैज्ञानिक संपादित करें

प्रो॰ श्रीवास्तव ने भाषा और भाषाविज्ञान के विविध पक्षों पर निरंतर चिंतन-मनन किया। वे श्रवणिक ध्वनिविज्ञान, सैद्धांतिक भाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, भाषा शिक्षण और कंप्युटेशनल भाषाविज्ञान जैसे अनुप्रयुक्‍त भाषाविज्ञान के विविध विषयों को साथ लेकर आगे बढ़े। इतना ही नहीं उन्होंने भारतीय संदर्भ में भाषा को केंद्र में रखकर साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और संप्रेषण के बहुविध तथा बहुआयामी पक्षों पर कई प्रख्यात पुस्तकें लिखीं। उन्होंने अपने छात्रजीवन में अनेक कविताएँ लिखीं। अपने लेखन के प्रारंभिक काल में उन्होंने काव्य, कहानी और आलोचना को अपना क्षेत्र मानकर साहित्य सृजन किया। रूस से भाषावैज्ञानिक बनकर लौटने के पश्‍चात उन्होंने हिंदी भाषाविज्ञान को आधुनिक भाषाशास्त्रीय चिंतन से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति का प्रवर्तन किया और इस संबंध में कई मौलिक पुस्तकों की रचना की, सैकड़ों लेख - हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखे। कई पुस्तकों का संपादन भी किया। अगर प्रो॰ दिलीप सिंह के शब्दों में कहें तो "उनका संपूर्ण लेखन उनके भाषानुरागी मन का स्वच्छ चमकीला प्रतिबिंब है। उनके लेखन के साथ चलना पूर्व और पश्‍चिम के भाषाचिंतन की सधी रज्जु पर चलना है, अपनी संपूर्ण सजग चेतना के साथ। इस चेतना के बिना उनके लेखन की गहराई को माप पाना सहज नहीं है।" (दिलीप सिंह; वे भाषा के अनुरागी थे; पूर्णकुंभ; सितंबर 1996; रवींद्रनाथ श्रीवास्तव स्मृति अंक; पृ.33)। वे यह भी उद्‍घाटित करते हैं कि "उन्होंने पाश्‍चात्य भाषाविज्ञान की परख करके उसे या तो स्वीकार किया या उसके विरोध में अपने मत व्यक्‍त किए। उन्होंने तीसरी दुनिया की भाषाई स्थिति को भी सामने रखा। इस दिशा में अंग्रेज़ी, हिंदी और रूसी भाषा में प्रकाशित उनके लेख मील का पत्थर हैं। उनके लेख अकॉस्टिक ध्वनिविज्ञान, सैद्धांतिक भाषाविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, अन्य भाषा शिक्षण, साक्षरता, कंप्युटेशनल लिंग्विस्टिक्स, प्रजनक स्वनिम विज्ञान तथा संकेत विज्ञान से संबद्ध हैं। इन लेखों का अध्ययन उनके चिंतन की परिधि और उनके क्रमिक विकास से हमें परिचित कराता है।" (दिलीप सिंह; प्रोफेसर रवींद्रनाथ श्रीवास्तव : एक बहुमुखी व्यक्‍तित्व; भूमिका, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, अचानक की एक मुलाकात; पृ.7-8)।

प्रो॰ श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तकों और लेखों में भाषा और भाषाविज्ञान के विविध पक्षों पर चिंतन-मनन किया। उन्होंने हमेशा भाषा को प्रतीक व्यवस्था माना तथा भारतीय बहुभाषिकता को बहुभाषी एवं बहुसांस्कृतिक समाज की सहज संप्रेषण व्यवस्था के रूप में प्रमाणित किया है। उनकी मान्यता है कि "भाषा का गहरा संबंध समाज से है और इसी कारण वह विषमरूपी होने की नियति से बँधी है। भाषा वस्तुतः प्रयोजनसिद्ध शैलियों के समुच्चय का दूसरा नाम है। किसी एक भाषा की विभिन्न शैलियाँ आपस में अंशतः या तो सामंजस्य की स्थिति में रहती हैं या फिर तनाव की स्थिति में। सामंजस्य की स्थिति शैलियों को प्रयोजन से बाँधती हैं और तनाव की स्थिति उनमें प्रतिस्पर्धा का कारण बनती है। भाषा न केवल व्यक्‍ति के संज्ञानात्मक बोध का प्रतिबिंब है बल्कि इस संप्रदाय में वह ऐसा दर्पण भी है जिसमें आधारभूत शैली अन्य आरोपित शैलियों के साथ अपने संबंधों का चित्र भी प्रतिबिंबित करती हैं। इसलिए भाषावैज्ञानिकों का यह दायित्व है कि किसी भाषा के व्याकरण के भीतर वे शैलीभेद संबंधी चर-संयुक्‍त उपनियमों की वयवस्था को भी समेटें।" (रवींद्रनाथ श्रीवास्तव; भाषाई अस्मिता और हिंदी; पृ.10)।

रवींद्रनाथ श्रीवास्तव भाषा को केवल व्याकरण नहीं मानते बल्कि उससे कहीं बड़ी चीज मानते हैं। वे कहते हैं कि "हिंदी मात्र व्याकरण नहीं और न ही वह केवल विशिष्‍ट भाषिक संरचना है। भाषा के रूप में वह एक सामाजिक संस्था भी है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक भी है और साहित्य के रूप में वह एक जातीय परंपरा भी है।" (वही; पृ.12)। वे भारतीय संदर्भ में भाषा के स्थान पर भाषाई समुदाय की चर्चा करना अधिक समीचीन मानते हैं। अतः वे कहते हैं कि "भाषा का साध्य तो संप्रेषण है, अर्थ व्यापार है और सामाजिक वह शक्‍ति है जो किसी एक समुदाय के सभी व्यक्‍तियों को भावना, चिंतन और जीवन दृष्‍टि के धरातल पर एक-दूसरे के नजदीक लाकर एक इकाई में बाँधती है। इस इकाई को हम ‘भाषाई समुदाय’ (स्पीच कम्युनिटी) की संज्ञा देते हैं। भाषाई समुदाय उन व्यक्‍तियों के संस्थागत समूह का नाम है जो होने को एकभाषी या बहुभाषी हो सकता है पर जिसके सदस्य अपनी संप्रेषण व्यवस्था में समान रूप से भाषिक प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं और अपने सामाजिक व्यवहार में जब किसी भाषा, बोली या शैली का चुनाव करते हों तो उसके चुनाव का आधार भी समान होता है। ...अतः इस ‘भाषाई समुदाय’ के लिए आवश्यक है कि

(i) उसके सदस्यों की संप्रेषण व्यवस्था में समानता हो,

(ii) इस संप्रेषण व्यवस्था के माध्यम से उसके सदस्य एक-दूसरे के साथ न केवल विचार-विनिमय करने में समर्थ हों बल्कि इसी आधार पर आपस में सामाजिक दृष्‍टि से बंधे भी हों,

(iii) संप्रेषण व्यवस्था में प्रयुक्‍त होनेवाली भाषाओं, बोलियों या शैलियों के चुनाव संबंधी ज्ञान या मनोवृत्ति का आधार समानधर्मी हो,

(iv) इस समानधर्मी ज्ञान और मनोवृत्ति के आधार पर अन्य भाषाई समुदाय से वे अलग या विशिष्‍ट हों,

(v) इसकी एक ऐसी आरोपित भाषा या शैली का प्रतिमान हो जिसके आधार पर इसके सदस्य अपनी जातीय अस्मिता (आइडेंटिटी) की पहचान बनाते हों (वही; पृ.11)।

वस्तुतः प्रो॰ श्रीवास्तव ने हिंदी के प्रश्‍न को भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रश्‍न से जोड़कर देखने की आवश्‍यकता को रेखांकित करते हुए कहते हैं, "हम अपनी सामाजिक अस्मिता को पहचानें और इस संदर्भ में भाषाई अस्मिता के सवाल पर एक बार फिर गौ़र करें। अगर हिंदी-उर्दू भाषा आम जनता के लिए एक है तो इसी कारण कि वह शैक्षणिक स्तर पर बनाए गए कृत्रिम विभाजन को स्वीकार नहीं करती। वह हिंदी और उर्दू की अपनी मूल संरचना, प्रकृति और नियमों के आधार पर भाषा का प्रयोग करती है। और इस दृष्‍टि से हिंदी और उर्दू एक भाषा, एक ज़बान ठहरती हैं। इस एक ज़बान को बोलनेवालों में न कोई भेद भाव है और न सामाजिक अस्मिता के धरातल पर कोई दुराव।" (सामाजिक अस्मिता और हिंदी-उर्दू का सवाल; वही; पृ.40-41)।

प्रो॰ श्रीवास्तव ने हिंदी भाषा चिंतन के साथ हिंदी भाषा शिक्षण को भी जोड़ा है चूँकि भाषाई अस्मिता को समझे बिना शिक्षण करना सार्थक नहीं हो सकता। उनकी मान्यता है कि "भाषा शिक्षण प्रणाली का संबंध एक निश्‍चित प्रकार के प्रयोजनों की सिद्धि और एक निश्‍चित प्रकार के द्विभाषिक प्रयोक्‍ता पैदा करने से हैं।" (भाषा शिक्षण; पृ.202)।

साहित्यकार संपादित करें

प्रो॰ श्रीवास्तव भाषाविद्‍ होने के साथ-साथ सर्जक साहित्यकार भी थे। यह पहले भी संकेत किया गया है कि श्रीवास्तव जी ने कविताएँ भी लिखीं हैं। इन कविताओं को परखना है तो उनके भीतर गोता लगाना होगा। अर्थात पाठ विश्‍लेषण के सहारे ही इन कविताओं को खोला जा सकता है। इस संदर्भ में प्रो॰ दिलीप सिंह कहते हैं कि "श्रीवास्तव की ये कविताएँ ‘फरमाइशी’ (शब्द नामवर सिंह का) नहीं हैं। अगर होतीं तो वे इन्हें यूँ पर्दे में न रखते। अभिव्यक्‍ति के स्तर पर रवींद्र जी का पूरा काव्य-संसार प्रौढ़ है और वस्तु की दृष्‍टि से सामयिक या आधुनिक। उनकी साहित्यिक अभिव्यक्‍ति अभिरुचि उन्नीस वर्ष की उम्र से ही कितनी आधुनिक थी, यह इन कविताओं से साफ झलकता है।..। प्रो॰ श्रीवास्तव ‘कविता’ की बुनावट को एकदम भीतर तक देखने के पक्षपाती थे। ... ये कविताएँ रूप और वस्तु के गहरे द्वन्द्व से रची गई हैं। इन कविताओं की परख इस आधार पर न हो सकेगी कि ‘कवि क्या कहता है’ बल्कि इनकी सही कसौटी यह होगी कि ‘कविता क्या कहती है।’ अर्थात इन कविताओं की अनुगूँज की पकड़ ‘पाठ-विमर्श’ के रास्ते ही संभव हो सकेगी। उनकी 1958 से 1967 तक की कविताओं को तो जरूर ही पाठवादी आलोचना के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। कम-से-कम यह जानने के बाद कि वे हिंदी में पाठवादी आलोचना के प्रथम प्रवक्‍ता थे।" (दिलीप सिंह, कविता में गुंथी अर्थ की अनुगूँज; अचानक की एक मुलाकात; पृ.11, 13, 14)।

प्रो॰ श्रीवास्तव ने अपने लेखों मे हिंदी-उर्दू के द्वन्द्व के बारे में काफी कुछ कहा है। उनकी यह धारणा कविताओं में भी प्रतिफलित हुई है। 1955 में लिखी उनकी कविता ‘आत्म-परिचय’ उर्दू अदायगी का नमूना है -

ओठों से फिसल जाय, महकते दर्द की वह सौगात कहाँ
आँखों से बहक जाय, शब्दों की वह अनुगूँज पुकार कहाँ
घायल आँसुओं में बंद सपनों को महके हैं कभी तुमने
जकड़ दूँ तुम्हें शबनमी चीखों से मैं वह आवाज़ कहाँ?

-- (रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, अचानक की एक मुलाकात, पृ.31)।

वस्तुतः रवींद्रनाथ श्रीवास्तव में गहरा आत्मविश्‍वास है। इसी आत्मविश्‍वास ने उन्हें हिंदी भाषाविज्ञान के शिखर पर पहुँचाया। वे कहते हैं -

लोग कहते हैं कि चलते चलते मैं मुड़ जाऊँगा
मैं तो वह रास्ता हूँ मोड़ को भी मोड़ जाऊँगा।।
x x x x
लिख दिया मौत के साए में एकाएक ठहर जाऊँगा
मैं वह आदम हूँ, मौत की तस्वीर भी बना जाऊँगा।।"

-- (रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, अचानक की एक मुलाकात, पृ.87)।

कृतियाँ संपादित करें

श्रीवास्तव जी की हिंदी में रचित मौलिक पुस्तकों में प्रगतिशील आलोचना (1962), शैलीविज्ञान और आलोचना की नई भूमिका (1979), भाषा शिक्षण (1978), संरचनात्मक शैलीविज्ञान (1979), प्रयोजनमूलक हिंदी व्याकरण (1983), भाषाई अस्मिता और हिंदी (1992), हिंदी भाषा का समाजशास्त्र (1994), हिंदी भाषा संरचना के विविध आयाम (1995), भाषाविज्ञान : सैद्धांतिक चिंतन (1997), अनुप्रयुक्‍त भाषाविज्ञान : सिद्धांत एवं प्रयोग (2000) और साहित्य का भाषिक चिंतन (2004) उल्लेखनीय हैं। इनमें से ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र’ से लेकर ‘साहित्य का भाषिक चिंतन’ तक की पुस्तकें उनके निधन के बाद प्रकाशित हुईं।

अंग्रेज़ी भाषा में लिखित पुस्तकें हैं - ‘Literacy' (1993), `Stylistics' (1994), `Bi/Multilingualism' (1994), `Applied linguistics' (1994), `Hindi linguistics' (1998), `Language theory and language structure' (1998) और `Generative Phonology' (1990)। साथ ही उनके द्वारा संपादित पुस्तकें हैं - प्रयोजनमूलक हिंदी (1975), हिंदी भाषा : संरचना और प्रयोग (1980), व्यावहारिक हिंदी (1980), हिंदी का शैक्षिक व्याकरण (1980), अनुप्रयुक्‍त भाषाविज्ञान (1980), साहित्य अध्ययन की दृष्‍टियाँ (1980), भाषा के सूत्रधार (1983), अनुवाद :सिद्धांत समस्याएँ (1985), भाषाविज्ञान परिभाषा कोश (1990), हिंदी के संदर्भ में सैद्धांतिक एवं अनुप्रयुक्‍त भाषाविज्ञान (1992),Evaluating Communicability in villagae setting (2 volumes; 1978) और Perspectives in language planning (1990)।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें