रामशरण शर्मा

'प्राचीन भारत' पर केन्द्रित विख्यात इतिहासकार
(राम शरण शर्मा से अनुप्रेषित)

राम शरण शर्मा (जन्म 26 नवम्बर 1919 - 20 अगस्त 2011[1][2][3]) एक भारतीय वामपंथी इतिहासकार हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय (1973-85) और टोरंटो विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया है और साथ ही लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में एक सीनियर फेलो, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नेशनल फेलो (1958-81) और 1975 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। 1970 के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के डीन के रूप में प्रोफेसर आर.एस. शर्मा के कार्यकाल के दौरान विभाग का व्यापक विस्तार किया गया था।[4] विभाग में अधिकांश पदों की रचना का श्रेय प्रोफेसर शर्मा के प्रयासों को दिया जाता है।[4] वे भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च) (आईसीएचआर) के संस्थापक अध्यक्ष भी थे।

राम शरण शर्मा
चित्र:Ram sharan sharma.jpg
जन्म 26 नवम्बर 1919
बरौनी, बेगूसराय, बिहार, ब्रिटिश भारत
मृत्यु 20 अगस्त 2011(2011-08-20) (उम्र 91 वर्ष)
पटना, भारत
क्षेत्र भारतीय इतिहास

उन्होंने अब तक पंद्रह भाषाओं में प्रकाशित 115 पुस्तकें[5] लिखी हैं। शर्मा भारतीय इतिहास लेखन के "मार्क्सवादी मत" से संबद्ध रहे हैं।

प्रारंभिक जीवन

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शर्मा का जन्म बिहार के बरौनी, बेगूसराय में एक गरीब परिवार में हुआ था।[6] वास्तव में उनके पिता को अपनी रोजी-रोटी के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था और बड़ी मुश्किल से वे मैट्रिक तक उनकी शिक्षा की व्यवस्था कर पाये. उसके बाद वे लगातार छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे और यहाँ तक कि अपनी शिक्षा में सहयोग के लिए उन्होंने निजी ट्यूशन भी पढ़ायी।[7]

शिक्षा और उपलब्धियां

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उन्होंने 1937 में मैट्रिक पास किया और पटना कॉलेज में दाखिला लिया जहां उन्होंने इंटरमीडिएट से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं में छः वर्षों तक अध्ययन किया।[8] उन्होंने अपनी पीएचडी लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज से प्रोफेसर आर्थर लेवेलिन बैशम के अधीन पूरी की.[9] 1946 में पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज में आने से पहले उन्होंने आरा (1943) और भागलपुर (जुलाई 1944 से नवंबर 1946 तक) के कॉलेजों में अध्यापन कार्य किया।[8] 1958-1973 तक वे पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख बने.[8] 1958 में वे एक यूनिवर्सिटी प्रोफेसर बन गए। 1973-1978 तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर और डीन के रूप में कार्य किया। 1969 में उन्हें जवाहरलाल फैलोशिप मिल गयी। 1972-1977 तक वे भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च) के संस्थापक चेयरमैन रहे. वे लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (1959-64) में एक अतिथि फैलो; विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के राष्ट्रीय फैलो (1958-81); टोरंटो विश्वविद्यालय में इतिहास के अतिथि प्रोफ़ेसर (1965-1966); 1975 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष और 1989 में जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार के प्राप्तकर्ता भी रहे.[8] 1973-1978 तक वे मध्य एशिया के अध्ययन के लिए यूनेस्को (UNESCO) के डिप्टी-चेयरपर्सन बने; उन्होंने नेशनल कमीशन ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंसेस इन इंडिया के एक महत्वपूर्ण सदस्य और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक सदस्य के रूप में सेवा की है।[8]

शर्मा ने नवंबर 1987 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बॉम्बे द्वारा प्रदान किया जाने वाला 1983 का कैम्पबेल मेमोरियल गोल्ड मेडल (उत्कृष्ट इंडोलॉजिस्ट के लिए) प्राप्त किया; 1992 में उन्हें अर्बन डिके इन इंडिया के लिए भारतीय इतिहास कांग्रेस द्वारा एच.के. बरपुजारी बाइनियल नेशनल अवार्ड मिला और उन्होंने भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (1988-91) के एक नेशनल फेलो के रूप में भी कार्य किया।[8] वे कई शैक्षिक समितियों और संघों के सदस्य भी हैं। उन्होंने पटना के के.पी. जायसवाल अनुसंधान संस्थान (1992-1994) का के.पी. जायसवाल फैलोशिप प्राप्त किया है; अगस्त 2001 में उन्हें एशियाटिक सोसाइटी की ओर से उत्कृष्ट इतिहासकार के लिए हेमचंद्र रायचौधरी जन्म शताब्दी स्वर्ण पदक प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया गया था; और 2002 में भारतीय इतिहास कांग्रेस ने आजीवन सेवा और भारतीय इतिहास में उनके योगदान के लिए उन्हें विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े पुरस्कार प्रदान किया।[8] उन्हें बर्दवान विश्वविद्यालय से डी.लिट ओनोरिस कॉसा (Honoris Causa) की उपाधि और इसी के समकक्ष डिग्री सारनाथ, वाराणसी के उच्चस्तरीय तिब्बती अध्ययन के केन्द्रीय संस्थान से प्राप्त हुई है।[8] वे शैक्षिक पत्रिका सोशल साइंस प्रोबिंग्स के संपादकीय समूह के अध्यक्ष भी हैं। वे खुदा बख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी की समिति के एक सदस्य हैं। हिंदी और अंग्रेजी में लिखे जाने के अलावा उनकी रचनाओं का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनकी पंद्रह रचनाओं का अनुवाद बंगाली भाषा में किया गया है। भारतीय भाषाओं के अलावा उनकी कई रचनाओं का अनुवाद अनेकों विदेशी भाषाओं में किया गया है जैसे कि जापानी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी आदि

साथी इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब की राय में "डी.डी. कोसांबी और आर.एस. शर्मा के साथ-साथ डैनियल थॉर्नर पहली बार किसानों को भारतीय इतिहास के अध्ययन के दायरे में लेकर आए.[10] प्रोफ़ेसर द्विजेन्द्र नारायण झा ने 1996 में उनके सम्मान में एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था: "सोसायटी एंड आइडियोलॉजी इन इंडिया: एड. एसेज इन ऑनर ऑफ प्रोफेसर आर.एस. शर्मा (मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, 1996). के.पी. जायसवाल शोध संस्थान, पटना द्वारा उनके सम्मान में निबंधों का एक संकलन 2005 में प्रकाशित किया गया था।

पत्रकार शाम लाल उनके बारे में लिखते हैं "आर.एस. शर्मा प्राचीन भारत के एक बोधगम्य इतिहासकार हैं जिनके ह्रदय में 1500 ई.पू. से लेकर 500 ई. तक की दो हजार वर्षों की अवधि के दौरान भारत में घटित होने वाले सामाजिक विकास के प्रति असीम सम्मान की भावना है, अतः वे काल्पनिक दुनिया का सहारा कतई नहीं लेंगे."[11]

प्रोफ़ेसर सुमित सरकार की राय है: "भारतीय इतिहास लेखन, जिसकी शुरुआत 1950 के दशक में डी.डी. कोसांबी से हुई, इसे दुनिया भर में - जहां भी दक्षिण एशियाई इतिहास पढ़ाया या अध्ययन किया जाता है - काफी हद तक विदेशों में रचित समस्त रचनाओं के साथ या यहां तक कि उन सभी से बेहतर रूप में स्वीकार किया जाता है। और यही वजह है कि इरफान हबीब या रोमिला थापर या आर.एस. शर्मा सबसे कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भी काफी सम्मानित चेहरे हैं। अगर आप दक्षिण एशियाई इतिहास का अध्ययन कर रहे हैं तो उन्हें कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।"[12]

प्रमुख रचनाएं

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प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ

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प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ (हिन्दी में - राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संशोधित संस्करण-1989, पेपरबैक की सातवीं आवृत्ति 2007; अंग्रेजी में - आस्पेक्ट्स ऑफ पॉलिटिकल आइडियाज एंड इंस्टिट्यूशंस इन एंशिएंट इंडिया (मोतीलाल बनारसीदास, पाँचवाँ संशोधित संस्करण, दिल्ली, 2005)

यह पुस्तक प्राचीन भारत में राज्य के मूल और प्रकृति के विभिन्न दृष्टिकोणों पर चर्चा करती है। यह राज्य के गठन के चरणों और प्रक्रियाओं की बात भी करती है और राज्य व्यवस्था के निर्माण में जाति एवं वंश आधारित समष्टियों की प्रासंगिकता की भी जांच करती है। वैदिक सम्मेलनों का अध्ययन कुछ विस्तार में किया गया है और राजनीतिक संगठन में प्रगतियों को उनकी बदलती सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक यह भी दिखाती है कि किस तरह धर्म और अनुष्ठानों को शासक वर्ग की सेवा में लाया गया था।

समीक्षाओं से उद्धरण

"यह एक सबसे उपयोगी पुस्तिका होने के साथ-साथ प्राचीन भारतीयों के राजनीतिक सिद्धांतों और कुछ मुख्य राजनीतिक संस्थाओं पर अनुसंधान की एक सबसे मौलिक और सतर्क रचना है।" ए.के. वार्डर, स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज का बुलेटिन.

"... प्राचीन भारत के विचारों और प्रथाओं के कई रोचक पहलुओं का ताजा और कभी-कभी आश्चर्यजनक रूप से वास्तविक लाइनों पर कुशलतापूर्वक सर्वेक्षण करता है। प्रासंगिक स्रोतों पर लेखक की पूरी पकड़ है और उनका प्रयोग वे बताने वाले प्रभाव के साथ करते हैं।" के.ए. नीलकांत शास्त्री, जर्नल ऑफ इंडियन हिस्ट्री

"संशोधित संस्करण... व्याख्या में स्पष्ट है, विधि में नवीनतम है और बहुत सी सामग्रियों को संभालने की उल्लेखनीय क्षमता का प्रदर्शन करता है। यह प्राचीन भारतीय सोच और संस्थाओं के हमारे ज्ञान की वर्तमान स्थिति का अब तक का सबसे अच्छा सारांश है जो अब उपलब्ध है,... यह एक पहले दर्जे की पुस्तक है जो उतना ही दिलचस्प है जितना अध्ययनशील है।" टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट

"यह रचना बेहतर शोधित और प्रलेखित है और प्राचीन भारतीय राजनीति के ऐतिहासिक विकास के संदर्भ में विशेष रूप से उपयोगी है। इस विषय पर मौजूद ज्यादातर पुस्तकों की तुलना में डॉक्टर शर्मा की पुस्तक में सिद्धांत और व्यवहार के बीच एक बेहतर संतुलन है। हालांकि इस बात पर कोई सवाल नहीं हो सकता है कि यह इस क्षेत्र में प्रमुख प्रकाशनों में से एक है जिसे प्राचीन भारतीय राजनीति का कोई भी गंभीर छात्र नजरअंदाज नहीं कर सकता है।" जे.डब्ल्यू. स्पेलमैन, विंडसर विश्वविद्यालय

शूद्रों का प्राचीन इतिहास (शूद्राज इन एंशिएंट इंडिया)

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शूद्राज इन एंशिएंट इंडिया: ए सोशल हिस्ट्री ऑफ द लोअर ऑर्डर डाउन टू सिरका एडी 600 (मोतीलाल बनारसीदास, तीसरा संशोधित संस्करण, दिल्ली, 1990; पुनर्मुद्रण, दिल्ली, 2002 हिन्दी में शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली)

पहले संस्करण के लिए प्रोफेसर शर्मा की (आंशिक) प्रस्तावना: "मैंने इस विषय का अध्ययन लगभग दस वर्ष पहले आरंभ किया किंतु भारतीय विश्वविद्यालय के शिक्षक की कार्यव्यस्तता और पुस्तकालय की समुचित सुविधा के अभाव के कारण कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सका। इस ग्रंथ का अधिकांश स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ में दो शिक्षासत्रों (1954-56) में पूरा किया गया, जहाँ जाने के लिए पटना विश्वविद्यालय ने मुझे उदारतापूर्वक अययन-अवकाश प्रदान किया। यह पुस्तक मुख्यतया मेरे उस शोधप्रबंध पर आधारित है जो लंदन विश्वविद्यालय में 1956 ई. में पी-एचडी. की उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था।"[13]

समीक्षाओं से उद्धरण

"यह अनुसंधान का एक उत्कृष्ट उदाहरण और प्राचीन भारत में सूद्रों का एक प्रामाणिक इतिहास है। प्रोफेसर शर्मा ने सूद्रों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर असर डालने वाले साहित्यिक के साथ-साथ पुरातात्विक, सभी प्रकाशित स्रोतों का उपयोग किया है। यह शूद्र समुदाय के दुखमय जीवन के सभी पहलुओं का एक स्पष्ट और व्यापक विवरण देता है। एल.एम. जोशी, जर्नल ऑफ रिलीजियस स्टडीज, अंक 10, नंबर I और II, 1982.

भारत का प्राचीन इतिहास (इंडियाज एंशिएंट पास्ट)

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इंडियाज एंशिएंट पास्ट (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2005; प्रारंभिक भारत का परिचय नाम से हिन्दी अनुवाद ओरियंट ब्लैकस्वान, नयी दिल्ली से प्रकाशित एवं इससे कुछ भिन्न शैली में देवशंकर नवीन तथा धर्मराज कुमार द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद भारत का प्राचीन इतिहास नाम से ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली से प्रकाशित, 2018)

इस आकर्षक कथा में लेखक प्रारंभिक भारत के इतिहास का एक व्यापक और सुलभ विवरण प्रस्तुत करता है। इतिहास के लेखन के ढांचे पर एक चर्चा के साथ शुरू करते हुए यह पुस्तक सभ्यताओं, साम्राज्यों और धर्मों के मूलों और विकास पर प्रकाश डालती है। यह भौगोलिक, पारिस्थितिकीय और भाषाई पृष्ठभूमियों को कवर करता है और निओलिथिक, कैलकोलिथिक और वैदिक कालों के साथ-साथ हड़प्पा सभ्यता की विशिष्ट संस्कृतियों पर नजर डालता है। लेखक जैन धर्म और बौद्ध धर्म, मगध के उदय और क्षेत्रीय राज्यों की शुरुआत की चर्चा करते हैं। मौर्यों, मध्य एशियाई देशों, सातवाहनों, गुप्तों और हर्षवर्धन के काल का भी विश्लेषण किया गया है। वे वर्ण व्यवस्था, शहरीकरण, वाणिज्य और व्यापार, विज्ञान और दर्शन में विकास और सांस्कृतिक विरासत जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। वे प्राचीन से मध्यकालीन भारत में परिवर्तन की प्रक्रिया की भी जांच करते हैं और आर्य संस्कृति के मूल जैसे सामयिक मुद्दों पर भी ध्यान देते हैं।

आर्यों की खोज (लुकिंग फॉर द आर्यन्स)

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लुकिंग फॉर द आर्यन्स (ओरिएंट लांगमैन पब्लिशर्स, 1995, दिल्ली)

आर्य कौन थे? वे कहां से आये थे? क्या वे हमेशा से भारत में रहे थे? आर्य समस्या ने शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में नए सिरे से ध्यान आकर्षित किया है। यह पुस्तक आर्य संस्कृति की मुख्य विशेषताओं की पहचान करती है और उनके सांस्कृतिक लक्षणों के प्रसार का अनुसरण करती है। नवीनतम पुरातात्विक साक्ष्य और आर्य समाज की सामाजिक और आर्थिक विशेषताओं पर सबसे पहले ज्ञात भारत-यूरोपीय अभिलेखों का प्रयोग कर डॉ॰ शर्मा इस वर्तमान बहस पर कि क्या आर्य भारत के स्वदेशी निवासी थे या नहीं, नये सिरे से प्रकाश डालते हैं। यह पुस्तक भारत के इतिहास और इसकी संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए आवश्यक पाठ्य सामग्री है।

इस पुस्तक की कई मान्यताओं में डॉ॰ शर्मा ने बाद में स्वयं परिवर्तन किया और एक साक्षात्कार में स्पष्ट स्वीकार किया कि उनकी यह पुस्तक अब पुरानी पड़ गयी है और इस विषय पर उनकी नयी किताब आयी है- भारत में आर्यों का आगमन[14]

भारतीय सामंतवाद (इंडियन फ्यूडलिज्म)

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इंडियन फ्यूडलिज्म (मैकमिलन पब्लिशर्स इंडिया लिमिटेड, तीसरा संशोधित संस्करण, दिल्ली, 2005)

यह पुस्तक भूमि अनुदान की प्रथा का विश्लेषण करती है जो गुप्त काल में विचारणीय बनी और गुप्त काल के बाद दूर-दूर तक फ़ैल गयी। यह दिखाता है कि यह किस प्रकार जमींदारों के एक वर्ग के उदय का कारण बनी जिसने अपने वित्तीय और प्रशासनिक अधिकारों को किसानों के एक वर्ग पर आरोपित किया था जिन्हें सामुदायिक कृषि अधिकार से वंचित कर दिया गया था। अपनी पुस्तक भारतीय सामंतवाद (इंडियन फ्यूडलिज्म) (1965) में आर.एस. शर्मा ने घोरियन विजय अभियानों के समय तक प्रारंभिक मध्ययुगीन समाज में बुनियादी संबंधों का विस्तार से अध्ययन किया है।[15] उन्होंने एक ऐसे सामंतवाद के पक्ष में तर्क दिया जो अपनी जमीन में उच्चतंम अधिकारों के जरिये और जबरदस्ती के श्रम के जरिये मुख्य रूप से उदार किसानों से प्राप्त अधिशेष को काफी हद तक रुपयों में परिवर्तित कर लेता था, जो किसी भी विचारणीय पैमाने पर नहीं पाया जाता है।.. भारत के तुर्की विजय अभियान के बाद .[15]

पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति

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(हिन्दी में - राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1996; अंग्रेजी में- अर्ली मेरी मेडिएवेल इंडियन सोसाइटी: ए स्टडी इन फ्यूडलाइजेशन) (ओरिएंट लांगमैन पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 2003)

प्रारंभिक मध्ययुगीन काल आर.एस. शर्मा के विश्लेषण का केंद्र है। इस पुस्तक में शर्मा प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे के सामंतीकरण को रेखांकित करते हैं और भूमि अनुदानों का प्रचलन बढ़ने के लिए वर्ण संघर्ष और व्यापार में गिरावट को जिम्मेदार बताते हैं। उनका विशालदर्शी विस्तार किसानों की स्थिति पर ध्यान देता है और वे जमींदारों के प्रभुत्व के कारण उत्पादन पर उनके नियंत्रण के नुकसान को रेखांकित करते हैं। शर्मा पारंपरिक वर्ण व्यवस्था की भी जाँच करते हैं और यह पता लगाते हैं कि किस प्रकार इसे जमींदारी पदानुक्रम के लिए समायोजित किया गया था।

ब्राह्मणवाद पर आदिवासियों के प्रभाव और शूद्र तथा अन्य जातियों के प्रसार की एक दिलचस्प चर्चा इसमें शामिल है। शर्मा का तर्क है कि जमींदार पूंजीपतियों की उपस्थिति ने कानूनी, सामाजिक और धार्मिक मामलों में सोच के तरीकों को बदल दिया.

आर.एस. शर्मा की सम्मोहक शैली और दृष्टिकोण की व्यापकता और गहराई इस पुस्तक को पेशेवर इतिहासकारों और समाजशास्त्री के साथ-साथ हमारे कई सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधाराओं एवं संस्थाओं के मध्ययुगीन जड़ों में रुचि रखने वालों के लिए सुलभ बनाता है।

प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास (पर्सपेक्टिव इन सोशल एंड इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ एंशिएंट इंडिया)

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पर्सपेक्टिव इन सोशल एंड इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ एंशिएंट इंडिया (मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, 2003; हिन्दी में - प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण 1992, तृतीय संशोधित संस्करण 2008)

इस पुस्तक की शुरुआत प्रारंभिक भारत के सामाजिक और आर्थिक इतिहास के सूत्रों के एक सर्वेक्षण के साथ होती है और यह सामाजिक इतिहास पर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर बीसवीं सदी के मध्य तक की रचनाओं की समीक्षा करती है। यह जाति और लिंग संबंधों की समस्याओं पर चर्चा करते है और सामाजिक नियंत्रण एवं सामंजस्य को बढ़ावा देने में भविष्यवाणी और संचार की भूमिका को दर्शाती है। आर्थिक पहलुओं पर ध्यान देने के क्रम में यह उत्पादन की प्रणाली के चरणों पर ध्यान केंद्रित करती है; यह सूदखोरी, शहरी इतिहास और सिंचाई के बारे में बात करती है। लेखक सामाजिक इतिहास के अध्ययन के लिए हिन्दू सुधारवादी दृष्टिकोण की वैधता पर सवाल उठाते हैं। वे भारतीय सामाजिक और आर्थिक संस्थानों की नित्यता के बारे में पारंपरिक और सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों को छोड़ देते हैं। परिवर्तन और अलगाव की प्रवृत्ति की पहचान की जाती है और सामाजिक एवं आर्थिक विकासों के बीच पारस्परिक संबंध देखा जाता है। अंत में यह पुस्तक धातु धन और भूमि अनुदान के इतिहास के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाती है।

भारत के प्राचीन नगरों का पतन (अर्बन डिके इन इंडिया)

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अर्बन डिके इन इंडिया सी. 300- सी. 1000 (मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, 1987; हिन्दी में - भारत के प्राचीन नगरों का पतन, लगभग 300 ई. से लगभग 1000 ई., राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, छठा संस्करण 2016)

यह पुस्तक शहरों के पतन और प्राचीन काल के उत्तरार्द्ध एवं प्रारंभिक मध्यकालीन भारत में उनके परित्याग पर पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर ध्यान केंद्रित करती है। लेखक के पास शिल्प, वाणिज्य और सिक्कों के अध्ययन के लिए सामग्रियों के अवशेष मौजूद हैं और वे 130 से अधिक खुदाई स्थलों के लिए विकास और क्षय के लक्षणों की पहचान और वर्णन करते हैं। मामूली अवशेषों की परतों को निर्माण, विनिर्माण और वाणिज्यिक गतिविधियों में कमी को दर्शाने के लिए लिया गया है और इस प्रकार ये गैर-शहरीकरण के साथ जुड़े हुए हैं। शहरी प्रभावहीनता के कारणों की मांग ना केवल साम्राज्यों के पतन में बल्कि सामाजिक अव्यवस्था और लंबी दूरी के व्यापार के नुकसान में भी की गयी है। शहर जीवन के विघटन को सामाजिक प्रतिगमन रूप में नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के भाग के रूप में देखा जाता है जिसने उत्कृष्ट सामंतवाद को जन्म दिया और ग्रामीण विस्तार को बढ़ावा दिया. यह पुस्तक शहरी क्षय और अधिकारियों, पुजारियों, मंदिरों और मठों को भूमि अनुदान के बीच की कड़ी की पड़ताल करती है। यह दिखाती है कि कैसे जमींदार संबंधी तत्वों ने सीधे तौर पर किसानों से अधिशेष और सेवाएं एकत्र कीं और कारीगर के रूप में सेवा करने वाली जातियों को मेहनताने के रूप में भूमि अनुदान दिया और अनाज की आपूर्ति की. मोनोग्राफ को आधुनिकता पूर्व के शहरी इतिहास के छात्रों और गुप्त काल एवं गुप्त काल के बाद अर्थव्यवस्था और समाज में परिवर्तन की प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए रुचिकर होना चाहिए. इसे ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के उत्तरार्द्ध और अगली छह सदी एडी के दौरान खुदाई स्थलों के शहरी क्षितिज पर बुनियादी जानकारी उपलब्ध कराने वाला होना चाहिए.

सांप्रदायिकता का दृष्टिकोण

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शर्मा ने सभी प्रकार की सांप्रदायिकता की निंदा की है। अपनी पुस्तक कम्युनल हिस्ट्री एंड रामा'ज अयोध्या में वे लिखते हैं, "ऐसा लगता है कि मध्ययुगीन काल में अयोध्या का उदय धार्मिक तीर्थ यात्रा स्थल के रूप में हुआ था। हालांकि विष्णु स्मृति के अध्याय 85 में तीर्थ यात्रा के अधिक से अधिक 52 स्थलों को सूचीबद्ध किया गया है जिनमें शहर, झीलें, नदियां, पहाड़ आदि शामिल हैं, अयोध्या को इस सूची में शामिल नहीं किया गया है।"[16] शर्मा यह भी टिप्पणी करते हैं कि तुलसीदास, जिन्होंने 1574 में अयोध्या में रामचरितमानस की रचना की थी, वे एक तीर्थ स्थल के रूप में इसका उल्लेख नहीं करते हैं।[16] बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद वे इतिहासकार सूरज भान, एम. अतहर अली और द्विजेन्द्र नारायण झा के साथ मिलकर हिस्टोरियन रिपोर्ट टू द नेशन लेकर आए जो इस विषय पर है कि किस प्रकार संप्रदायवादियों ने अपनी धारणाओं में यह गलती की थी कि विवादित स्थल पर एक मंदिर मौजूद था और किस प्रकार मस्जिद को गिराने में यह एक सरासर बर्बरता थी, इस पुस्तक का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है।[17] उन्होंने 2004 में भंडारकर ओरिएंटल अनुसंधान संस्थान की दादागिरी की निंदा की थी।[18]

राजनीतिक विवाद

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1977 की उनकी रचना प्राचीन भारत को अन्य बातों के अलावा कृष्ण की ऐतिहासिकता और महाभारत महाकाव्य की घटनाओं की आलोचना के लिए 1978 में जनता पार्टी सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, इसमें ऐतिहासिक स्थिति की रिपोर्टिंग इस प्रकार की गयी थी

"हालांकि कृष्ण महाभारत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, मथुरा में पाए जाने वाले शिलालेख और मूर्तिकला के उदाहरण 200 ई.पू. और 300 ई. के बीच के हैं जो उनकी उपस्थिति को सत्यापित नहीं करते हैं। इसी वजह से रामायण और महाभारत पर आधारित एक महाकाव्य युग के विचारों को त्याग दिया जाना चाहिए..."[19]

उन्होंने अयोध्या विवाद और 2002 के गुजरात दंगों को युवाओं की समझ के क्षितिज को विस्तृत करने के लिए 'सामाजिक रूप से प्रासंगिक विषय' बताते हुए उन्हें विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने का समर्थन किया है।[20] यह उनकी टिप्पणी ही थी जब एनसीईआरटी ने गुजरात के दंगों और अयोध्या विवाद को 1984 के सिख विरोधी दंगों के साथ बारहवी कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तकों में शामिल करने का फैसला किया, जिसका तर्क यह दिया गया कि इन घटनाओं ने आजादी के बाद देश में राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित किया था।[20]

विस्कोंसिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर आंद्रे विंक, अल-हिंद: द मेकिंग ऑफ द इंडो-इस्लामिक वर्ल्ड (खंड 1) में यूरोपीय और भारतीय सामंतवाद के बीच अत्यंत करीबी समानताओं का चित्रण करने के लिए शर्मा की आलोचना करते हैं।

हिन्दी में प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें

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  1. विश्व इतिहास की भूमिका, पटना, 1951-52.
  2. शूद्रों का प्राचीन इतिहास-1958 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  3. प्राचीन भारत में राजनितिक विचार एवं संस्थाएँ-1959 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  4. मध्य-गंगाक्षेत्र में राज्य की संरचना-1960 (ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, लक्ष्मी नगर, दिल्ली).
  5. भारतीय सामंतवाद-1965 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  6. प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास-1966 (हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय).
  7. प्रारंभिक भारत का परिचय, ओरिएंट ब्लैकस्वान, दिल्ली, आईएसबीएन 978-81-250-2651-8. यही पुस्तक भारत का प्राचीन इतिहास नाम से देवशंकर नवीन एवं धर्मराज कुमार द्वारा कुछ भिन्न शैली में अनूदित, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (भारत), नयी दिल्ली, 2018 (एनसीईआरटी से प्रकाशित प्राचीन भारत (1977) का अनुक्रमणिकायुक्त नवीन संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण[21]).
  8. 'प्राचीन भारत' के पक्ष में(लघु पुस्तिका)-1979 (पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली).
  9. प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएँ-1985 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  10. भारत के प्राचीन नगरों का पतन-1987 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  11. भारत में आर्यों का आगमन-1999 हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय.
  12. पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज और संस्कृति-2001 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  13. आर्य एवं हड़प्पा संस्कृतियों की भिन्नता-2007 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली).
  14. भारतीय इतिहास : एक पुनर्विचार-2011 (हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय).

इन्हें भी देखें

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  1. "Noted historian R S Sharma passes away". द इंडियन एक्सप्रेस. 21 अगस्त 2011. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2011.
  2. प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (21 अगस्त 2011). "Historian Sharma dead". हिन्दुस्तान टाईम्स. मूल से 24 अगस्त 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2011.
  3. Akshaya Mukul (22 अगस्त 2011). "R S Sharma, authority on ancient India, dead". द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया. मूल से 12 अप्रैल 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2011.
  4. History Department (13 अगस्त 2008). "History of Department of History". दिल्ली विश्‍वविद्यालय. मूल से 26 फ़रवरी 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अगस्त 2008.
  5. Prashant K. Nanda (31 दिसंबर 2007). "Ram lives beyond history: Historians". द ट्रिब्यून. मूल से 29 अगस्त 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अगस्त 2008.
  6. "PUCL Begusarai Second District Conference Report". सिविल लिबर्टीज फॉर पीपुल्स यूनियन. जुलाई 2001. मूल से 8 अगस्त 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अगस्त 2008.
  7. Jha, D.N. (1996). Society and Ideology in India: Essays in Honour of Prof. R.S. Sharma. नई दिल्ली, भारत: Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8121506397. |year= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  8. Srivastava, N.M.P. (2005). Professor R.S. Sharma: The Man With Mission; Prajna-Bharati Vol XI, In honour of Professor Ram Sharan Sharma. Patna, India: K.P. Jayaswal Research Institute.
  9. K. M. Shrimali (Volume 19 - Issue 18, अगस्त 31 - सितंबर 13, 2002). "The making of an Indologist". फ्रंटलाइन. मूल से 4 जनवरी 2005 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 अप्रैल 2009. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  10. Habib, Irfan (Seventh reprint 2007). Essays in Indian History. Tulika. पृ॰ 381 (at p 109). आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8185229003. |year= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  11. Lal, Sham (Published 2003, initially published in द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया on जुलाई 23, 1983). Indian Realities in bits and pieces. Rupa & Co. पृ॰ 524 (at p 14). आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-291-1117-3. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  12. "'Not a question of bias'". फ्रंटलाइन. Volume 17 - Issue 05, Mar. 04 - 17, 2000. अभिगमन तिथि 23 जून 2009. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ][मृत कड़ियाँ]
  13. शूद्रों का प्राचीन इतिहास, रामशरण शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2000, पृष्ठ-7.
  14. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-5, अप्रैल-जून 2001, संपादक- परमानन्द श्रीवातव, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-194.
  15. Irfan Habib (Vol. 14 :: No. 16 :: Aug. 9-22, 1997). "History and interpretation". फ्रंटलाइन. मूल से 22 अप्रैल 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 अप्रैल 2009. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  16. Sikand, Yoginder (5 अगस्त 2006). "Ayodhya's Forgotten Muslim Past". Counter Currents. मूल से 21 दिसंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 जनवरी 2008.
  17. Ali (preface by Irfan Habib), M.Athar (2008). Mughal India. New Delhi, India: Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0195696615. |year= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  18. "Historians protest ban on book". द हिन्दू. 18 जनवरी 2004. मूल से 4 मई 2004 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 अप्रैल 2009.
  19. "BJP angry over "twisted" Ayodhya history". द हिन्दू. 13 जुलाई 2005. अभिगमन तिथि 25 जून 2009.[मृत कड़ियाँ][मृत कड़ियाँ]
  20. "Historian sees no wrong in NCERT move". द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया. 19 अगस्त 2006. मूल से 1 फ़रवरी 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जून 2009.
  21. भारत का प्राचीन इतिहास, रामशरण शर्मा, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली, संस्करण-2018, पृष्ठ-XIII (प्रस्तावना).

बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ में उल्लिखित पुस्तकें

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  • द्विजेन्द्र नारायण झा, भारत में सोसायटी और विचारधारा: प्रोफेसर आर.एस. शर्मा के सम्मान में लेख, नई दिल्ली, मुंशीराम मनोहरलाल, 1996, आईएसबीएन-978-8121506397
  • एन.एम.पी.श्रीवास्तव, "प्रोफेसर आर.एस. शर्मा: दी मैन विथ मिशन", प्रजना-भारती, वॉल्यूम XI, 2005, प्रोफेसर राम शरण शर्मा के सम्मान में, के.पी. जायसवाल अनुसंधान संस्थान, पटना, भारत, 2005.
  • विनय लाल, दी हिस्ट्री ऑफ हिस्ट्री: पॉलिटिक्स एंड स्कॉलरशिप इन मॉडर्न इंडिया, 2005, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, आईएसबीएन 978-0195672442.
  • ई. श्रीधरन, ए टेक्स्टबुक ऑफ हिस्ट्रीयोग्राफी, 500 बी.सी. टू ए.डी. 2000, 2004, ओरिएंट ब्लैकस्वान.
  • ब्रजदुलाल चट्टोपाध्याय, स्टडिंग अर्ली इंडिया: आर्कियोलॉजी, टेक्स्ट्स एंड हिस्टोरिकल इश्यूज, 2006, एन्थेम प्रेस.
  • कंचा इल्इह, गॉड एज़ पॉलिटिकल फिलोस्फर: बुद्धाज़ चैलेन्ज टू ब्रह्मिनिस्म, 2001, पॉपुलर प्रकाशन.
  • फ्रैंक रेमंड अल्ल्चिन, दी आर्कियोलॉजी ऑफ अर्ली हिस्टोरिक साउथ एशिया: दी इमरजेंस ऑफ सिटिज एंड स्टेट्स (पेपरबैक), 1995, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस.
  • एंटून डे बीट्स, सेंसरशिप ऑफ हिस्टोरिकल थॉट्स: ए वर्ल्ड गाइड, 1945-2000 (हार्डकवर), 2001, ग्रीनवुड प्रेस.

साँचा:Ram Sharan Sharma