राय देवीप्रसाद 'पूर्ण'
राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' (मार्गशीर्ष कृष्ण १३, संवत् १९२५ वि. - संवत् १९७२) हिन्दी के कवि थे।
परिचय
संपादित करेंराय देवीप्रसाद जी का जन्म मार्गशीर्ष कृष्ण १३, संवत् १९२५ वि. को जबलपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम राय वंशीधर था। वंशपरंपरागत 'राय' उपाधि इनके पूर्वजों का बादशाही शासनकाल में मिली थी। इनका पैत्रिक निवास कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील के अंतर्गत भदरस ग्राम में था जो भूषण और मतिराम के सुप्रसिद्ध जन्मग्राम तिकवाँपुर के पास है। इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी.ए. और बी.एल. परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं और कानपुर में वकालत करते रहे। अपने समय के ये बड़े ही सफल और सम्मानित वकील थे। इनका संस्कृत साहित्य का अध्ययन बड़ा व्यापक और गंभीर था। उर्दू-फारसी के भी ये अच्छे ज्ञाता थे। संगीत की साधना भी इन्होंने की थी। कविता करने और नाटकों तथा रामलीला आदि में अभिनय करने का शौक इन्हें बाल्यावस्था से ही था। रामलीला में ये निषादराज बनते थे और इनके संवाद ऐसे मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी होते थे कि देखने सुननेवालों की आँखें गीली हो जाती थीं।
ब्रजभाषा की कविता का अभ्यास इन्होंने पं॰ ललिताप्रसाद त्रिवेदी 'ललित' के सानिध्य में किया था और क्रमश: उसमें उच्च कोटि की सिद्धि प्राप्त की। हिंदी साहित्य में 'पूर्ण' जी की ख्याति ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा के अत्यंत प्रौढ़ और सिद्ध कवि के रूप में है। कानपुर की 'रसिक समाज' नामक संस्था के ये अग्रणी सदस्यों में थे और उसके अधिवेशनों में, व्यवस्था करना, स्थानीय और अभ्यागत कवियों को आमंत्रित कर उनके कवितापाठ का प्रबंध करना, समस्यापूर्तियों का प्रबंध करना इत्यादि कार्यों में वे बड़े ही रुचि और मनोयोगपूर्वक संमिलित हुआ करते थे। इस समाज की ओर से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'रसिकवाटिका' में प्राय: ब्रजभाषा की शास्त्रीय ढंग से की गई तत्कालीन श्रेष्ठ कवियों की समस्या पूर्तियाँ प्रकाशित होती थीं। जो गद्य लेख होते थे वे भी प्राय: छंद, रस, अलंकार आदि काव्य के शास्त्रीय पक्ष की विवेचना करनेवाले रहते थे। 'पूर्ण' जी जब तक जीवित रहे, उनकी रचनाएँ बराबर रसिकवाटिका में निकलती रहीं।
पूर्ण जी का देहावसान ४७ वर्ष की अवस्था में कानपुर में संवत् १९७२ में हुआ।
कृतियाँ
संपादित करें'पूर्ण' जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। फलत: उनकी रचनाओं में एक ओर जहाँ परंपरानुगत विषयों की कविताएँ हैं, वहीं आधुनिक विषय भी उनसे असंयुक्त नहीं रहे- स्वदेशप्रेम, राजभक्ति, समाजसुधार आदि विषयों पर भी उनकी लेखनी वैसी ही प्रौढ़ता के साथ चलती रही। हाँ, उस युग में राजनीति के अंतर्गत असहयोग और विद्रोह के स्वर नहीं फूटे थे, अत:, तत्कालीन देशप्रेम और राजभक्ति की जैसी समन्वित और संयत प्रवृत्ति भारतेंदु आदि में दिखलाई पड़ती है, वैसी ही 'पूर्ण' जी में भी थी।
आगे चलकर 'पूर्ण' जी ने खड़ी बोली को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और उर्दू फारसी के चलते, मँजे हुए शब्दों, मुहावरों प्रयोगों आदि के संयोग से बड़ी आकर्षक रचनाएँ करने लगे।
पूर्ण जी द्वारा रचित निम्नांकित ग्रंथ उल्लेख हैं -
- (१) स्वदेशी कुंडल (खड़ी बोली में कुंडलियाँ);
- (२) धाराधर धावन (मेघदूत का ब्रजभाषा पद्य में अनुवाद);
- (३) चंद्रकला भानुकुमार (मौलिक सुखांत नाटक);
- (४) राम-रावण-विरोध (चंपू);
- (५) राजदर्शन (सन् १९११ के दिल्ली दरबार के अवसर पर हिंदी-अंगरेजी मिश्रित)
- (६) धर्मकुसुमाकर (सनातन धर्म महामंडल की पत्रिका)
इनकी स्फुट कविताओं का संग्रह 'पूर्ण-संग्रह' (संग्रहकर्ता- लक्ष्मीकांत त्रिपाठी, एम॰ए॰) के नाम से सं. १९८२ में लखनऊ के गंगापुस्तकमाला कार्यालय द्वारा निकल चुका है।