लैटेराइट मृदा

(लैटेराइट से अनुप्रेषित)

लैटेराइट मृदा (Laterite soil) या 'लैटेराइट मिट्टी'(Laterite) का निर्माण ऐसे भागों में हुआ है, जहाँ शुष्क व तर मौसम बार-बारी से होता है। यह लेटेराइट चट्टानों की टूट-फूट से बनती है। यह मिट्टी चौरस उच्च भूमियों पर मिलती है। इस मिट्टी में लोहा, ऐल्युमिनियम और चूना अधिक होता है। गहरी लेटेराइट मिट्टी में लोहा ऑक्साइड और पोटाश की मात्रा अधिक होती है। लौह आक्साइड की उपस्थिति के कारण प्रायः सभी लैटराइट मृदाएँ जंग के रंग की या लालापन लिए हुए होती हैं।

भारत के अंगदिपुरम में लैटेराइट की खुली खान

लैटराइट मिट्टी,चाय, कहवा आदि फसलों के लिए उपयोगी है, क्योकि यह मिट्टी अम्लीय होती है। लैटराइट मिट्टी वाले क्षेत्र अधिकांशतः कर्क रेखा तथा मकर रेखा के बीच में स्थित हैं। भारत में लैटेराइट मिट्टी तमिलनाडु के पहाड़ी भागों और निचले क्षेत्रों, कर्नाटक के कुर्ग जिले, केरल राज्य के चौडे समुद्री तट, महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले, पश्चिमी बंगाल के बेसाइट और ग्रेनाइट पहाड़ियों के बीच तथा उड़ीसा के पठार के ऊपरी भागों में मिलती है।

आर्थिक महत्व

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लैटेराइट में यदि लोहे की मात्रा अधिक है, तो उससे लोहा प्राप्त किया जा सकता है। एलुमिनियम की मात्रा अधिक रहने से ऐसे लैटेराइट को बाक्साइट कहते हैं और उससे ऐलुमिनियम प्राप्त किया जा सकता है। मैंगनीज़ की मात्रा अधिक रहने से मैंगनीज़ प्राप्त किया जा सकता है। कच्ची सड़कों के निर्माण में गिट्टी के रूप में वे काम आते हैं। गृहनिर्माण में लोहमय लैटेराइट प्रयुक्त होते हैं। आजकल भारत के अनेक स्थलों में लैटेराइट का उत्खनन बड़े पैमाने पर हो रहा है। ऐसे स्थलों में उड़ीसा का जगन्नाथ पुरी तथा आंध्र प्रदेश का गोदावरी जिला और मालाबार, दक्षिण कनारा, चिंगलपट जिला आदि तथा त्रावनकोर, कोचीन, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश एवं कर्नाटक प्रमुख हैं।

लेटेराइट की आयु

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उच्चस्तरीय लैटेराइट के निर्माण काल के संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। कुछ अतिनूतन युग (Pliocene) के या इससे भी प्राचीन हैं। कहीं कहीं के लैटेराइट अत्यंत नूतन या अभिनव काल के भी बने हैं। नित्नस्तरीय लैटेराट निश्चित रूप से अभिनव काल के बने हैं, क्योंकि इनमें प्रस्तर युग के पाषाण के औजार मिलते हैं। आदिनूतन (Eocene) काल के लैटेराइट भी पश्चिमी पाकिस्तान में पाए गए हैं।

 

लैटेराइट एक प्रकार का आवरण-प्रस्तर (regolith) है। यह भारत, मलाया, पूर्वी द्वीपसमूह, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका, क्यूबा आदि अनेक उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत प्रायद्वीप में व्यापक रूप में प्राप्त होने के कारण इसका अध्ययन भारत के लिए विशेष महत्व रखता है।

'लैटेराइट' शब्द लैटिन के 'लैटेर' (Later, ईंट) से बना हैं। इस नाम का आधार इसका रंग है। इसका लाल रंग लोहे के ऑक्साइड के कारण है। फ्रैंसिस व्युकानन-हैमिल्टन (Francis Buchanan Hamilton) ने १८०७ ई. में दक्षिण भारत से प्राप्त एक शैल (rock) के लिए यह नाम प्रयुक्त किया था। लैटेराइट एक प्रकार का स्फोटगर्ता (vesicular), मृण्मय (clayey) शैल है। अवयवों की विभिन्न मात्राओं के कारण लैटेराइट की अनेक किस्में पाई जाती हैं। इसी कारण इनके बाह्य रूपों में भी विभिन्नता पाई जाती है।

लोहे के सांद्रण से कहीं-कहीं अंडकीय संग्रथन (oolitic concretion) भी देखा जाता है। कहीं पर यह श्वेत होता है और कहीं चितकबरा (mottled)। शैलों के शिखरों पर लोहे का स्थान कहीं कहीं मैंगनीज़ ऑक्साइड ले लेता है। जिस लैटेराइट में लोहे का आधिक्य है उसे लोहमय (ferruginous), जिसमें ऐलुमिनियम का आधिक्य है उसे ऐलुमिनियममय (aluminiferous) और जिसमें मैंगनीज का आधिक्य है उसे मैंगनीज़मय (manganiferous) लैटेराइट कहते हैं। लोहमय लैटेराइट लाल, या भूरे रंग का, ऐलुमिनियममय लैटेराइट धूसर या मटमैले श्वेत रंग का और मैंगनीज़मय लैटेराइट गहरा भूरा या काले रंग का होता है। लैटेराइट सरध्रं (porous), पारगम्य (permeable) और गर्तमय (pitted) शैल है। यह पिस्टोलाइटी (pistolitic) आकार का होता है। पिस्टोलाइट सकेंद्रीय संरचनाएँ बनाते हैं। ये लोहे या एलुमिना सीमेंट से जुड़े रहते हैं। कोमल, ताज़े शैल को वायु में खुला रखने से वह निर्जलित होकर कड़ा हो जाता है।

उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की सपाट शीर्ष पहाड़ियों के ऊपर संस्तर में लैटेराइट पाया जाता है। क्वार्टज़ाइट और सिलिकामय शैलों का छोड़कर, शेष सब नाना प्रकार के क्षारीय शैलों, चूना-पत्थरों तथा अवसादी शैलों से लैटेराइट बनते हैं। ऐलुमिना मृदा से भी लैटेराइट बनता है। अपक्षय के फलस्वरूप ही अधिकांश स्थलों में पाए जानेवाले लैटेराइट बने हैं।

भारत में दक्षिणी लावास्तर में लैटेराइट मिलता है। इसकी मोटाई सौ फुट तक पहुँच जाती है। ऊपर के स्तर में लोहे का आधिक्य रहता है। उसे नीचे के स्तर में ऐल्यूमिनियम का आधिक्य रहता है। और लोहे की मात्रा क्रमश: कम होती जाती है। ऐसे लैटेराइट को बॉक्साइट कहते हैं और ऐलुमिनियम के निर्माण में इसका उपयोग हो सकता है। उसके नीचे का अंश लिथोमार्जिक मृदा और अपरिवर्तित शैल रहते हैं। पूर्वीघाट का लैटेराइट खोंडेलाइट (khondalite) से बना है। इसमें गार्नेट, सिलिमेनाइट तथा फेल्स्पार रहते हैं। मलावार का लैटेराइट शैलों से बना है।

शैल सिलिकेट होते हैं। बारी बारी से गीली और शुष्क ऋतुओं के हाने से, वर्ष भर उष्ण मौसम, या गरम भूपृष्ठीय जल के रहने से एवं जीवाणुओं और वनस्पतियों की क्रिया से शैलों का अपक्षय होता रहता है। सिलिकेट विघटित होते हैं। सिलिका का बहुत कुछ अंश पानी में घुलकर बह जाता है और लोहे तथा ऐलुमिनियम के ऑक्साइड सजल अवस्था में रह जाते हैं। उनके साथ कुछ सिलिका और अन्य धातुओं के ऑक्साइड, जैसे मैंगनीज़, टाइटेनियम आदि धातुओं के ऑक्साइड भी रह जाते हैं। यही लैटेराइट है।

भारत में लैटेराइट का वितरण

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दक्षिण भारत, मध्य प्रदेश और बिहार के पठारों के उच्च स्थलों पर लैटेराइट के निक्षेप पाए गए हैं। ऐसे पठारों की ऊँचाई २,००० से ५,००० फुट, या इससे अधिक है। यहाँ जो निक्षेप बहुत विस्तृत हैं। पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट में भी लैटेराइट के निक्षेप मिले हैं। यहाँ ये पतले स्तर में है। तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली जिले में, उच्चतर गोंडवाना और ऊपरी क्रिटेशस संस्तरों के संधिस्थान पर भी लैटेराइट पाया गया है।

भारत के लैटेराइट को उच्चस्तरीय या निम्नस्तरीय लैटेराइट में बाँटा गया है। २,००० फुट से ऊँचे स्थलों पर पाए जानेवाले लैटेराइट को उच्चस्तरीय और उससे कम ऊँचे स्थलों पर पाए जानेवाले लैटेराइट को निम्नस्तरीय लैटेराइट कहा जाता है। निम्नस्तरीय लैटेराइट पूर्वी घाट और बर्मा में पाए जाते हैं। निम्न स्तरवाले लैटेराइट कम स्थूल (massive) और अपरदी (detrital) होते हैं। ये उच्चस्तरीय लैटेराइट के विघटन से बने हैं।भारत में इसका अच्छा विस्तार केरल और कर्नाटक में है ।

बाहरी कड़ियाँ

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