वान डी ग्राफ़ जेनरेटर

वान डी ग्राफ़ जेनरेटर (अंग्रेज़ी:Van der Graaf Generator) एक स्थिरवैद्युत जनित्र है जो एक गतिशील पट्टे का उपयोग करते हुए धातु के एक खोखले गोले के ऊपर विद्युत आवेश एकत्र करता है। धातु का यह गोला एक विद्युतरोधी स्तम्भ के ऊपरी भाग पर स्थापित होता है। इस गोले पर आवेश इकट्ठा करके इसका विद्युत विभव बहुत अधिक कर दिया जाता है। इस प्रकार यह उपकरण अति उच्च विभव की अल्प दिष्ट धारा उत्पन्न करता है।

वान डी ग्राफ जनित्र (बाह्री दृष्य)
वान डी ग्राफ जनित्र का योजनामूलक चित्र
एक प्रयोगशाला में स्थित फान डी ग्राफ मशीन
वान डी ग्राफ[1] जेनरेटर उच्च विभवान्तर (जैसे, १० लाख वोल्ट) पैदा करने में प्रयोग होता है। इसका विकास सन 1931 में वैज्ञानिक फान डी ग्राफ (Van de Graff) ने किया था।

इसका उपयोग आवेशित कणों (जैसे प्रोटॉन, आयन, अल्फा कण इत्यादि को त्वरित करने में किया जाता है।

वान डी ग्राफ जनित्र में एक विशाल गोलीय धात्विक चालक होता है, जिसकी त्रिज्या 2 से 3 मीटर होती है, जो पृथ्वी की सतह से लगभग 15 मी ऊँचे विद्युतरोधी स्तम्भों पर टिका होता है। इसमें दो घिरनियाँ होती है। ऊपर वाली घिरनी गोलीय चालक के केंद्र पर स्थित होती है तथा नीचे वाली घिरनी को एक मोटर की सहायता से तेजी से घुमाया जाता है। दोनों घिरनियो के ऊपर कुचालक पदार्थ का पट्टा लगा होता है। इस जनित्र में दो कार्बन ब्रुश होते हैं। नीचे वाले कार्बन ब्रुश को फुहार कार्बन ब्रुश व ऊपर वाले कार्बन ब्रुश को संग्राहक कार्बन ब्रुश कहते हैं। नीचे वाले कार्बन ब्रुश का सम्बन्ध उच्च विभव वाले स्रोत से होता है। ऊपर वाले कार्बन ब्रुश का सम्बन्ध गोलीय चालक से होता है। इस सम्पूर्ण उपकरण को एक लोहे की टंकी में बंद कर दिया जाता है ताकि आवेश का क्षरण न हो।

क्रियाविधि

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जब नीचे वाली घिरनी को एक मोटर की सहायता से तेजी से घुमाया जाता है, तो घिरनियों पर लिपटा पट्टा घूमने लगता है, जिससे ऊपर वाली घिरनी भी घूमने लगती है। नीचे वाला कार्बन ब्रुश उच्च विभव वाले स्रोत से धनावेश लेकर पट्टे को देता जाता है। ये धनावेश ऊपर वाले कार्बन ब्रुश द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है, परन्तु ऊपर वाले कार्बन ब्रुश का सम्बन्ध गोलीय चालक से होता है। अतः यह सम्पूर्ण आवेश चालक के बाहरी पृष्ठ पर एक समान रूप से फैल जाता है। यह क्रिया लगातार चलती रहती है और चालक गोले का विभव लगातार बढ़ता जाता है। कुछ समय पश्चात् चालक गोले का विभव 8*106 वोल्ट हो जाता है। इसके बाद और अधिक आवेश देने पर आवेश का वायु में क्षरण होने लगता है।

  1. "भारतकोश". Archived from the original on 18 जून 2011. Retrieved 15 जून 2011.

इन्हें भी देखें

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