बारीन्द्र कुमार घोष
बारीन्द्रकुमार घोष (बांग्ला : বারীন্দ্রকুমার ঘোষ ; 5 जनवरी 1880 - 18 अप्रैल 1959) भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार तथा "युगान्तर" के संस्थापकों में से एक थे। वह 'बारिन घोष' नाम से भी प्रसिद्ध हैं। बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय बारीन्द्रकुमार घोष और भूपेन्द्रनाथ दत्त (विवेकानंद जी के छोटे भाई) को ही जाता है। महान अध्यात्मवादी श्री अरविन्द घोष उनके बड़े भाई थे। सन १९०९ से लेकर १९२० तक वे सेल्युलर जेल में बन्दी थे।
प्रारंभिक जीवन
संपादित करेंश्री बारीन्द्रनाथ घोष का जन्म 5 जनवरी 1880 को लन्दन के पास क्रोयदन (croydon) नामक कसबे में हुआ था। उनका पैतृक निवास कोन्नगर था जो आजकल पश्चिम बंगाल में है। उनके पिता श्री कृष्नाधन घोष एक नामी चिकित्सक व प्रतिष्ठित जिला सर्जन थे जबकि उनकी माता देवी स्वर्णलता प्रसिद्ध समाज सुधारक व विद्वान राजनारायण बसु की पुत्री थीं। श्री अरविन्द, जो कि पहले क्रन्तिकारी और फिर अध्यात्मवादी हो गए थे, उनके तीसरे बड़े भाई थे जबकि उनके दूसरे बड़े भाई श्री मनमोहन घोष अंग्रेजी साहित्य के विद्वान, कवि और कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज व ढाका यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे।
बारिन घोष की स्कूली शिक्षा देवगढ में हुई व 1901 में प्रवेश परीक्षा पास करके उन्होंने पटना कॉलेज में दाखिला लिया। बरोड़ा में उन्होंने मिलिट्री ट्रेनिंग ली। इसी समय श्री अरविन्द से प्रभावित होकर उनका झुकाव क्रांतिकारी आन्दोलन की तरफ हुआ।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ
संपादित करें1902 में बारीन्द्र कलकत्ता वापस आये और यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघ जतिन) के साथ मिलकर बंगाल में अनेक क्रांतिकारी समूहों को संगठित करना शुरू कर दिया।
अनुशीलन समिति
संपादित करेंवारींद्र घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त के सहयोग से 1907 में कलकत्ता में अनुशीलन समिति का गठन किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य था - "खून के बदले खून"। 1905 के बंगाल विभाजन ने युवाओं को आन्दोलित कर दिया था, जो कि अनुशीलन समिति की स्थापना के पीछे एक प्रमुख कारण था।
इस समिति का जन्म 1903 में ही एक व्यायामशाला के रूप में हो गया था और इसकी स्थापना में "प्रमथनाथ मित्र", "जतिंदर नाथ बनर्जी" और " सतीश चन्द्र बोस " का प्रमुख योगदान था। एम्.एन. राय के सुझाव पर इसका नाम "अनुशीलन समिति " रखा गया। प्रमथ नाथ मित्र इसके अध्यक्ष, चित्तरंजन दास व अरविन्द घोष इसके उपाध्यक्ष और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर इसके कोषाध्यक्ष थे। इसकी कार्यकारिणी की एकमात्र शिष्य सिस्टर निवेदिता थीं। 1906 में इसका पहला सम्मलेन कलकत्ता में सुबोध मालिक के घर पर हुआ। वारींद्र घोष जैसे लोगों का मानना था की सिर्फ राजनीतिक प्रचार ही काफी नहीं है और नोजवानों को अध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। उन्होंने अनेक जोशीले नोजवानों को तैयार किया जो लोगों को बताते थे की स्वतंत्रता के लिए लड़ना पावन कर्तव्य है।
ढाका अनुशीलन समिति
संपादित करेंकार्य की सहूलियत के लिए अनुशीलन समिति का दूसरा कार्यालय 1904 में ढाका में खोला गया। जिसका नेतृत्व पुलिनबिहारी दास और पी. मित्रा ने किया। ढाका में इसकी लगभग 500 शाखाएं थीं। इसके अधिकांश सदस्य स्कूल और कॉलेज के छात्र थे। सदस्यों को लाठी, तलवार और बन्दूक चलने ली ट्रेनिंग दी जाती थी, हालाँकि बंदूकें आसानी से उपलब्ध नहीं होती थीं।
वारींद्र घोष ने 1905 में क्रांति से सम्बंधित "भवानी मंदिर " नामक पहली किताब लिखी। इसमें "आनन्द मठ" का भाव था और क्रांतिकारियों को सन्देश दिया गया था की वह स्वाधीनता पाने तक संन्यासी का जीवन बिताएं।
युगान्तर
संपादित करेंअपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु 1906 में उन्होंने भूपेन्द्रनाथ दत्त के साथ मिलकर "युगान्तर" नामक साप्ताहिक पत्र बांग्ला भाषा में प्रकाशित करना शुरू किया और क्रांति के प्रचार में इस पत्र का सर्वाधिक योगदान रहा। इस पत्र ने लोगों में राजनीतिक व धार्मिक शिक्षा का प्रसार किया। जल्द ही इस नाम से एक क्रांतिकारी संगठन भी बन गया। युगांतर का जन्म " अनुशीलन समिति " से ही हुआ था और जल्दी ही इसने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरू कर दीं। बंगाल के विभिन्न भागों में इसकी शाखाएं थीं। वरिन्द्र घोष के नेतृत्व में युगांतर समूह ने सर्वत्र क्रांति का बिगुल बजाया। इसने बम बनाये और दुष्ट अंग्रेज अधिकारीयों की हत्या का प्रयास किया।
वारीन्द्र ने दूसरी पुस्तक " वर्तमान रणनीति " लिखा, जिसे अक्टूबर-1907 में अविनाश चन्द्र भट्टाचार्य ने प्रकाशित किया। यह किताब बंगाल के क्रांतिकारियों की पाठ्य पुस्तक बन गयी। इसमें कहा गया था कि भारत की आजादी के लिए सैन्य शिक्षा और युद्ध जरूरी है।
बारिन और बाघ जतिन ने पूरे बंगाल से अनेक युवा क्रांतिकारियों को खड़ा करने में निर्णायक भूमिका अदा की। क्रांतिकारियों ने कलकत्ता के मनिक्तुल्ला में " मनिक्तुल्ला समूह " बनाया। यह उनका एक गुप्त स्थान था जहाँ वे बम बनाते और हथियार इकठ्ठा करते थे।
30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्स्फोर्ड की हत्या का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप पुलिस ने बहुत तेजी से क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी और दुर्भाग्य से 2 मई 1908 को श्री बारिन घोष को भी उनके कई साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर "अलीपुर बम केस" चलाया गया और प्रारम्भ में ही उन्हें मृत्युदण्ड की सजा दे दी गयी परन्तु बाद में उसे आजीवन कारावास कर दिया गया। उन्हें अंदमान की भयावह सेल्युलर जेल में भेज दिया गया जहाँ वह 1920 तक बन्दी रहे।
रिहाई और आगे की गतिविधि
संपादित करेंबारिन घोष को 1920 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दी गयी आम क्षमा (general amnesty) में रिहा कर दिया गया जिसके बाद वह कलकत्ता आ गए और पत्रकारिता प्रारम्भ कर दी। किन्तु जल्द ही उन्होंने पत्रकारिता भी छोड़ दी और कलकत्ता में आश्रम बना लिया। 1923 में वह पांडिचेरी चले गए जहाँ उनके बड़े भाई श्री अरविन्द ने प्रसिद्ध "श्री औरोविंद आश्रम " बनाया था। श्री अरविन्द ने उन्हें आध्यात्म और साधना के प्रति प्रेरित किया जबकि श्री ठाकुर अनुकुलचंद उनके गुरु थे। इन्होने ही अपने अनुयायियों द्वारा बारीन्द्र की सकुशल रिहाई में मदद की थी। 1929 में 'बारिन' दोबारा कलकत्ता आये और पत्रकारिता शुरू कर दी। 1933 में उन्होंने "द डान ऑफ इण्डिया (The Dawn of India) नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र शुरू किया। वह "द स्टेट्समैन से जुड़े रहे और 1950 में वह बांगला दैनिक "दैनिक बसुमती" के संपादक हो गए। 18 अप्रैल 1959 को इस महान सेनानी का देहान्त हो गया।
कृतियाँ
संपादित करेंउन्होंने अनेक पुस्तकों की भी रचना की, जैसे
- द्वीपांतर बंशी
- पाथेर इंगित
- अमर आत्मकथा
- अग्नियुग
- ऋषि राजनारायण
- The Tale of My Exile
- श्री अरविन्द