राजनारायण बसु
राजनारायण बसु (7 सितम्बर, 1826 – 18 दिसम्बर, 1899) बांग्ला लेखक एवं बंगाली पुनर्जागरण के चिन्तक थे। उन्होंने भारत देश और हिन्दू धर्म को सार्थक दिशा दी।
राजनारायण बसु | |
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श्री राजनारायण बसु | |
जन्म |
7 सितम्बर 1826 बोड़ाल, चौबीस परगना, बंगाल (अब पश्चिम बंगाल के दक्षिणी चौबीस परगना में)[1] |
मौत |
18 सितम्बर 1899 मिदनापुर, बंगाल |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
उपनाम | ऋषि राजनारायण बसु |
शिक्षा | Hare School |
पेशा | लेखक |
जीवनसाथी | प्रसन्नमयी बसु (मित्र), निस्तारणी बसु (दत्त) |
बच्चे | स्वर्णलता घोष |
उनका जन्म 7 सितम्बर, 1826 को चौबीस परगना के बोड़ाल ग्राम में हुआ था। इनके पूर्वज बल्लाल सेन के युग में गोविन्दपुर में बसे थे। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने इसे फोर्ट विलियम में मिला लिया। अतः इनका परिवार पहले ग्राम सिमला और फिर बोड़ाल आ गया।
राजनारायण बसु ने सात वर्ष की अवस्था में शिक्षारम्भ कर अंग्रेजी, लैटिन, संस्कृत और बांग्ला का गहन अध्ययन किया। 1843 में ब्राह्मधर्म के अनुयायी बनकर ये महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के संपर्क में आये। इनके आग्रह पर उन्होंने चार विद्वानों को काशी भेजकर वेदाध्ययन की परम्परा को पुनर्जीवित किया था। 1847 में इन्होंने केनोपनिषद, कठोपनिषद, मुण्डकोपनिषद तथा श्वेताश्वतरोपनिषद का अंग्रेजी में अनुवाद किया।
शिक्षा पूर्ण कर 1851 में इन्होंने अध्यापन कार्य को अपनाया। राजकीय विद्यालय में ये पहले भारतीय प्राचार्य बने। उन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के उत्साह और उसकी विफलता को निकट से देखा। मेदिनीपुर में नियुक्ति के समय इन्हें प्रशासनिक सेवा में जाने का अवसर मिला; पर इन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।
उस समय बंगाल के बुद्धिजीवियों में ब्राह्म समाज तेजी से फैल रहा था। यह हिन्दू धर्म का ही एक सुधारवादी रूप था; पर कुछ लोग इसे अलग मानते थे। हिन्दुओं को बांटने के इच्छुक अंग्रेज भी इन अलगाववादियों के पीछे थेे; पर श्री बसु ने अपने तर्कपूर्ण भाषण और लेखन द्वारा इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री स्वर्णलता का विवाह डा. कृष्णधन घोष से ब्राह्म पद्धति से ही किया। श्री अरविन्द इसी दम्पति के पुत्र थे।
देश, धर्म और राष्ट्रभाषा के उन्नायक श्री बसु ने अनेक संस्थाएं स्थापित कीं। 1857 के स्वाधीनता संग्राम की विफलता के बाद उन्होंने ‘महचूणोमुहाफ’ नामक गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाया। नवयुवकों में चरित्र निर्माण हेतु इन्होंने ‘राष्ट्रीय गौरवेच्छा सम्पादिनी सभा’ की स्थापना की। इनकी प्रेरणा से ही ‘हिन्दू मेला’ प्रारम्भ हुआ। बंगाल में देवनागरी लिपि, हिन्दी और संस्कृत शिक्षण तथा गोरक्षा के लिए भी इन्होंने अनेक प्रयास किये। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने वन्दे मातरम् गीत 1875 में लिखा था। श्री बसु ने जब उसका अंग्रेजी अनुवाद किया, तो उसकी गूंज ब्रिटिश संसद तक हुई।
देवेन्द्रनाथ ठाकुर के प्रभाव में आकर उन्होंने बंगाल की युवा पीढ़ी पर अंग्रेजी शिक्षा के दुष्परिणामों की गहरी समीक्षा की और राष्ट्रीय पुनर्जागरण के गंभीर प्रयास की आवश्यकता अनुभव की। इस प्रयास का आरम्भ करने की दृष्टि से उन्होंने एक नई संस्था की स्थापना का विचार किया । इसका नामकरण उन्होंने “सोसाइटी फॉर द प्रोमोशन ऑफ नेशनल फीलिंग अमंग दि एजुकेटेड नोटिव्ज ऑफ बंगाल' (शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था) सोचा। सन् १८६६ में उन्होंने इस प्रस्तावित संस्था की भावभूमि की स्पष्ट कल्पना देने के लिए एक प्रॉस्पेक्टस या उद्देश्यावली प्रकाशित की। इस उद्देश्यावली में का एक छोटा सा भाग प्रस्तुत है-
- यह राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था सर्वप्रथम हमारी राष्ट्रीय शारीरिक क्रीडाओं व व्यायामों को पुनर्जीवित करने की दिशा में गंभीर प्रयास करेगी । राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था हिंदू संगीत की शिक्षा देने के लिए एक आदर्श विद्यालय की स्थापना करेगी। राष्ट्रीयता संचारिणी संस्था हिंदू चिकित्सा-शास्त्र (आयुर्वेद) का विद्यालय स्थापित करेगी, जहाँ हिंदू वैद्यक शास्त्र एवं ओषधि विज्ञान को सभी वर्तमान विकृतियों एवं न्यूनताओं से शुद्ध करके सिखाया जाएगा। इस हिंदू चिकित्सा विद्यालय में ऐसे व्यक्ति को शिक्षक नियुक्त किया जाएगा, जिसे अंग्रेजी एवं भारतीय दोनों प्रकार के बैद्यक शास्त्रों का ज्ञान हो।
श्री बसु ने मुसलमान तथा ईसाइयों को हिन्दू धर्म में वापस लाने के लिए ‘महाहिन्दू समिति’ बनाई। इसके कार्यक्रम ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ तथा ‘वन्दे मातरम्’ के गान से प्रारम्भ होते थे। यद्यपि शासन के कोप से बचने के लिए ‘गॉड सेव दि क्वीन’ भी बोला जाता था। इसके सदस्य एक जनवरी के स्थान पर प्रथम बैसाख को नववर्ष मनाते थे। वे ‘गुड नाइट’ के बदले ‘सु रजनी’ कहते थे तथा विदेशी शब्दों को मिलाये बिना शुद्ध भाषा बोलते थे। एक विदेशी शब्द के व्यवहार पर एक पैसे का अर्थदण्ड देना होता था। युवकों में शराब की बढ़ती लत को देखकर इन्होंने ‘सुरापान निवारिणी सभा’ भी बनाई।
‘हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता’ नामक तर्कपूर्ण भाषण में उन्होंने इसे वैज्ञानिक और युगानुकूल सिद्ध किया। मैक्समूलर तथा जेम्स रटलेज जैसे विदेशी विद्वानों ने इसे कई बार उद्धृत किया है। इस विद्वत्ता के कारण उन्हें ‘हिन्दू कुल चूड़ामणि’ तथा ‘राष्ट्र पितामह’ जैसे विशेषणों से विभूषित किया गया। तत्कालीन सभी प्रमुख विचारकों से इनका सम्पर्क था। ऋषि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी अखण्डानन्द, मदन मोहन मालवीय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, माइकल मधुसूदन दत्त तथा कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ. ह्यूम से भी इनकी भेंट होती रहती थी।
1868 में सेवानिवृत्त होकर ये 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक देवधर वैद्यनाथ धाम में बस गये। 18 दिसम्बर, 1899 को वहीं इनका देहान्त हुआ।
उल्लेखनीय कृतियाँ
संपादित करेंराजनारायण बसु ने कठोपनिषद, केनोपनिषद, मुण्डकोपनिषद तथा श्वेताश्वतरोपनिषद उपनिषदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनके कुछ उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं:
- राजनारायण बसुर बक्तृता (प्रथम भाग-१८५५, द्वितीय भाग-१८७०)
- ब्राह्म साधन (१८६५)
- धर्मतत्त्बदीपिका (प्रथम भाग-१८६६, द्वितीय भाग-१८६७)
- आत्मीय सभार सदस्यदेर बृत्तान्त (= आत्मीय सभा के सदस्यों का वृतान्त ; १८६७)
- हिन्दु धर्मेर श्रेष्ठता (अर्थ = हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता ; १८७३)
- सेकाल आर एकाल (= तब और अब ; १८७४)
- ब्राह्मधर्मेर उच्च आदर्श ओ आमादिगेर आध्यात्मिक अभाव (== ब्राह्मधर्म का उच्च आदर्श और हमारी आध्यात्मिक कमियाँ ; १८७५)
- हिन्दु अथबा प्रेसिडेन्सि कलेजेर इतिबृत्त (= हिन्दू कालेज अथवा प्रेसीडेन्सी कालेज का इतिवृत ; १८७६)
- बांला भाषा ओ साहित्य बिषयक बक्तृता (== बांग्ला भाषा और साहित्य सम्बन्धी भाषण ; १८७८)
- बिबिध प्रबन्ध (प्रथम खन्ड-१८८२)
- ताम्बुलोप हार (१८८६)
- सारधर्म (१८८६)
- बृद्ध हिन्दुर आशा (=वृद्ध हिन्दू की आशा ; १८८७)
- राजनारायण बसुर आत्मचरित (=राजनारायण बसु का आत्मचरित ; १९०९)
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ राजनारायण बसुर आत्मचरित, Basu, Rajnarayan, Kuntaline Press, 1909, p. 1