"चंपू": अवतरणों में अंतर
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चंपू काव्य का प्रथम निदर्शन [[त्रिविक्रम भट्ट]] का [[नलचंपू]] है जिसमें चंपू का वैशिष्ट्य स्फुटतया उद्भासित होता है। दक्षिण के राष्ट्रकूटवंशी राजा कृष्ण (द्वितीय) के पौत्र, राजा जगतुग और लक्ष्मी के पुत्र, इंद्रराज (तृतीय) के आश्रय में रहकर त्रिविक्रम ने इस रुचिर चंपू की रचना की थी। इंद्रराज का राज्याभिषेक वि.सं. 972 (915 ई.) में हुआ था और उनके आश्रित होने से कवि का भी वही समय है दशम शती का पूर्वार्ध। इस चंपू के सात उच्छ्वासों में नल तथा दमयंती की विख्यात प्रणयकथा का बड़ा ही चमत्कारी वर्णन किया गया है। काव्य में सर्वत्र शुभग संभग श्लेष का प्रसाद लक्षित होता है।
जैन कवि [[सोमप्रभसूरि]] का "यशस्तिलक चंपू" दशम शती के मध्यकाल की कृति है (रचनाकाल 959 ई.)। ग्रंथकार
[[राम]] तथा [[कृष्ण]] के चरित का अवलंबन कर अनेक प्रतिभाशाली कवियों ने अपनी प्रतिभा का रुचिर प्रदर्शन किया है। ऐसे चंपू काव्यों में [[परमार भोज|भोजराज]] (11वीं शती) का [[चंपूरामायण|रामायण चंपू]], [[अनंतभट्ट]] का "भारत चंपू", [[शेष श्रीकृष्ण]] (16वीं शती) का "पारिजातहरण चंपू" काफी प्रसिद्ध हैं। भोजराज ने रामायण चंपू की रचना किष्किंधा कांड तक ही की थी, जिसकी पूर्ति [[लक्ष्मण भट्ट]] ने "युद्धकांड" की तथा
जैन कवियों के समान [[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्य मतावलंबी]] वैष्णव कवियों न अपने सिद्धांतों के पसर के लिये इस ललित काव्यमाध्यम को बड़ी सफलता से अपनाया। भगवान [[श्रीकृष्ण]] की ललाम लीलाओं का प्रसंग ऐसा ही सुंदर अवसर है जब इन कवियों ने अपनी अलोकसामान्य प्रतिभा का प्रसाद अपने चंपू काव्यों के द्वारा भक्त पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। कवि [[कर्णपूर]] (16वीं शती) का [[आनंदवृंदावन]] चंपू, तथा [[जीव गोस्वामी]] (17वीं शती) का [[गोपालचंपू]] सरस काव्य की दृष्टि से नितांत सफल काव्य हैं। इनमें से प्रथम काव्य कृष्ण की बाललीलाओं का विस्तृत तथा विशद वर्णन करता है, द्वितीय काव्य कृष्ण के समग्र चरित का मार्मिक विवरण है।
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