"गुण (भारतीय संस्कृति)": अवतरणों में अंतर
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== सांख्यशास्त्र ==
[[सांख्य शास्त्र]] में 'गुण' शब्द प्रकृति के तीन अवयवों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रकृति '''[[
== वैशेषिकदर्शन ==
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== साहित्यशास्त्र ==
[[काव्यशास्त्र|साहित्यशास्र]] में दस शब्दगुण और दस ही अर्थगुण माने गए हैं। इन दोनों प्रकारों में गुणों के नाम एक जैसे ही है
श्लेष, जिस बंध में शैथिल्य न हो। प्रसाद-गुण-युक्त रचना में पहले तो शैथिल्य दिखाई देता है, बाद में गाढ़ता आ जाती है। जिस रचना में आरंभ से अंत तक एक ही रीति का निर्वाह हो वह समता गुण से युक्त होती है। जिस रचना में पद अलग अलग हों और संयुक्त वर्णों का अभाव सा हो उसे माधुर्य-गुण-युक्त कहते हैं। जिस रचना में पुरुष वर्ण न हो वह सुकुमार-गुण-युक्त होती है। जिस रचना का अर्थ अनायास ज्ञात हो जाता है उसे अर्थव्यक्ति गुण से युक्त मानते हैं। जिस रचना में कठोर वर्णों का संनिवेश हो वह उदारता गुण से युक्त होती है। जिस रचना में संयुक्त वर्णों का प्राचुर्य हो उसे ओजस् गुण से युक्त मानते हैं। अप्रचलित पदों का परिहार करते हुए प्रचलित प्रयोगों से युक्त रचना कांति-युक्त होती है। जिस रचना में पहले गाढ़ बंध हो और बाद में शिथिलता हो उसे समाधि-गुण-युक्त रचना मानते हैं। ये शब्दगुण रचना में शब्दसंनिवेश की विशेषता से संबंधित है।
अर्थगुणों का संबंध शब्द से न होकर रचना के अर्थ से होता है। क्रिया के कर्मों का एकत्र संनिवेश श्लेष गुण है। जितना अर्थ वर्णनीय हो उसके अनुरूप पदों के प्रयोग से जो अर्थ की स्पष्टता होती है उसे प्रसाद कहते हैं। उपक्रम का निर्वाह करते हुए अर्थ की घटना समता कहलाती है। एक ही उक्ति को पुन: दूसरे ढंग से कहना माधुर्य है। अस्थान में शोकादि का प्रदर्शन जिस रचना में न हो उसको सुकुमारता से युक्त मानते हैं। वर्णनीय वस्तु के असाधारण रूप और क्रियाओं का वर्णन अर्थव्यक्ति कहलाता है। अश्लीलता से रहित रचना उदारता-गुण-युक्त होती है। एक पदार्थ का बहुत पदों से, बहुत से पदार्थों का एक ही पद से, एक वाक्यार्थ का बहुत से वाक्यों से तथा बहुत से वाक्यार्थों का एक ही वाक्य से निर्देश करना तथा विशेषणों का अभिप्राय प्रयोग ओजस् कहलाता है। जिस रचना में रस स्पष्ट प्रतीयमान होता है उसे कांतिगुणयुक्त कहते हैं। अमुक अर्थ का वर्णन पहले नहीं हुआ अथवा वर्णन किसी पूर्वकवि के वर्णन की छाया है, यह आलोचना समाधि कहलाती है। [[मम्मट]], [[विश्वनाथ]], [[जगन्नाथ]] आदि नव्य साहित्यशास्रियों के अनुसार माधुर्य, ओजस् तथा प्रसाद ये ही तीन गुण मुख्य हैं। बाकी गुणों का इन्हीं में अंतर्भाव हो जाता है। कुछ आचार्य अर्थगुणों को स्वीकार ही नहीं करते। ये गुण रस मात्र के धर्म माने गए हैं। ==अन्य सन्दर्भों में==
===व्याकरण===
[[संस्कृत व्याकरण]] में 'अर्' , 'ए' और 'ओ' को '''गुण''' कहा जाता है जबकि 'आर्' , 'ऐ' , और 'औ' को वृद्धि। उदाहरण के लिए, महा + ईश = महेश - यह गुणसन्धि कहलाती है। इसी तरह सूर्य + उदय = सूर्योदय भी गुणसन्धि है।
===आयुर्वेद===
[[आयुर्वेद]] में किसी पदार्थ के गुण '''२० गुणों''' में से कोई एक या अनेक होते हैं। ये २० गुण निम्नलिखित हैं-
=== गुण ===
{|Width="40%" Style="Border: solid 1px #0AA0FF"
!Align="Center" Style="Background-color: #0AA0FF"|'''गुण'''
!Align="Center" Style="Background-color: #0AA0FF"|'''विरुद्ध गुण'''
|-Align="Center"
|गुरू (भारी) || लघु (हलका)
|-Align="Center" Style="Background-color: #CDECFF"
|मंद || तीक्ष्ण (तीव्र)
|-Align="Center"
|हिम, शीत (ठण्डा) || उष्ण (गरम)
|-Align="Center" Style="Background-color: #CDECFF"
|स्निग्ध (चिकना) || रूक्ष (खुरदुरा)
|-Align="Center"
|श्लक्ष्ण || खर
|-Align="Center" Style="Background-color: #CDECFF"
|सान्द्र (गाढ़ा) || द्रव (पतला)
|-Align="Center"
|मृदु (कोमल) || कठीण (बळकट, दृढ)
|-Align="Center" Style="Background-color: #CDECFF"
|स्थिर (टिकाऊ) || चल, सर (गतिमान)
|-Align="Center"
|सूक्ष्म (अतिशय बारीक) || स्थूल (मोटा)
|-Align="Center" Style="Background-color: #CDECFF"
|विशद (स्वच्छ) || पिच्छील (बुळबुळीत)
|}
===नीतिशास्त्र===
==इन्हें भी देखें==
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