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वेदान्त दर्शन सामान्य अवधारणाएँ
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वेदांत दर्शन की प्रमुख अवधारणाएं
 
आचार्य शंकर के अनुसार ब्रह्म की यथार्थ की सत्ता  है। इस प्रकार वह प्रतीति रूप, देशिक,भौतिक और चेतना जगत सब से भिन्न भिन्न है। ब्रह्म वह है जिसके संबंध में मान लिया जाता है कि वह मूलभूत है, यद्यपि वह किसी भी अर्थ में द्रव्य नहीं है।
 
(१) ब्रह्म परमार्थ सत्य है :-
 
ब्रह्म सर्वोच्च परमार्थ सत्य सत्य है । ब्रह्म पूर्ण तथा एक मात्र सत्य है। वह मनुष्य के पुरुषार्थ का चरम लक्ष्य है  तथा ज्ञान का आधार भी वही है। ब्रह्म परम सत्य, सनातन तथा अपरिवर्तनीय है। जब साधक को ब्रह्मा का ज्ञान प्राप्त होता है तब उसका सांसारिक ज्ञान जो वस्तुतः अज्ञान है, नष्ट हो जाता है।
 
(२) ब्रह्म सत् है :-
 
ब्रह्म स्वयं ज्ञान है वह ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है। ज्ञाता और ज्ञेय के ज्ञान की प्रक्रिया में जो भेद हैं, वे ब्रह्म ज्ञान के संबंध में लागू नहीं होते हैं। ब्रह्म समस्त वस्तुओं का सत् है। ब्रह्म निर्गुण है।
 
(३) ब्रह्म सगुण है :-
 
      उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी। निर्गुण ब्रह्म को पर ब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म को अपर ब्रह्म कहा गया है। परम ब्रह्म निरुपाधि, निर्विशेष और निर्गुण है। अपर ब्रह्म सोपाधि सविशेष तथा सगुण है।
 
        यही नित्य और निर्गुण जब अभिधा या उपाधि से संबंध होता है, सर्वज्ञ और शक्तिमान सर्वेश्वर्य संपन्न ईश्वर कहलाता है। जो सृष्टि का उत्पादक, पालक और प्रलयकाल में सबका उपसंहारक है। सही सब गुणों के आरोप से सगुण कहलाता है।
 
      इस प्रकार ब्रह्म के दोनों रूप आचार्य शंकर ने उपरोक्त प्रकार से स्वीकार किए हैं।
 
(४) ब्रह्म पर अपर है :-
 
       जहां पर अभिधा कल्पित नामरूप का निषेध करके अस्थूल और निर्गुण आदि शब्दों से भ्रम का उपदेश होता है, वहां से परब्रह्म को समझना चाहिए और जहां पर किसी नामरूप आदि के विशेषण से विशिष्ट ब्रह्म की उपासना के लिए निर्देश हो वहां अपर ब्रह्म है।
 
(५) पर और अपर का का समन्वय :-
 
       इस संबंध में प्रश्न उठाया जा सकता है कि पर और अपर निर्गुण और सगुण एवं मुख्य और गौण शब्दों से अधिगम्य दो विरोधी भावों का एक ब्रह्म में ही समन्वय कैसे होगा? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आचार्य शंकर ने अनुयायियों के लक्षण के  भी दो भेद कर डाले हैं। पहला स्वरूप लक्षण का संबंध सर्वकालीन वस्तुओं की विशेषताओं से संबद्ध रहता है और दूसरा तटस्थ लक्षण का संबंध वस्तु की अल्पकालीन विशेषता से संबद्ध रहता है।
 
        उदाहरण के लिए एक गडरिया रंगमंच पर राजा बनकर अभिनय करता है। वह अभिनय में अन्य राजाओं को जीतकर उन पर पर शासन करता है।
 
(६) ब्रह्म एक है :-
 
     ब्रह्मा शंकर का मानना है कि ब्रह्मा के दो रूप रूप अज्ञान है और यह अज्ञान ही है जिसके कारण ब्रह्म सगुण ईश्वर और सीमित जीव के रूप में दिखाई देता है।
 
(७) अभेद :-
 
      आत्मा और ब्रह्मा के मध्य कोई अंतर नहीं है। अज्ञान वश इन दोनों के मध्य अभेद बुद्धि होती है तथा जीव ब्रह्म को उपास्य समझता है। आत्मा के रूप में ब्रह्म घट-घट में व्याप्त है। अणु में भी वही है जो विभू में है।
 
(८) ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप है :-
 
        ब्रह्म सत्य और अनंत ज्ञान स्वरूप है। जो सत् है वह चित् है। जो चित् है वह सत् भी है। वह ब्रह्म समस्त गुणों से परे है। तथापि वह निषेधात्मक नहीं है। ब्रह्म का अनुभव निरपेक्ष सहज ज्ञान द्वारा किया जा सकता है। ब्रह्मानंद स्वरूप है, पर वह आनंद केवल अनुभव का विषय है।
 
(९) माया :-
 
अद्वैतवाद की महिमा माया के महामंत्र से अभिप्रमाणित है। यह माया क्या है? माया द्रव्य नहीं है। इसी कारण इसे उपादान  कारण नहीं माना जा सकता। यह केवल मात्र एक व्यापार है, जो ब्राह्मरूपी उपादान कारण से उत्पन्न होने के कारण भौतिक पदार्थ जगत की उत्पत्ति करता है। माया एक वस्तु है यह अज्ञान है। माया का स्वरूप माया के दो स्वरूप तथा कार्य हैं।
 
(१) पहला आवरण अर्थात् सत्य को छिपाना दूसरे शब्दों में जगत के आधार ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप छिपा देना।
 
(२) दूसरा विक्षेप अर्थात् उसकी मिथ्या व्याख्या करना दूसरे शब्दों में उसे संसार के रूप में अाभासित करना।
 
(१०) माया की व्यापकता :-
 
चित् सभी और दृष्टिगोचर होता है। यह केवल प्रकृति के क्षेत्र में सीमित नहीं है। प्रतीति आधार पर यह न केवल जड़ जगत पर ही वर्णन चेतन जीव तथा ईश्वर तक अपने प्रभाव को अभिव्यक्त करती है। जब तक माया या अविद्या का प्रभाव रहता है। तब तक जीव या ईश्वर का भेद बना रहता है।
 
(११) माया-अविद्या :-
 
         चूंकी माया स्वरूप में छली गई है, इसे अविद्या अथवा मिथ्या ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। पूर्ण विराम यह केवल बोध का अभाव ही नहीं है वरन् निश्चित रूप से भ्रान्ती है। जब इस व्यापार का संबंध ब्रह्म के साथ होता है। तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है।
 
एक अचल निरूपाधिक तब अपनी ही माया रूप शक्ति से ऐसा बन गया जिसे कर्ता की संज्ञा प्रदान कर दी गई।
 
(१२) माया और इश्वर :-
 
         माया ईश्वर की शक्ति है यह ईश्वर का अंतः स्थायी बल है, जिसके द्वारा वह संभाव्यता को वास्तविक जगत के रूप में परिणत कर देता है। नित्यरूप ईश्वर ही यह उत्पादिका शक्ति है। इसी साधन से सर्वोपरि प्रभु ब्रह्म संसार की रचना करता है। माया का कोई स्थान नहीं है। यह ईश्वर के अंदर ही रहती है जिस प्रकार उष्णता अग्नि में रहती है, इसकी उपस्थिति इसके कार्यों द्वारा अनुमान से जानी जाती है। माया नाम और रूप में समान है। जो अपने अविकसित अवस्था में ईश्वर के अंदर समवाय संबंध से रहती है। जो अपनी विकसित अवस्था में जगत का निर्माण करती है।
 
आचार्य शंकर के अनुसार माया में निम्नलिखित गुण हैं-
 
(१) अनादि (२) ईश्वर की शक्ति (३) जड़ (४) यथार्थ ना होने पर भाव रूप (५) विज्ञान तथा निरस्था (६) व्यावहारिक तथा विवर्त मात्र (७) अनिर्वचनीय।
 
== काव्य शिक्षण ==