शिब्बन लाल सक्सेना (१३ जुलाई १९०६ - २० अगस्त १९८४) भारत के शिक्षाविद, स्वतन्त्रता सेनानी एवं राजनेता थे। वे संविधान सभा के सदस्य तथा सांसद रहे। पेशे से डिग्री कालेज के अध्यापक शिब्बन लाल सक्सेना ने १९३२ में महात्मा गाँधी के आह्वान पर अध्यापन त्यागकर पूर्ण रुप से राष्ट्रीय आन्दोलन में हिस्सा लिया एवं महराजगंज के किसानों और मजदूरों के सामाजिक-आर्थिक उन्नति के लिए कार्य किया। वे 'महराजंगज के मसीहा' के रूप में प्रसिद्ध हैं।

शिब्बन लाल सक्सेना


जन्म १३ जुलाई १९०६
आगरा
मृत्यु २० अगस्त १९८४ (78 वर्ष की आयु में)
लखनऊ
राजनैतिक पार्टी जनता पार्टी
धर्म हिन्दू

प्रारंभिक जीवन संपादित करें

शिब्बनलाल सक्सेना का जन्म १३ जुलाई १९०६ में अपने मामा के घर आगरा में हुआ। इनके पिता का नाम श्री छोटेलाल सक्सेना था जो पोस्टमास्टर थे। इनकी माता का नाम 'बिट्टी रानी' था। चाचा का नाम श्री श्यामसुंदर लाल सक्सेना एवम श्री रामसुंदर लाल सक्सेना था । आप बरेली में आवला तहसील, बल्लिया नामक गाँव के मूल निवासी थे। शिब्बनलाल का परिवार अपने समय में बल्लिया का एक समृद्ध परिवार था जिसकी वजह से उसका गाँव में काफी सम्मान था।

दुर्भाग्य से शिब्बनलाल की माता का देहान्त सात साल की उम्र में और उसके डेढ़ साल बाद ही पिता का भी देहान्त हो गया। शिब्बनलाल और उनके दो छोटे भाई-बहन होरीलाल और प्रियंवदा को उनके मामा दामोदार लाल सक्सेना ने सहारा दिया और अपने साथ कानपुर ले गये जहाँ पर वह स्वयं वकालत करते थे। शिब्बनलाल की प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा कानपुर के शासकीय हाई स्कूल, क्राइस्ट चर्च इण्टर कॉलेज, और डीएवी कॉलेज में हुई। वे प्रारम्भ से ही काफी मेधावी छात्र रहे थे जिसके फलस्वरूप उन्होने अपनी सारी परीक्षाएँ न केवल प्रथम श्रेणी में बल्कि स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की थीं।

कानपुर में शिब्बनलाल को अपने सामर्थ्य से कहीं अधिक की सुविधायें प्रदान करने के बाद उनके मामा दामोदर लाल ने उन्हे उच्च शिक्षा के लिये इलाहाबाद विश्वविद्यालय भेजा जहाँ से शिब्बनलाल ने 1927 में अपनी बी. ए. की परीक्षा गणित और दर्शनशास्त्र विषयों के साथ स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की। १९२९ में इन्होंने एम. ए. की परीक्षा स्वर्ण पदक प्राप्त करते हुये गणित विषय के साथ उत्तीर्ण की। सन् १९३० में शिब्बनलाल गोरखपुर के सेन्ट एण्ड्रूयूज कालेज में गणित के प्रवक्ता के रुप में नियुक्त हुये और १९३१ में उन्होने आगरा विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र विषय से एम. ए. की डिग्री ली।

शिब्बनलाल शुरू से ही स्वराज आंदोलन से काफी प्रभावित थे जिसकी वजह से वह हमेशा ही लोगों की नजरों में चढे रहे। विश्वविद्यालय में एक बार किसी उत्सव में भाग लेने पहुँचे शिब्बनलाल ने शेरवानी पहना था जिसे देखकर प्राचार्य ने उन्हे देशी पहनावा पहनने के लिये टोक दिया। शिब्बनलाल ने उसी समय से अंग्रेजी वेश-भूषा को त्यागने का प्रण किया आजीवन धोती और कुर्ता ही पहनते रहे। शिब्बनलाल पढ़ाई के साथ-साथ खेलों को भी पूरा महत्व देते थे और यह मानते थे कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास होता है। वे पहलवानी करते थे और विश्वविद्यालय में फुटबाल टीम के कप्तान थे।

कार्य संपादित करें

स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी संपादित करें

कानपुर में रहते हुये ही शिब्बनलाल आजादी की लड़ाई का महत्व समझने लगे थे और स्वराज आंदोलन में अपनी उपस्थिति दर्शाने लगे थे। सन् १९१९ में हुये जलियावाला कांड ने जब पूरे भारत को हिला कर रख दिया तब कानपुर में शिब्बनलाल ने भी १३ वर्ष की उम्र में एक विरोध जुलूस का नेतृत्व किया और पकड़े गये। उस समय उन्हे तीन बेतों की सजा मिली उनका विश्वास और भी मजबूत बना दिया और आजादी के लिये लड़ी जा रही लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये प्रेरित किया।

महात्मा गाँधी से मुलाकात और स्वतंत्रता की लड़ाई के लिये प्रेरणा संपादित करें

सन् १९३० में शिब्बनलाल सेंन्ट एण्ड्रूयूज कालेज में गणित के प्रवक्ता नियुक्त हुये और उन्होने यहीं से कारखाना मजदूरों को एकत्र करके कारखाना मालिकों की मनमानी का विरोध करना शुरु कर दिया। उसी समय महात्मा गाँधी एक सभा में भाषण देने के लिए गोरखपुर आये हुये थे। गाँधी जी से उनकी पहली मुलाकात यहीं हुई और गाँधी जी ने उन्हे कांग्रेस में आने की सलाह दी जिसे शिब्बनलाल ने स्वीकार कल लिया। इसी घटना के कुछ दिनों के बाद ही शिब्बनलाल कांग्रेस के एक अधिवेशन में भाग लेने के लिये बनारस पहुँचे जहाँ पर गाँधी जी ने एक बड़ी ही हृदयविदारक घटना के बारे में बताया जिसने शिब्बनलाल को पूरी तरह झकझोर दिया और शिब्बनलाल ने महराजगंज जाने का निर्णय लिया। अखबार में निकली एक खबर के अनुसार महात्मा गाँधी ने बताया कि महारजगंज में जमींदारों ने राजबली नाम के एक किसान को जिंदा जला दिया है। गाँधी जी ने उस समय उपस्थित लोगों से महराजगंज की दयनीय हालत के बारे में चर्चा की और किसी को वहाँ जाकर जागृति फैलाने का अनुरोध किया। कोई जाने के लिये तैयार नही हुआ अंत में शिब्बनलाल ने महाराजगंज जाकर वहाँ के लोगों के एक करने का बीडा़ उठाया और गाँधी जी से आशीर्वाद लेकर अपने प्रवक्ता पद से इस्तीफा देकर महराजगंज आ गये।

महराजगंज में संपादित करें

उस सम्य महारजगंज गोरखपुर जिले का एक तहसील हुआ करता था। यहाँ पर किसी भी प्रकार की कोई सुविधाएँ नहीं थीं। चारों ओर जमींदारों का आतंक छाया हुआ था जिनके खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी में नही थी। ऐसे समय में जब शिब्बनलाल यहाँ आये तो उन्हे अपने साथ काम करने के लिये लोगों को इकट्ठा करने में ही तमाम परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। आरम्भ में उन्होने गाँव-गाँव जाकर प्राथमिक स्तर पर लोगों का संगठन खड़ा किया और उन्हे जमींदारो के खिलाफ तैयार किया। गन्ना यहाँ की प्रमुख फसल थी। गन्ना किसानों के हक के लिये उन्होने १९३१ में 'ईख संघ' की स्थापना की जिसका अस्तित्व आज भी है और जो सबसे पुराने संघों में से एक है। आगे चलकर ईख संघ के आंदोलनों की वजह से ही केंन्द्रीय विधान सभा को गन्ना एक्ट लागू करना पड़ा था। शिब्बनलाल ने अपनी सफल हड़तालों की वजह से गन्ने का तत्कालीन मूल्य दो आना प्रति मन से पाँच आना प्रति मन करा दिया था।

किसान एवं मजदूर आन्दोलन संपादित करें

शिब्बनलाल ने महराजगंज आते ही यह समझ लिया था कि यहाँ के किसानों में जागृत फैलाये बिना यहाँ का विकास असम्भव है जिसके लिये उन्होने पहले किसानों को ही एक करना प्रारम्भ किया। उस समय जमींदार ही उन सारी जमीनों के मालिक होते थे जिसे किसान जोतते थे और अन्न उगाते थे। किसान अपनी उपज का अधिकांश हिस्सा जमींदारों को लगान के रुप में दे देते थे जिससे उनकी हालत में कोई सुधार नही हो रहा था।

गन्ना किसानों की बेहतरी के लिये उन्होने गन्ना उत्पादन नियन्त्रण बोर्ड की भी स्थापना की। जिस समय पूरा भारत गाँधी जी के अहिंसा मार्ग पर चलते हुये आजादी का सपना देख रहा था उसी समय महराजगंज शिब्बनलाल के नेतृत्व में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की दिशा में कदम बढ़ा रहा था। १९३७ से लेकर १९४० तक शिब्बनलाल ने विभिन्न किसान आन्दोलनो से अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया जिसकी वजह से सरकार को जमीनों का एक बार फिर से सर्वे कराना पड़ा और जमीनों का पुनः आबंटन करना पड़ा। यह वही व्यवस्था थी जिसकी वजह से तत्कालीन महराजगंज के एक लाख पच्चीस हजार किसानों को उनकी जमीनों पर मालिकाना हक प्राप्त हुआ और किसानों को जमींदारों के चंगुल से आजादी मिली। अखबारों ने शिब्बनलाल को 'पूर्वी उत्तर प्रदेश का लेनिन' कहकर संबोधित किया था। किसानों की जमीनों पर मालिकाना हक की इस व्यवस्था को 'गण्डेविया बंदोबस्त' कहते हैं।

शिब्बनलाल ने न केवल किसानों के हित के लिये बल्कि कारखाना मजदूरों के बेहतरी के लिये काम किया। उस समय महाराजगंज प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्र था जसकी वजह से इसके विभिन्न उपक्षेत्रों जैसे-घुघली, सिसवां, फरेन्दा इत्यादि में चीनी मिलें अपनी उन्नत अवस्था में थीं लेकिन इनके मजदूरों की हालत बड़ी खराब थी। शिब्बनलाल ने इन मिलों में मजदूर संघ बनाये और इनके मालिकों के अत्याचारों पर लगाम लगाई। अपने विकास के कार्यों और फौलादी इरादों की वजह से शिब्बनलाल इस क्षेत्र के लिये मसीहा बनकर उभरे जिसकी वजह से यहाँ के जमींदारों ने उनके खिलाफ तरह-तरह के षडयंत्र करना शुरू कर दिया। किसानों के लिये शिब्बनलाल का नारा हुआ करता था कि 'अपने खेत के मेड़ पर डटे रहो, उसे हरगिजन नही छोड़ो'।

१९४० तक आते-आते शिब्बनलाल जमींदारों के लिये आँख की किरकिरी बन चुके थे जिसे निकालना उनके लिए आवश्यक हो गया था। शिब्बनलाल पर जमींदारों और पुलिस का मिलाजुला पहला सशक्त हमला 1942 में हुआ जिसमें शिब्बनलाल बचकर तो निकल गये लेकिन उनके तीन कार्यकर्ता शहीद हो गये। शहीदों की याद में विशुनपुर गबड़ुआ नामक गाँव में एक शहीद स्मारक भी बना हुआ है। यहाँ से निकलने के बाद शिब्बनलाल को आखिरकार गोड़धोवा गाँव के बाहर उसी गाँव के जमींदार ने पकड़ लिया क्योंकि वह शिब्बनलाल पर घोषित किये गये पुरस्कार को लेना चाहता था। जब गोड़धोवा गाँव के जमींदार ने शिब्बनलाल को अपने आंगन में पकड़कर रखा था तो उसी समय हरपुर महन्थ का काजी वहाँ पर पहुँचा और उसने शिब्बनलाल सक्सेना को माँगा जिसे न देने पर काजी ने जमींदार को गोली मार दी और उसकी वहीं पर मृत्यु हो गई। हरपुर महन्थ ने शिब्बनलाल को गोरखपुर के तत्कालीन कलेक्टर ई. वी. डी. मॉस को सौंप दिया जहाँ से शिब्बनलाल को कालकोठरी में डाल दिया गया जहाँ पर वह छब्बीस महीनों तक रहे और उन पर ना जाने कितने अत्याचार किये गये जिसकी वजह से शिब्बनलाल की ठीक तरह से बोलने की शक्ति जाती रही।

महराजगंज में शिक्षा की शुरुआत संपादित करें

१९४० से पहले महराजगंज में कोई स्कूल नही था। चारों तरफ अशिक्षा का बोलबाला था। मुश्किल से ही कोई शिक्षितप व्यक्ति मिलता था। शिब्बनलाल ने अशिक्षा की कमी से होने वाली समस्या को समझा और १९४० में अपने राजनीतिक जीवन के प्रथम गुरू गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर यहाँ का पहला स्कूल खोला। इसका वर्तमान नाम गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटरमीडियेट कालेज है। १३ मार्च १९६५ में उन्होने यहाँ का पहला डिग्री कालेज आरम्भ किया जिसका नाम जवाहर लाल नेहरू के नाम पर रखा। इसके बाद २४ मार्च १९७२ में उन्होने दूसरा डिग्री कालेज लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर खोला। शिक्षा के क्षेत्र में शिब्बनलाल द्वारा जलायी जाने वाली अलख का अन्त यहीं नहीं हुआ और उन्होने अपना अंतिम डिग्री कालेज सिसवां के बीसोखोर में अपने पिता और मामा की याद में खोला जिसका नाम उन्होने छोटेलाल दामोदर प्रसाद स्मारक डिग्री कालेज रखा। वर्तमान में इस कालेज के नाम में शिब्बनलाल भी जुड़ गया है। इसके अतिरिक्त शिब्बनलाल ने 'शकुन्तला बाल विद्या मंदिर' के नाम से एक जूनियर हाई स्कूल भी खोला।

राजनीति संपादित करें

१९४६ में शिब्बनलाल संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य चुने गये और संविधान निर्माण में भी अपना योगदान दिया।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे महराजगंज के पहले सांसद बने और इस क्षेत्र के विकास के लिये कार्य किया। उन्होने महाराजगंज को रेलवे लाइन से जोड़ने के लिये १९४६ में ही प्रयास शुर कर दिया था लेकिन उनके उस प्रयास का महराजगंज को आज भी नही मिला है। आजादी के बाद उन्होने कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और अपनी खुद की पार्टी बनाकर सांसद निर्वाचित हुए। कुल मिलाकर वे महराजगंज से तीन बार सांसद चुने गये। अन्तिम बार वह १९७६ में जनता पार्टी के टिकट पर सांसद चुने गये थे। [1]

शिब्बनलाल सक्सेना जीवन भर अविवाहित रहे और दलितों, शोषितों के उत्थान के लिए संघर्षरत रहे। अपने ५८ वर्ष के राजनीतिक जीवन में वे १७ बार गिरफ्तार किए गए थे तथा कुल १३ वर्ष तक विभिन्न जेलों में बिताए जिसमें से १० वर्ष कठिन श्रम के साथ कारावास की सजा थी (अगस्त १९४२ के गोरखपुर षडयन्त्र मामले में)।

  • १९५० से ५२ तक -- अस्थाई संसद के सदस्य
  • १९५४ से १९५७ तक -- प्रथम लोकसभा के सदस्य
  • १९५७ से १९६२ तक -- द्वितीय लोकसभा के सदस्य
  • १९६२ से १९६७ तक -- उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य
  • १९७१ से १९७७ तक -- पाँचवीम लोकसभा के सदस्य

उन्होने अनेकों अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक सम्मेलनों में भारतीय श्रमिकों का प्रतिनिधित्व किया और विदेशों की यात्राएँ कीं जिनमें सोवियत संघ, बुल्गारिया हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, जर्मनी, रोमानिया, स्वीडेन आदि शामिल हैं।

सन्दर्भ संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें