कलाभ्र राजवंश (तमिल : களப்பிரர் Kalappirar[1]) भारत का एक प्राचीन राजवंश था जिसने तीसरी शताब्दी से लेकर ७वीं शताब्दी तक सम्पूर्ण तमिल देश पर शासन किया। दक्षिण भारत के इतिहास में उनके शासनकाल को 'कलाभ्र अन्तर्काल' कहा जाता है। कलाभ्र शासक सम्भवतः जैन मतावलम्बी थे जिन्होने विद्रोह के द्वारा आरम्भिक चोलों, आरम्भिक पाण्ड्यों तथा चेरों के शासन का अन्त किया।

कलाभ्र साम्राज्य
अवस्थिति:
राजधानीकावेरीपुम्पात्तिनम्, मदुरै
धर्म हिन्दू
बौद्ध
जैन्
सरकार राजतन्त्र

कलाभ्रों की उत्पत्ति एवं शासनव्यवस्था के बारे में बहुत कम जानकारी है। उन्होंने न तो कलाकृतियां छोड़ी और न ही स्मारक। केवल ठोडी-बहुत सूचनाएँ मिलतीं हैं जो संगम, बौद्ध और जैन साहित्य में बिखरी हुईं हैं। पल्लवों, पांड्यों और बादामी के चालुक्यों ने संयुक्त प्रयास से कलाभ्रों को पराजित किया था।

कलाभ्रों का मूल और पहचान अनिश्चित है । आम तौर पर उन्हें पहाड़ी जनजाति समझा जाता है जो गुमनामी से उठ कर  वे कर भारत की एक शक्ति बन गई।[2] संभवतः उनके राजा बौद्ध या जैन धर्म के अनुयायी थे।[3] उनके कुछ सिक्कों पर बैठे हुए जैन मुनि, बोधिसत्त्व मंजुश्री और स्वस्तिक चिह्न के साथ दूसरी ओर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत उत्कीर्णन हैं। उत्तरकाल के नमूनों में, जो डेटिंग के अनुसार ६ठी शताब्दी के आस-पास के मालूम होते हैं, हिन्दू देवी-देवताओं के साथ दोनों - प्राकृत और तमिल उत्कीर्णन का उपयोग हुआ है।[4]

कलाभ्रों की पहचान के लिए कई सिद्धांतों को विकसित किया गया है।  टी. ए. गोपीनाथ राव उन्हें मुत्तरइयरों से जोड़ते हैं और कांची के वैकुण्ठ पेरुमल मंदिर का एक शिलालेख कलावरा-कालवन नामक एक मुत्तरइयर का जिक्र करता है। दूसरी तरफ एम राघव आयंगर कलाभ्रों को वेल्लाला कलप्पलरों से समान बताते हैं। पाण्ड्य राजा परांतक नेडुंजेड़ाइयाँ के वेल्विकुड़ी पट्टों, जो ७७० के आस पास के हैं, पर कलाभ्रों का उल्लेख है और आर नरसिम्हाचार्य और वी वेंकैया मानते हैं कि वे कर्नाट होंगे।[5][6] के आर वेंकटराम अय्यर बताते हैं कि हो सकता है कि कलाभ्र ५वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बैंगलोर-चित्तूर क्षेत्र में बस गए।  == साहित्यिक प्रमाण == संगम ग्रंथो से इनके बारे में जानकारियां प्राप्त होता है

अलोकप्रियता के कारण 

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साहित्य के संरक्षक

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कलाभ्रों का अंत

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