महाराजा जंगबहादुर कुंवर राणाजी (1816-1877; नेपाली: जङ्गबहादुर राणा) नेपाल के पहले राणा प्रधानमन्त्री तथा राणा राजवंश के संस्थापक थे। वे जंगबहादुर राणा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका वास्तविक नाम वीर नरसिंह कुँवर था। इनके शासनकाल में नेपाल ने अंग्रजो से लड़ाई में खोया हुआ जमीन का कुछ हिस्सा (बांके, बर्दिया, कैलाली, कंचनपुर) वापस हासिल किया।

श्री ३ महाराज

जंगबहादुर कुँवर राणाजी

जङ्गबहादुर राणा

प्रथम राणा प्रधानमन्त्री जंगबहादुर राणा


जन्म १८७४
बोर्लाङ्ग, गोरखा जिला
मृत्यु १९३३
पत्थरघट्टा, रौतहट
जीवन संगी महारानी हिरण्यगर्भा
रानी गजेन्द्रलक्ष्मी बस्न्यात
पुतली महारानी
मुदस्सत मुसम्मत (गंगा रानी)
संबंधी भीमसेन थापा (नाना के भाइ)
माथवरसिंह थापा (मामा)
बलभद्र कुंवर (चाचा)
रणजीत पांडे (माता के नाना)
संतान जगतजङ्ग राणा, जीतजङ्ग राणा, पद्मजङ्ग राणा, रणवीरजङ्ग राणा, ललितजङ्ग राणा
व्यवसाय राजनीतिज्ञ
धर्म हिन्दु
जंग के मामा माथवरसिंह थापा, छाउनी के संग्रहालय में रखी तस्विर

जंगबहादुर राणा के जन्म क्षत्रिय कुंवर भारदार परिवार के काजी बालनरसिंह कुँवर और थापा वंशके गणेश कुमारी के पुत्र के रूपमें हुआ । वे नेपाल के प्रसिद्ध मुख्तियार (प्रधानमंत्री) भीमसेन थापा के सहोदर भाइ काजी नैनसिंह थापा के भ्रातृपौत्र थे। उनकी नानी रणकुमारी पांडे नेपालके प्रसिद्ध भारदार पाँडे वंश के काजी रणजीत पांडे के पुत्री हैं । ये अपने पूर्वजों की अपेक्षा स्थायी शासन की स्थापना करने में सफल रहे।

इन्हें अपने मामा माथवरसिंह थापा के मंत्रित्वकाल में सेनाध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री का पद सौंपा गया किंतु शीघ्र ही उन्होंने रानी राज्य लक्ष्मी के आदेश में मामा माथवरसिंहकी छलपूर्वक हत्या कर दी और चौतारिया फत्तेजंग शाह ने नया मंत्रिमंडल बनाया । इस नए मंत्रिमंडल में इन्हें सैन्य विभाग सौंपा गया। दूसरे वर्ष 1846 ई. में शासन में एक संघर्ष छिड़ा। फलस्वरूप फतेहजंग और उनके साथ के 32 अन्य प्रधान व्यक्तियों की कुटिलतापूर्वक हत्या कर दी गई। महारानी द्वारा राणा की नियुक्ति सीधे प्रधान मंत्री पद पर की गई। शीघ्र ही महारानी का विचार परिवर्तित हुआ और उनकी हत्या के षड्यंत्र भी रचे गए। परंतु रानी की योजना असफल रही। फलत: राजा और रानी दोनों को ही भारत में शरण लेनी पड़ी। अब राणा के मार्ग से सारी बाधाएँ परे हट चुकी थीं।

शासन को व्यवस्थित और नियंत्रित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली। यहाँ तक कि जनवरी, 1850 में वे निश्चिंत होकर इंग्लैंड गए और 6 फ़रवरी 1851 तक वहीं रहे। लौटने पर इन्होंने अपने विरुद्ध रची गई हत्या की कुटिल योजनाओं को पूर्णत: विफल कर दिया।

तिब्बत के साथ संबन्ध

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इसके बाद आप दंडसंहिता के सुधार कार्यों में तथा तिब्बत के साथ होनेवाले छिटपुट संघर्षों में उलझे रहे।

इसी बीच उन्हें भारतीय सिपाही विद्रोह की सूचना मिली। राणा ने विद्रोहियों से किसी प्रकार की बातचीत का विरोध किया और जुलाई, 1857 को सेना की एक टुकड़ी गोरखपुर भेजी। यही नहीं, दिसंबर में इन्होंने 14,000 गोरखा सिपाहियों की एक सेना लखनऊ की ओर भी भेजी थी जिसने 11 मार्च 1858 को लखनऊ की घेरेबंदी में सहयोग दिया। जंगबहादुर राणा को इस कार्य के लिए जी.बी.सी. (ग्रेट कमांडर ऑव ब्रिटेन) के पद से सम्मानित किया गया। नेपाल को उसका एक भूखंड लौटा दिया गया और अन्य अनेक सीमाविवादों का अंत कर दिया गया।

सम्मानकी तरबार ( नेपोलियन तृतीय 1851)
इन्डिया जनरल सर्विस मेडल - 1854
नाइट ग्रान्ड क्रस अफ द अडर अफ द बाथ Knight Grand Cross of the Order of the Bath (GCB)-1858
इन्डियन म्युनिटी मेडल 1858
नाइट ग्रान्ड कमान्डर अफ द अडर अफ स्टार अफ इन्डिया Knight Grand Commander of the Order of the Star of India (GCSI)-1873
प्रिन्स ओफ वेल्स मेडल Prince of Wales's Medal-1876

1875 में राणा ने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया किंतु बंबई में घोड़े से गिर जाने पर घर लौट आए। 61 वर्ष की अवस्था में 25 फ़रवरी को इनका देहांत हो गया। इनकी तीन विधवाएँ भी इनके सथ ही चिता को समर्पित हो गई। 25फरवरी 1877