ठोस अवस्था भौतिकी

(ठोस-अवस्था भौतिकी से अनुप्रेषित)

ठोस अवस्था की भौतिकी (Solid-state physics) को ठोस अवस्था का सिद्धांत (Solid-state theory) के नाम से भी जाना जाता है। यह भौतिकी की वह शाखा है जिसमें ठोस की संरचना और उसके भौतिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। यह संघनित प्रावस्था भौतिकी की सबसे बड़ी शाखा है। ठोस अवस्था भौतिकी में इस बात पर विचार किया जाता है कि ठोसों के वाह्य गुण उनके परमाणु-स्तरीय गुणों से किस प्रकार सम्बन्धित हैं। इस प्रकार ठोस अवस्था भौतिकी, पदार्थ विज्ञान का सैद्धान्तिक आधार बनाती है। इसके अलावा ट्रांजिस्टरों की प्रौद्योगिकी एवंl अर्धचालकों की तकनीकी आदि में इसका सीधा उपयोग भी होता है। हीरा का निर्माण राहुल नोनिया ने किया

हीरा की संरचना का चलित दृष्य

प्रमुख उपविभाग

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इस विषय के प्रमुख विभाग हैं :

1. संरचना पर आधारित गुण, जैसे मणिभ विज्ञान, धातुओं की संरचना का सिद्धांत, मिश्रधातुएँ, आयनिक मणिभ, संसंजक (cohesive) बल, पट्टित संरचना (band structure) आदि ;

2. प्रधानत: समांग (homogeneous) ठोसों के गुण, जैसे विशिष्ट ऊष्मा, ऊष्मीय कंपन, ऊष्मीय तथा वैद्युच्चालकता, अतिचालकता, प्रकाश संवाहकता (photo conductivity), चुंबकीय तथा विद्युत्पारक (dielectric) आदि

3. ठोस में विषमांगता तथा विकृतिजन्य गुण, जैसे अपद्रव्यता, अर्धचालकता, प्लैस्टिकता, जालक (lattice) संरचना दोष, रंग केंद्र बिंदु दोष, विस्थापन सिद्धांत, मणिभविकास आदि।

ठोस दशा के बारे में ज्यों-ज्यों हमारी जानकारी बढ़ रही है त्यों-त्यों अंतिम उल्लिखित गुणों पर ध्यान अधिक मात्रा में आकृष्ट होता जा रहा है।

 
परमाणविक विनिमय

द्रव्य तीन विभिन्न अवस्थाओं में पाया जाता है - ठोस, द्रव तथा गैस। गैस अवस्था में घनत्व अत्यंत कम होता है तथा संपीडन सामर्थ्य अत्यधिक। इसके विपरीत ठोस तथा द्रव का घनत्व अपेक्षाकृत अधिक होता है, किंतु संपीडन अत्यंत कम। साधारण दाब एवं ताप पर गैस के इकाई आयतन की संहति समान आयतनवाले ठोस या द्रव की संहति का लगभग सहस्रांश होती है। अपनी अधिक संपीडन सामर्थ्य के कारण ही गैसें जिस बरतन में रखी जाती हैं उसे वे पूर्णतया भर देती हैं। ठोस का आयतन दाब के घटाने बढ़ाने से बहुत कम बदलता है और इसका आकार भी निश्चित होता है। ठोसों में कर्तनविकार (shear strain) हो सकता है, जब कि गैस या द्रव में यह गुण उपस्थित नहीं होता।

ठोस और गैसों के भौतिक गुणों के अंतर के आधार पर समझाया जा सकता है कि गैस के परमाणुओं के बीच की दूरी ठोस या द्रव के परमाणुओं की बीच की दूरी की अपेक्षा यथेष्ट अधिक होती है। चूँकि गैस के इकाई आयतन में परमाणुओं की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है, अत: उसका घनत्व भी थोड़ा ही होता है। फिर परमाणुओं के बीच अधिक दूरी होने के कारण अंत:परमाणवीय बल भी क्षीण होते हैं। अत: इनमें अंत:परमाणवीय दूरियों को सरलता से बदला जा सकता है। गैसीय अवस्था की व्याख्या में अंत:परमाणवीय बलों को एकदम नगण्य माना जा सकता है, किंतु ठोस और द्रव के सिद्धांतों के विकसन में ऐसा नहीं किया जा सकता। इस दशा में अंत:परमाणवीय बलों का स्पष्ट रूप से विचार करना होगा, क्योंकि इनमें परमाणु एक दूसरे के निकट हैं और इनके बीच लगनेवाले बल शक्तिशाली हैं। अंत:परमाणवीय बल कई प्रकार के होते हैं, अत: ठोस के गुणों में गैस की अपेक्षा अधिक भिन्नता पाई जाती है। उदाहरण के लिए, पारा तथा आर्गन गैसीय अवस्था में बहुत समान गुण प्रदर्शित करते हैं, जबकि ठोस और द्रव दशा में इनके गुणों में यथेष्ट अंतर पाया जाता है।

ठोस दो श्रेणियों में विभाजित किए गए हैं, मणिभीय तथा अमणिभीय। मणिभीय ठोसों (जैसे धातुओं तथा खनिज पदार्थों) के अंदर परमाणुओं की व्यवस्था में ऊँचे दर्जे की क्रमबद्धता पाई जाती है। अमणिभीय ठोस (जैसे कांच या प्लास्टिक) में अणु तथा परमाणु किसी निश्चित क्रम से व्यवस्थित नहीं होते। मणिभीय ठोस पाँच स्पष्ट शाखाओं में विभाजित किए गए हैं :

1. धातु और मिश्रधातु,

2. लवण (आयनिक मणिभ),

3. संयोजी (valence) मणिभ,

4. अणु मणिभ तथा

5. अर्धचालक।

धातु और मिश्रधातुओं में विद्युच्चालकता तथा धात्विक चमक पाई जाती है। इनमें विद्युच्चालकता का गुण मुक्त इलेक्ट्रानों के इधर-उधर विचरण के कारण उत्पन्न होता है। लवण में आवेशित आयन होते हैं। संयोजी मणिभ कठोर पदार्थ होते हैं, जैसे हीरा और सिलिकन कार्बाइड। इनका गलनांक ऊँचा होता है तथा इनका निर्माण प्रारंभिक संयोजी रसायनशास्त्र के नियमों के अनुसार होता है। अणु मणिभ (जैसे शुष्क हिम) ऐसे ठोस हैं जिनके अंदर स्थायी अणुओं को बाँध रखनेवाले बल अत्यंत अल्प होते हैं। अर्थचालक, जैसे जिंक ऑक्साइड या कॉपर ऑक्साइड, ऐसे ठोस होते हैं, जिनमें विचरण करनेवाले इलेक्ट्रानों द्वारा उत्पन्न होनेवाली विद्युच्चालकता क्षीण मात्रा में ही पाई जाती है।

अमणिभ ठोस (जैसे अकार्बनिक पदार्थ) उन्हीं गुणों का प्रदर्शन करते हैं, जो आणविक तथा संयोजी मणिभों में पाए जाते हैं। इनकी रचना बड़े आकार के अणुओं द्वारा होती है, जिनके बीच के बधनबल क्षीण होते हैं तथा संयोजी बंधन प्रबल।

ठोस अवस्था के अध्ययन के लिए केवल मणिभ ठोसों पर ही, जिनके अंदर के परमाणु त्रिविमितीय जालीनुमा (लैटिस) ढाँचे के अनुसार तीन स्वतंत्र दिशाओं में व्यवस्थित होते हैं, विचार किया जाता है। इस अध्ययन में काँच या बहुलक (polymer) के गुण भी संमिलित किए जा सकते हैं, यद्यपि इनके अंदर मणिभों की तुलना में संरचनात्मक नियमितता निम्नतर कोटि की होती है। काँच की संरचना त्रिविमितीय जाली सदृश होती है। यह आवर्ती नहीं होती। बहुलक का निर्माण बड़े आकार के अणुओं के समांतर समूहों से होता है, जिनकी संरचना कुछ अवस्थाओं में मणिभों के सदृश भी हो सकती है।

सामान्यत: प्रतिबल पड़ने पर ठोस दृढ़ता का गुण प्रदर्शित करते हैं। संगत विकृति (strain) बहुत कुछ प्रतिवर्ती होती है। फिर भी स्थिर भार डालने पर कुछ न कुछ श्यानीय प्रवाह उत्पन्न हो ही जाता है।

ऐतिहासिक विकास

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ठोस अवस्था के सिद्धांत के अध्ययन के विकास को चार चरणों में विभक्त किया जा सकता है :

1. स्थूल (macroscopic) गुण, विशेषतया स्थूल सममिति ;

2. जालीय (lattice) सिद्धांत तथा जालीय मॉडल ;

3. परिपूर्ण मणिभों के गुणों का परमाणु सिद्धांत द्वारा प्रतिपादन तथा

4. मणिभों की अपूर्णता के सिद्धांत का विकास।

पुनर्जागरण (Renaissance) काल से लेकर, जबकि इस विषय के अध्ययन का प्रारंभ हुआ था, पिछली शताब्दी के अंत तक लोगों का ध्यान प्रथम चरण पर विशेष रूप से केंद्रित रहा था। जालीय सिद्धांत में रुचि आरंभ में केवल अमूर्त या सैद्धांतिक पहलू तक ही सीमित रही। इसने व्यावहारिक रूप तब धारण किया, जब प्रथम महायुद्ध के ठीक पूर्व इस बात की खोज की जा चुकी थी कि मणिभों की जालीय संरचना से एक्स किरणों का विवर्तन एक अद्वितीय ढंग से होता है। मणिभों के गुणों के प्राथमिक निर्धारण के लिए परमाणु सिद्धांत पिछली शताब्दी के अंत में पहली बार लागू किया गया। पर इस पद्धति ने सन् 1925 और 1928 के बीच, जब आधुनिक क्वांटम यांत्रिकी एवं तरंग यांत्रिकी का समुचित विकास हो चुका था, पूर्णता प्राप्त की। मणिभों की अपूर्णता का व्यवस्थित अध्ययन सन् 1925 के लगभग आरंभ हुआ। यह अपने चरम विकास पर सन् 1945 के बाद पहुँचा।

अध्ययन क्षेत्र

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ठोस अवस्था के सिद्धांत का लक्ष्य ठोस के विभिन्न गुणों का पारमाणविक तथा नाभिकीय सिद्धांतों के आधार पर प्रतिपादन करना है। अब तक विस्तार से अध्ययन किए गए विषय निम्नलिखित हैं : प्रत्यास्थी तथा सुघट्य आचरण, संसंजन तथा संसंजन ऊर्जाएँ, इलेक्ट्रॉवनीय परिवहन (वैद्युत तथा ऊष्मीय चालकता, हाल प्रभाव, तापविद्युत्); आयनीय परिवहन (विद्युत्परिवहन, रासायनिक और रेडियधर्मी विसरण); विशिष्ट ऊष्मा; चुंबकीय गुण; विद्युत्पारक गुण; फेरो वैद्युत गुण; प्रकाशीय गुण (जिसमें प्रकाश संवाहकता तथा संदीप्ति संमिलित हैं) तथा नाभिकीय और इलेक्ट्रॉनीय अनुवाद।

ठोस अवस्था के सिद्धांत के अंतर्गत किए जानेवाले मौलिक वैज्ञानिक अनुसंधानों की परिधि में उपर्युक्त क्षेत्र आते हैं। इन क्षेत्रों के कतिपय बृहत् अंश व्यावहारिक या तकनीकी कारणों से विशेष महत्व प्राप्त कर सके हैं। तकनीकी क्षेत्रों का विभाजन प्रधानत: इस प्रकार है : धातुकर्म ; अर्धचालक (जिसमें ट्रैजिस्टर टैक्नॉलौजी भी संमिलित है) ; मृत्तिका शिल्प (ceramics), जो लवण तथा संयोजी मणिभों के गुणों पर आधारित है ; बहुलक रसायन (polymer chemistry) तथा चुंबकीयता। ठोसीय अवस्था के मेसरों (masers) के विषय ने, जो एक विशेष प्रकार के इलेक्ट्रॉनीय अनुनाद को प्रदर्शित करनेवाले पदार्थों से संबंधित है, आधुनिक टेक्नॉलोजी में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है।

ठोस की परमाणुक संरचना

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विभिन्न ठोसों के गुणों की विभिन्नता उनके संघटक परमाणुओं के बीचवाले बलों के अंतर तथा परमाणुओं की क्रमव्यवस्था की विभिन्नता के कारण है। परमाणु सिद्धांत के अनुसार परमाणु जब दूर-दूर रहते हैं तो वे एक दूसरे को आकर्षित करते हैं और जब वे एक दूसरे के अत्यंत निकट रहते हैं तो वे एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं। विभिन्न परमाणुओं के बीच प्रतिक्रिया की ऊर्जा पहले तो घटती है, फिर न्यूनतम मान धारण कर लेती है और तब यह हठात् बढ़ जाती है। न्यूनतम मान उस वक्त होता है जब आकर्षण और प्रतिकर्षण के बल एक दूसरे के बराबर हो जाते हैं। न्यूनतम ऊर्जा के लिए परमाणुओं की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि ये परमाणु किस रासायनिक श्रेणी के हैं। न्यूनतम परस्पर क्रिया के परिमाण से अंत:परमाणवीय बंधन की प्रबलता की नाप ज्ञात होती है। ठोस के भीतर परमाणुवितरण की व्यवस्था का पता एक्स-किरणों की मदद से लगाते हैं। मणिभ ठोसों पर किए गए प्रयोगों के अनुसार त्रिविमितीय जालीय संरचना के प्रत्येक फलक पर परमाणुओं का समान वितरण होता है। अमणिभीय ठोस के अंदर परमाणुओं की व्यवस्था में नियमित क्रमबद्धता निम्नतर कोटि की पाई जाती है।

ठोस की रासायनिक संरचना

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क्षीण विद्युच्चालकतावाले ठोस, जैसे सामान्य धातुओं के ऑक्साइड तथा क्लोराइड, पैराफिन, तथा विसंवाही अमणिभीय ठोस, जैसे सिलिका काँच, रसायन के सामान्य संयोजकता सिद्धांत के नियमों का पालन करते हैं।

इसके प्रतिकूल ऊँची विद्युच्चालकतावाली धातुएँ एक दूसरे के साथ संयोजकता रसायन के सामान्य नियमों के अनुसार संयोग करती हैं। उदाहरण के लिए ताँबा बिना अपनी जालीय संरचना में अंतर उत्पन्न किए हुए 30 प्रतिशत तक जस्ता अपने में विलय कर सकता है। ये धातुएँ यौगिकों का निर्माण करती हैं जो संयोग करनेवाले अवयवों के गुणों से कोई सादृश्य नहीं रखते। उदाहरण के लिए, ताँबा और जस्ता से वे यौगिक बनते हैं जिनके सूत्र ताय (CuZn) तथा ता5 य8 (Cu5 Zn8) हैं। धात्विक संयोजन के यौगिक दो प्रकार के हो सकते हैं : प्रतिस्थापित (substitutional) मिश्रधातु तथा अंतरालीय (interstitial) मिश्रधातु। इनके संयोजन के नियमों का अध्ययन ह्यूम रोथरे (Hume-Rothery) तथा हैग (Hagg) ने किया। प्रतिस्थापित मिश्रधातु में विलयनसीमा के अंदर संघटक धातुओं का अनुपात ज्यों-ज्यों बदलता है त्यों-त्यों एक धातु के परमाणु दूसरे धातु के परमाणुओं द्वारा प्रतिस्थापित होते जाते हैं। यह पाया गया है कि इन यौगिकों में दोनों धातुओं के परमाणुओं के व्यास में 15 प्रतिशत से अधिक का अंतर नहीं होता। इसका उदाहरण है ताँबे में जस्ते को विभिन्न अनुपात में मिलाकर प्राप्त की जानेवाली पीतल की अलग-अलग किस्में।

अंतरालीय मिश्रधातुओं में एक धातु के परमाणु इतने छोटे होते हैं कि वे दूसरी धातु के परमाणु की जगह पर फिट बैठ सकें। अत: इन धातुओं के जालीय ढाँचे का कुछ भाग दूसरी धातु के परमाणु द्वारा निर्मित रहता है। संयोग करनेवाली धातुएँ यदि विद्युद्वाहक श्रेणी में एक दूसरे के निकट स्थित हों और यदि छोटे आकारवाले परमाणु का व्यास दूसरी धातु के परमाणु के व्यास के 0.59 गुने से कम हो, तब ये सहज ही अंतरालीय मिश्रधातुएँ बना लेती हैं। लोहे में कार्बन के विलय होने से बननेवाली मिश्रधातुएँ इस जाति का उदाहरण हैं।

ठोस की भौतिक आकृति निर्धारित करनेवाले सिद्धांत ऊष्मा गतिविज्ञान में किसी निकाय की स्थायी अवस्था को व्यावहारिक कार्यों के लिए निरूपित करने के लिए आवश्यक है कि (F=E-TS) न्यूनतम हों। यहाँ (F) मुक्त ऊर्जा है, (E) उस निकाय की ऊर्जा है, (T) ताप है और (S) एंट्रोपी है। परमशून्य ताप पर (F=E)। अत: स्थायी अवस्था तभी होगी जब (E) न्यूनतम हो। सांख्यिकीय यांत्रिकी के अनुसार (S) एक ऐसी राशि है जो (E) का निरंतर वृद्धि करनेवाला एकदिष्ट फलन (monotonic function) है। ठोस का ताप जब परमशून्य से आगे बढ़ता है तो साम्य अवस्था के धर्म में परिवर्तन की संभावना उत्पन्न होती है। ठोसों में निम्न ताप पर मणिभ रूप धारण करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। ताप जब ऊँचा चढ़ता है तो (TS) पद का प्रभाव निम्नलिखित में से कोई एक रूप धारण कर सकता है :

1. साम्य स्थितियों के चतुर्दिक् परमाणु दोलन करने लग जाते हैं। क्रमव्यवस्था का यह व्यतिक्रम सभी ठोसों में सार्वभौम रूप से व्यक्त होता है।

2. जालीय संरचना में ऐसा परिवर्तन आ सकता है कि परमाणुओं की अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हो जाए। यह परिवर्तन अपररूपीय (allotropic) परिवर्तन कहलाता है। गंधक में कई अपररूपी परिवर्तन होते हैं।

3. जालीय संरचना में परमाणुओं के जोड़ों की अदला-बदली के कारण व्यतिक्रम हो सकता है। मिश्रधातुओं में प्राय: यह बात पाई जाती है।

4. आणविक मणिभों तथा लवणों में, जैसे ऐमोनियम क्लोराइड में, जालीय संरचना का व्यतिक्रम विशिष्ट अणुओं या मूलकों के कारण उत्पन्न हो सकता है।

5. फिर, जालीय संरचना के अंदर की अपनी सामान्य स्थिति से इक्के-दुक्के परमाणु प्रव्रजन कर अंतरालीय स्थिति में, या सतह पर पहुँचने के कारण भी, जालीय क्रम में व्यतिक्रम उत्पन्न कर सकते हैं। प्रयोगों द्वारा इस बात की संपुष्टि की जा चुकी है कि विसरण तथा आयन चालकता इसी प्रकार के परिवर्तन के फल हैं।

6. द्रवण तथा ऊर्ध्वपातन जालीय व्यवस्था के चरम व्यतिक्रम के फलस्वरूप घटित होते हैं।

7. धातुओं में मुक्त इलेक्ट्रॉन उपस्थित होते हैं। चलिष्णुता उन्हें ऊँचे दर्जे की ऊष्माचालकता तथा विद्युच्चालकता प्रदान करती है।

इनमें से कोई भी अव्यवस्था (disoder) ऊष्मीय ऊर्जा का अवशोषण करा सकती है। अवशोषित ऊर्जा ही विशिष्ट ऊष्मा प्रदान करती है, जिससे ताप में वृद्धि होती है या फिर वह गुप्त ऊष्मा का रूप धारण कर लेती है।

ठोस के प्रत्यास्थी तथा प्लास्टिक गुण

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प्रकृति में पाए जानेवाले ठोस पूर्णत: दृढ़ (rigid) नहीं होते। बल के लगने पर इनमें विकृति उत्पन्न हो जाती है। बल हटा लेने पर यदि वह पिंड अपना पूर्वरूप ग्रहण कर लेता है, तब इसे प्रत्यास्थी ठोस कहते हैं। इसके प्रतिकूल बल हटा लेने पर यदि वह अपनी पूर्व आकृति धारण न कर सके तो इसे प्लास्टिक कहेंगे। इस्पात और रबर दीर्घ सीमा के भीतर प्रत्यास्थी बने रहनेवाले ठोस के उदाहरण हैं, तथा पोटीन (putty) में लगभग प्रारंभिक अवस्था से ही प्लैस्टिक के गुण प्रदर्शित होते हैं। प्रति इकाई लंबाई में उत्पन्न होनेवाली विकृति को तनाव विकृति कहते हैं, तथा प्रति इकाई लंबाई में उत्पन्न होनेवाले संपीडन को संपीड्य विकृति कहते हैं। पिंड में प्रति इकाई क्षेत्र पर लगनेवाले बल के मान को प्रतिबल कहते हैं।

यदि एक आयताकार निपिंड (block) अ ब स द का फलक ब स कस दिया जाए और यदि इसका विरूपण अ" ब" स" द" आकृति में कर दिया जाए तो इस विरूपण को कर्तन (shear) कहते हैं। ठोस का प्रत्येक परमाणु आकर्षण और प्रतिकर्षण बलों के मध्य साम्य अवस्था में रहता है। बल आरोपित किए जाने पर ये परमाणु नवीन स्थितियाँ प्राप्त कर लेते हैं, तब हम कहते हैं कि ठोस विकृत हो गया।

प्रत्यास्थता की सीमा आरोपित किए जानेवाले प्रतिबल की प्रकृति, विकृति प्राप्त करनेवाले पदार्थ तथा इसके पूर्व इतिहास पर निर्भर करती है। तरल स्थैतिक दाब से बहुत अधिक विकृति उत्पन्न की जा सकती है।

काँच जैसे अमणिभीय ठोस निम्न ताप पर भंगुर बन जाते हैं, किंतु अनेक मणिभीय ठोस, जैसे धातुएँ, परम शून्य ताप के निकट भी प्रचुर मात्रा में तन्यता का प्रदर्शन करते हैं। अनेक ठोसों के प्लैस्टिक प्रवाह का अध्ययन किया गया है। फलस्वरूप निम्नलिखित महत्वपूर्ण नियम प्राप्त हुए हैं :

1. खिसकनेवाले धरातल की सीध में मणिभ के विभिन्न भागों के आपेक्षिक स्थानांतरण के कारण प्लैस्टिक विकृति उत्पन्न होती है।

2. खिसकनेवाले धरातल की सीध में स्थानांतरण होने के लिए उपयुक्त दशा उस धरातल में विघटित होनेवाले कर्तन प्रतिबल के परिणाम द्वारा निर्धारित होती है। सामान्यत: स्थानांतरण उस समय होगा जब कर्तन प्रतिबल एक निश्चित क्रांतिक कर्तन प्रतिबल के मान से अधिक हो जाएगा। प्लैस्टिक विकृति के घटने के साथ क्रांतिक कर्तन प्रतिबल का मान भी बढ़ता है। इस घटना की कार्यकठोरीकरण (work hardening) कहते हैं।

3. एक ऐसा निश्चित ताप है जिसके ऊपर ताप बढ़ने पर कार्य कठोरीकरण का प्रभाव विलुप्त हो जाता है। इस ताप को पुनर्मृदुकरण (softening) ताप कहते हैं। क्रांतिक कर्तन प्रतिबल का मान पुनर्मृदुकरण ताप के नीचे तक के ही ताप पर निर्भर रहता है।

धातुओं की उच्च तन्यता का प्रादुर्भाव उनकी अपद्रव्यता के कारण होता है।

क्वांटम यांत्रिकी द्वारा ठोस अवस्था के सिद्धांत का प्रतिपादन

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सन् 1930 के उपरांत जब संयोजी इलेक्ट्रॉन के आचरण के निर्धारण के लिए क्वांटम यांत्रिकी को प्रयुक्त किया गया तो उन्हीं दिनों ठोस अवस्था के सिद्धांत में भी विशेष प्रगति हुई। ठोस संबंधी अनुसंधान में क्वांटम यांत्रिकी का प्रयुक्त किया जाना बहुत कुछ वैसा ही है जैसा मापांक (modular) प्रणाली के लिए।

जब इलेक्ट्रॉनिकीय अवस्था के तरंगफलन (wave function) का निर्धारण करना होता है तो नाभिक के निदेशांकों को प्राचल (parameters) मानकर चलते हैं। बॉर्न तथा ओपेनहाइमर ने ही इलेक्ट्रॉनिकीय गति को नाभिकीय गति से पृथक् करने की विधि का प्रचलन किया था। ठोस के लिए पूर्ण तरंगफलन अत्यधिक क्लिष्ट है।

निम्नलिखित दो विधियाँ उस भौतिक अवस्था के लिए उपयुक्त हैं जब एक इलेक्ट्रॉन संनिकटन का उपयोग किया जाय :

1. पारमाणविक संनिकट - इसमें प्रत्येक इलेक्ट्रॉन एक दिए हुए नाभिक से संबद्ध रहता है तथा संपूर्ण ठोस का स्वरूप परमाणुओं या अणुओं के एक समूह सा होता है। इस प्रकार निरूपित ठोस सदैव ही एक अचालक (या पृथक्कारी / insulater) होता है।

2. मुक्त इलेक्ट्रॉन संनिकटन - इस निरूपण में मान लिया जाता है कि प्रत्येक संयोजी इलेक्ट्रॉन जालीय व्यवस्था में स्वतंत्र रूप से विचरण करता है। इस प्रकार तरंगफलन का आयाम परिमित हो जाता है। यह विधि सभी चालकों तथा अर्धचालकों और अचालकों की बड़ी संख्या के लिए लागू होती है।

ठोस के गुणधर्म का प्रतिपादन

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क्वांटम यांत्रिकी की विधियाँ ठोस के गुणों के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित करने के लिए विस्तृत रूप से प्रयुक्त होती है। इनमें से निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं :

(क) संसृजन ठोस की संसंजन ऊर्जा को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं कि यह वह ऊर्जा है जो ठोस सतह से किसी इलेक्ट्रॉन की अनंत तक ले जाने में व्यय होगी, अर्थात् ऊर्वपातन की ऊष्मा के बराबर। यदि इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा ज्ञात हो तो संसंजन ऊर्जा का मान प्राप्त कर सकते हैं। यह विधि विभिन्न ठोसों की आपेक्षिक संसंजन ऊर्जा का मान ज्ञात करने के लिए बहुतायत से काम में लाई जाती है।

(ख) विद्युत्च्चालकता ठोस में विद्युत् का संचालन मुक्त इलेक्ट्रॉन, या चल आयनों, की उपस्थिति के कारण होता है। क्वांटम यांत्रिकी की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि धातुओं और अर्धचालकों में इलेक्ट्रॉनीय चालकता की प्रकृति इसके द्वारा ठीक-ठीक समझी जा सकी है, किंतु निम्न ताप पर प्रदर्शित होनेवाली अतिचालकता के गुण की व्याख्या अभी तक क्वांटम यांत्रिकी के आधार पर नहीं की जा सकी है। यह इस कारण है कि तरंगसमीकरण के परिशुद्ध हल अभी तक संभव नहीं हो सके हैं।

(ग) चुंबकीयता के गुण क्वांटम यांत्रिकी का विस्तृत उपयोग चुंबकीय गुणों की व्याख्या तथा उनके अनुसंधान के निमित्त किया गया है। विषम चुंबकीय, समचुंबकीय, तथा लोहचुंबकीय पदार्थों के गुणों की भी पूर्ण रूप से व्याख्या की जा सकी है।

(घ) प्रकाशीय गुण ठोस के अनेक प्रकाशकीय गुणों की, जो कुछ दिनों पूर्व तक रहस्यपूर्ण बने हुए थे, अब क्वांटम यांत्रिकी के आधार पर सही व्याख्या की जा सकी है। धातुओं के अध्ययन में भी सर्वाधिक प्रगति संभव हो सकी है। मुक्त इलेक्ट्रॉन के सिद्धांत पर स्वर्ण, ताँबा तथा पीतल सरीखी मिश्रधातुओं के वर्ण की समुचित व्याख्या की जा सकी है। क्वांटम यांत्रिकी द्वारा इस बात का समाधान प्राप्त हो सका है कि क्षार धातुएँ वर्णक्रम (spectrum) के पराबैंगनी भाग में पारदर्शिता का गुण क्यों प्रदर्शित करती हैं।

बाहरी कड़ियाँ

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