दार्जिलिंग
दार्जिलिंग भारत के राज्य पश्चिम बंगाल का एक नगर है। यह नगर दार्जिलिंग जिले का मुख्यालय है। यह नगर शिवालिक पर्वतमाला में लघु हिमालय में अवस्थित है। यहां की औसत ऊँचाई २,१३४ मीटर (६,९८२ फुट) है।
दार्जिलिंग দার্জিলিং | |||||||||
— नगर — | |||||||||
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०) | |||||||||
देश | ![]() | ||||||||
राज्य | पश्चिम बंगाल | ||||||||
सभापति | प्रतिभा राई | ||||||||
जनसंख्या • घनत्व |
१०७,५३० (२००१ के अनुसार [update]) • ८५४८ | ||||||||
क्षेत्रफल • ऊँचाई (AMSL) |
१०५७ कि.मी² • २१३४ मीटर | ||||||||
विभिन्न कोड
|
निर्देशांक: 27°02′N 88°10′E / 27.03°N 88.16°E

दार्जिलिङ शब्द की उत्त्पत्ति दो तिब्बती शब्दों, दोर्जे (बज्र) और लिंग (स्थान) से हुई है। इस का अर्थ "बज्रका स्थान है।"[1] भारत में ब्रिटिश राज के दौरान दार्जिलिङ की समशीतोष्ण जलवायु के कारण से इस जगह को पर्वतीय स्थल बनाया गया था। ब्रिटिश निवासी यहां गर्मी के मौसम में गर्मी से छुटकारा पाने के लिए आते थे।
दार्जिलिंग अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यहां की दार्जिलिङ चाय के लिए प्रसिद्ध है। दार्जिलिंग की दार्जिलिङ हिमालयन रेलवे एक युनेस्को विश्व धरोहर स्थल तथा प्रसिद्ध स्थल है। यहां की चाय की खेती १८५६ से शुरु हुई थी। यहां की चाय उत्पादकों ने काली चाय और फ़र्मेण्टिङ प्रविधि का एक सम्मिश्रण तैयार किया है जो कि विश्व में सर्वोत्कृष्ट है।[2] दार्जिलिङ हिमालयन रेलवे जो कि दार्जिलिङ नगर को समथर स्थल से जोड़ता है, को १९९९ में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था। यह वाष्प से संचालित यन्त्र भारत में बहुत ही कम देखने को मिलता है।
दार्जिलिङ में ब्रिटिश शैली के निजी विद्यालय भी है, जो भारत और नेपाल से बहुत से विद्यार्थियों को आकर्षित करते हैं। सन १९८० की गोरखालैंड राज्य की मांग इस शहर और इस के नजदीक का कालिम्पोंग के शहर से शुरु हुई थी। अभी राज्य की यह मांग एक स्वायत्त पर्वतीय परिषद के गठन के परिणामस्वरूप कुछ कम हुई है। हाल की दिनों में यहाँ का वातावरण ज्यादा पर्यटकों और अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण से कुछ बिगड़ रहा है।
परिचय
संपादित करेंइस स्थान की खोज उस समय हुई जब आंग्ल-नेपाल युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी सिक्किम जाने के लिए छोटा रास्ता तलाश रही थी। इस रास्ते से सिक्िकम तक आसान पहुंच के कारण यह स्थान ब्रिटिशों के लिए रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण था। इसके अलावा यह स्थान प्राकृतिक रूप से भी काफी संपन्न था। यहां का ठण्डा वातावरण तथा बर्फबारी अंग्रेजों के मुफीद थी। इस कारण ब्रिटिश लोग यहां धीरे-धीरे बसने लगे।
प्रारंभ में दार्जिलिंग सिक्किम का एक भाग था। बाद में भूटान ने इस पर कब्जा कर लिया। लेकिन कुछ समय बाद सिक्किम ने इस पर पुन: कब्जा कर लिया। परंतु १८वीं शताब्दी में पुन: इसे नेपाल के हाथों गवां दिया। किन्तु नेपाल भी इस पर ज्यादा समय तक अधिकार नहीं रख पाया। १८१७ ई. में हुए आंग्ल-नेपाल में हार के बाद नेपाल को इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा।
अपने रणनीतिक महत्व तथा तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के कारण १८४० तथा ५० के दशक में दार्जिलिंग एक युद्ध स्थल के रूप में परिणत हो गया था। उस समय यह जगह विभिन्न देशों के शक्ित प्रदर्शन का स्थल बन चुका था। पहले तिब्बत के लोग यहां आए। उसके बाद यूरोपियन लोग आए। इसके बाद रुसी लोग यहां बसे। इन सबको अफगानिस्तान के अमीर ने यहां से भगाया। यह राजनीतिक अस्थिरता तभी समाप्त हुई जब अफगानिस्तान का अमीर अंगेजों से हुए युद्ध में हार गया। इसके बाद से इस पर अंग्रेजों का कब्जा था। बाद में यह जापानियों, कुमितांग तथा सुभाषचंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की भी कर्मस्थली बना। स्वतंत्रता के बाद ल्हासा से भागे हुए बौद्ध भिक्षु यहां आकर बस गए।
वर्तमान में दार्जिलिंग पश्िचम बंगाल का एक भाग है। यह शहर ३१४९ वर्ग किलोमीटर में क्षेत्र में फैला हुआ है। यह शहर त्रिभुजाकर है। इसका उत्तरी भाग नेपाल और सिक्किम से सटा हुआ है। यहां शरद ऋतु जो अक्टूबर से मार्च तक होता है। इस मौसम यहां में अत्यधिक ठण्ड रहती है। यहां ग्रीष्म ऋतु अप्रैल से जून तक रहती है। इस समय का मौसम हल्का ठण्डापन लिए होता है। यहां बारिश जून से सितम्बर तक होती है। ग्रीष्म काल में ही यहां अधिकांश पर्यटक आते हैं।
मुख्य आकर्षण
संपादित करेंयह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्तान, पुराने स्कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है।
सक्या मठ
संपादित करेंयह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं।
ड्रुग-थुब्तन-सांगग-छोस्लिंग-मठ
संपादित करें11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्हीं के याद में इस मठ की स्थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था।
माकडोग मठ
संपादित करेंयह मठ चौरास्ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है।
जापानी मंदिर (पीस पैगोडा)
संपादित करेंविश्व में शांति लाने के लिए इस स्तूप की स्थापना फूजी गुरु जो कि महात्मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्तूप हैं। निप्पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है।
टाइगर हिल
संपादित करेंटाइगर हिल का मुख्य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्ट का नाम दिया था, विश्व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्यजीत राय की फिल्मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है।
प्रकाश और छाया के खेल से अधिक मंत्रमुग्ध करने वाला कुछ भी नहीं हो सकता है, और कवि हृदय वाले व्यक्ति के लिए, टाइगर हिल से सूर्योदय देखना एक आवश्यक अनुभव है।[3]
- शुल्क
केवल देखने के लिए नि: शुल्क टावर पर चढ़ने का शुल्क १० रु. टावर पर बैठने का शुल्क ३० रु. यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है।
घूम मठ (गेलुगस्)
संपादित करेंटाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी।
इस मठ की स्थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्तसू द्वारा की गई थी। याल्तसू अपने धार्मिक इच्छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्कृत से तिब्बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। हिल कार्ट रोड के निकट समतेन चोलिंग द्वारा स्थापित एक और जेलूग्पा मठ है। समय: सभी दिन खुला। मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है।
समुद्र तल से 8000 फीट ऊपर स्थित घुम मठ शहर का सबसे पुराना तिब्बती मठ है।[4]
भूटिया-बस्ती-मठ
संपादित करेंयह डार्जिलिंग का सबसे पुराना मठ है। यह मूल रूप से ऑब्जरबेटरी हिल पर १७६५ ई. में लामा दोरजे रिंगजे द्वारा बनाया गया था। इस मठ को नेपालियों ने १८१५ ई. में लूट लिया था। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई। अंतत: यह अपने वर्तमान स्थान चौरासता के निकट, भूटिया बस्ती में १८७९ ई. स्थापित हुआ। यह मठ तिब्बतियन-नेपाली शैली में बना हुआ है। इस मठ में भी बहुमूल्य प्राचीन बौद्ध सामग्री रखी हुई है।
यहां का मखाला मंदिर काफी आकर्षक है। यह मंदिर उसी जगह स्थापित है जहां भूटिया-बस्ती-मठ प्रारंभ में बना था। इस मंदिर को भी अवश्य घूमना चाहिए। समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है।
तेंजिंगस लेगेसी
संपादित करेंहिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।
प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है) टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद।
जैविक उद्यान
संपादित करेंपदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं।
मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक।
इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है।
समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद।
दार्जिलिंग चिड़ियाघर के नाम से भी मशहूर इस पार्क में वनस्पतियों और जीवों की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं। प्यारे लाल पांडा और हिम तेंदुओं का घर, इस प्राणि उद्यान का नाम स्वर्गीय पद्मजा नायडू के नाम पर रखा गया है, जो पश्चिम बंगाल की राज्यपाल और भारत की कोकिला सरोजिनी नायडू की बेटी थीं।[5]
तिब्बतियन रिफ्यूजी कैंप
संपादित करेंतिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है।
आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है।
ट्वॉय ट्रेन
संपादित करेंइस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है।
अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है।
आप इस प्राकृतिक पहाड़ी सुंदरता का अनुभव टॉय ट्रेन में कर सकते हैं जिसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। ये रेलवे 1879 से चली आ रही है और हिमालयन रेलवे की मुख्य विशेषता है।[6]
चाय उद्यान
संपादित करेंडार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है।
चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है।
स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां आप मजदूरों को चाय की पत्तियों को तोड़ते हुए देख सकते हैं। आप ताजी पत्तियों को चाय में परिवर्तित होते हुए भी देख सकते हैं। लेकिन चाय उद्यान घूमने के लिए इन उद्यान के प्रबंधकों को पहले से सूचना देना जरुरी होता है।
चाय
संपादित करेंनि:सन्देह यहां से खरीदारी के लिए सबसे बढि़या वस्तु चाय है। यहां आपको कई प्रकार के चाय मिल जाएंगे। लेकिन उत्तम किस्म का चाय आमतौर पर निर्यात कर दिया जाता है। अगर आपको उत्तम किस्म की चाय मिल भी गई तो इसकी कीमत ५०० से २००० रु. प्रति किलो तक की होती है। सही कीमत पर अच्छी किस्म का चाय खरीदने के लिए आप नाथमुलाज माल जा सकते हैं।
चाय के अतिरिक्त दार्जिलिंग में हस्तशिल्प का अच्छा सामान भी मिलता है। हस्तशिल्प के लिए यहां का सबसे प्रसिद्ध दुकान 'हबीब मलिक एंड संस' (टेली: २२५४१०९) है जोकि चौरास्ता या नेहरु रोड के निकट स्थित है। इस दुकान की स्थापना १८९० ई. में हुई थी। यहां आपको अच्छे किस्म की पेंटिग भी मिल जाएगी। इस दुकान के अलावा आप 'ईस्टर्न आर्ट' (टेली: २२५२९१७) जोकि चौरास्ता के ही नजदीक स्थित है से भी हस्तशिल्प खरीद सकते हैं। नोट: रविवार को दुकाने बंद रहती हैं।
आवागमन
संपादित करें- हवाई मार्ग
यह स्थान देश के हरेक जगह से हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है। बागदोगरा (सिलीगुड़ी) यहां का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा (९० किलोमीटर) है। यह दार्जिलिंग से २ घण्टे की दूरी पर है। यहां से कलकत्ता और दिल्ली के प्रतिदिन उड़ाने संचालित की जाती है। इसके अलावा गुवाहाटी तथा पटना से भी यहां के लिए उड़ाने संचालित की जाती है।
- रेलमार्ग
इसका सबसे नजदीकी रेल जोन जलपाइगुड़ी है। कलकत्ता से दार्जिलिंग मेल तथा कामरुप एक्सप्रेस जलपाइगुड़ी जाती है। दिल्ली से गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस यहां तक आती है। इसके अलावा ट्वाय ट्रेन से जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग (८-९ घंटा) तक जाया जा सकता है।
- सड़क मार्ग
यह शहर सिलीगुड़ी से सड़क मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। दार्जिलिंग सड़क मार्ग से सिलीगुड़ी से २ घण्टे की दूरी पर स्थित है। कलकत्ता से सिलीगुड़ी के लिए बहुत सी सरकारी और निजी बसें चलती है।
इतिहास
संपादित करें१७८० से १८३५
संपादित करेंदार्जिलिंग नगर हिमालय के पूर्वी भाग में मेची तथा तीस्ता नदियों के मध्य स्थित है। दार्जिलिंग का इतिहास इसके पड़ोस में स्थित नेपाल, भूटान, सिक्किम और बंगाल राज्यों के इतिहास से जुडा हुआ है। १८वीं शताब्दी में, यह स्थनीय राज्यों के सीमा क्षेत्र का हिस्सा था, जिस पर आस पास के सभी राज्यों की दृष्टि थी।[7] सदी के अधिकांश भाग के लिए सिक्किम के चोग्याल शासक का इस क्षेत्र पर अधिपत्य रहा।[7] हालांकि अन्तिम दशकों में, नेपाल के गोरखा राजाओं ने साम्राज्य का पूर्व की ओर विस्तार करते हुए दार्जिलिंग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।[7] गोरखा सेना ने तीस्ता नदी तक अपनी सीमाओं का विस्तार कर लिया था, और इससे आगे उस समय भूटान का साम्राज्य था।[7][8]
१९वीं सदी की शुरुआत में दार्जिलिंग में मुख्यतः लेपचा और लिम्बू जनजातियों के लोग रहा करते थे।[9] इसी समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने दार्जिलिंग की पहाड़ियों में रुचि दिखानी शुरू की।[10] क्षेत्रीय मामलों में कंपनी का हस्तक्षेप गोरखा युद्ध में अंग्रेजों की विजय के पश्चात शुरू हुआ। १८१४ से १८१६ तक लड़ा गया यह युद्ध सुगौली एवं तितालिया की संधियों के साथ समाप्त हुआ, जिनके अन्तर्गत नेपाल को दार्जिलिंग क्षेत्र सिक्किम को वापस करना पड़ा।[7]
१८२९ में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दो अधिकारी, कैप्टन जॉर्ज लॉयड और जे डब्ल्यू ग्रांट, नेपाल और सिक्किम के बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए रास्ते में एक अर्धचंद्राकार पर्वत कटक से गुजरे। यह स्थान उन्हें अंग्रेजों के लिये एक छावनी बनाने के लिये या फिर भारत के मैदानी इलाकों की गर्मी से बचने के लिए एक पहाड़ी आश्रय बनाने के लिये उप्युक्त लगा।[7][11][12] लॉयड ने अपने विचारों से भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैन्टिक को अवगत कराया, जिन्होंने इस पर सहमति व्यक्त की, और साथ ही सीमा की निगरानी के लिए वहां सेना की एक छोटी टुकड़ी की तैनाती का भी सुझाव दिया।[9]
१८३५–१८५७: ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन
संपादित करेंइस महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाते हुए, १८३५ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने चोग्याल से ४० गुणा १० किलोमीटर की भूमि की पट्टी को अनुदान विलेख के माध्यम से पट्टे पर लेने की वार्ता आरम्भ की।[9][13] १८३८ के अंत तक, सेना के सैपरों को वनों को साफ करने का दायित्व दिया गया और मानसून वर्षा की समाप्ति के बाद निर्माण कार्य आरम्भ करने की योजना बनाई गई।[14] अगले वर्ष, आर्चीबाल्ड कैंपबेल नामक एक चिकित्सक को दार्जिलिंग का "अधीक्षक" बनाया गया, और यहां एक होटल और एक न्यायालय सहित दो सार्वजनिक भवनों का निर्माण किया गया।[14] शीघ्र ही, ब्रिटिश शैली के कई बंगलों पर काम शुरू हो गया था।[9]
दार्जिलिंग को एक रिसॉर्ट में बदलने के लिए स्थानीय क्षेत्रों में उप्लब्ध लोगों से कहीं अधिक मज़दूरों की आवश्यक्ता थी।[9][16] इसलिये अंग्रेजों ने पड़ोसी राज्यों से मज़दूरों को लाना शुरू किया। इनमें मुख्य रूप से नेपाली लोग थे, और उनके अतिरिक्त कुछ सिक्किमी और भूटानी लोग भी थे। अंग्रेजों ने उन्हें आकर्षित करने के लिये नियमित भत्ते और आवास की पेशकश की, जो कि उस समय पड़ोसी राज्यों में प्रचलित भारी करों और बेगार प्रथा के विपरीत था।[9][16] इस कारण हज़ारों की संख्या में मजदूर दार्जिलिंग पहुँचे।[9][16] इसके कुछ समय बाद ही उत्तरी बंगाल में दार्जिलिंग हिल कार्ट रोड का निर्माण किया गया, जो हिमालय की तलहटी में स्थित सिलीगुड़ी को दार्जिलिंग से जोड़ती है।[17]
१८३३ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने चीन के साथ चाय के व्यापार में अपना एकाधिकार खो दिया।[18] भारत में चाय उगाने के लिए एक योजना तैयार की गई।[18] अधीक्षक कैंपबेल ने १८४० में दार्जिलिंग में प्रयोग शुरू किया जो शीघ्र ही सफल सिद्ध हुआ।[18] यूरोपीय बागान मालिकों और प्रायोजकों ने आसपास की पहाड़ियों के बड़े हिस्से का अधिग्रहण किया और उन्हें चाय के बागानों में बदल दिया।[19] पहाड़ियों में उपस्थित पथों और सड़कों में सुधार किया गया, और उन्हें हिल कार्ट रोड से जोड़ दिया गया। १८४० के दशक में दार्जिलिंग का दौरा करने वाले वनस्पतिशास्त्री जोसेफ डाल्टन हुकर ने उल्लेख किया है कि इन सड़कों पर गाड़ियां और भार ले जाने वाले पशु नेपाल से फल एवं उपज तथा तिब्बत से ऊन एवं नमक ला रहे थे, और लगभग हर जगह से काम की तलाश में मजदूर आ रहे थे।[20]
मज़दूरों के पलायन ने ईस्ट इंडिया कंपनी और पड़ोसी हिमालयी राज्यों के बीच मनमुटाव को बढ़ावा दिया।[9] १८४९ तक उनकी शत्रुता चरम पर पहुँच गई, जब कैम्पबेल और हुकर का कथित तौर पर अपहरण कर लिया गया।[9] यद्यपि दोनों को बिना किसी क्षति के मुक्त कर दिया गया था, परन्तु अंग्रेजों ने इस घटना का लाभ उठाते हुए सिक्किम के मेची और तीस्ता नदियों के मध्य के लगभग १७०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को हड़प लिया।[9][13]
दार्जिलिंग १८५० में एक नगर पालिका बन गया।[21] १५ वर्षों की अवधि में, यह हिमालयी क्षेत्र एक हिल स्टेशन बन गया था, और भारत के पहाड़ी, समशीतोष्ण क्षेत्र में स्थित यह क्षेत्र ब्रिटिश प्रशासकों के लिए एक आधिकारिक रिसॉर्ट था।[22] दार्जिलिंग की तरह ही शिमला (ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी), ऊटी (मद्रास प्रैज़िडन्सी की ग्रीष्मकालीन राजधानी), और नैनीताल (उत्तर-पश्चिमी प्रान्त की ग्रीष्मकालीन राजधानी) जैसे सभी हिल स्टेशन भी १८१९ से १८४० के बीच ही स्थापित किए गए थे। यह एक ऐसा समय था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में फैल गया था और अंग्रेजों को इन नगरों की योजना बनाने का आत्मविश्वास महसूस हुआ।[22][23][24] दार्जिलिंग बाद में बंगाल प्रेसीडेंसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गया।[25]
१८५८-१९४७ : ब्रिटिश राज
संपादित करें१८५० से १८७० तक दार्जिलिंग में चाय उद्योग ५६ चाय बागानों तक बढ़ गया, जिसमें लगभग ८००० मज़दूर काम करते थे।[26] चाय बागानों के सुरक्षा बल मज़दूरों पर कड़ा पहरा रखते थे और उत्पादन को बढ़ाने के लिए आवश्यक्तानुसार बल प्रयोग भी करते थे। मज़दूरों की अलग-अलग सांस्कृतिक और जातीय पृष्ठभूमि और चाय बागानों के आम तौर पर दूरस्थ स्थानों के कारण बड़े स्तर पर मज़दूरों की लामबंदी कभी नहीं हुई।[27] २०वीं सदी के अंत तक, १०० चाय बागानों में लगभग ६४००० मज़दूर काम करते थे,[26] और दार्जिलिंग चाय में पाँच मिलियन पाउंड से अधिक स्टर्लिंग का निवेश किया गया था।[27] चाय उद्योग के कारण बड़े पैमाने पर वनों की कटाई ने क्षेत्र के वनवासियों के जीवन को काफी हद तक बदल दिया, जिन्हें या तो दूसरे जंगलों में स्थानांतरित होने के लिए मजबूर होना पड़ा या अपने पूर्व निवास स्थान में ही नए औपनिवेशिक व्यवसायों में कार्यरत होना पड़ा।[28] भर्ती किए गए वनवासियों के मिश्रण में, हिमालय के पार से और भी मज़दूर शामिल हुए।[19] वे एक-दूसरे से नेपाली भाषा में संवाद करते थे।[19] बाद में भाषा, और उनके रीति-रिवाजों और परंपराओं ने दार्जिलिंग की विशिष्ट जातीयता का निर्माण किया, जिसे भारतीय गोरखा कहा जाता है।[19]
१९वीं सदी के अंतिम दशकों तक, शाही और ब्रिटिश राज की प्रांतीय सरकारों के बड़ी संख्या में प्रशासनिक अधिकारी गर्मियों के दौरान हिल स्टेशनों की यात्रा करने लगे थे।[29] स्टेशनों पर वाणिज्य बढ़ गया था क्योंकि मैदानी इलाकों के साथ व्यापार भी बढ़ गया था।[29] १८७२ में दार्जिलिंग के लिए एक ट्रेन सेवा की घोषणा की गई थी। १८७८ तक ट्रेनें ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की राजधानी कलकत्ता[30] से दार्जिलिंग पहाड़ियों के आधार पर स्थित सिलीगुड़ी तक गर्मियों के निवासियों को ले जा सकती थीं। इसके बाद, यात्रा के अंतिम चरण को हिल कार्ट रोड द्वारा पूरा करने के लिए तांगों की आवश्यकता पड़ती थी।[29] लगभग १९०० मीटर की चढ़ाई चढ़ते हुए, यात्रा के लिए "हॉल्टिंग बैरक", या घोड़ों को खिलाने या बदलने के लिए अस्तबल में रुकना आवश्यक था।[31] १८८० तक, हिल कार्ट रोड के साथ रेलवे पटरियों को संरेखित किया जा रहा था,[32] और ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी जमालपुर लोकोमोटिव वर्कशॉप ने मार्ग के लिए भाप इंजनों का निर्माण शुरू कर दिया था।[29] मैनचेस्टर की शार्प, स्टीवर्ट एंड कंपनी द्वारा बनाए गए लघु भाप इंजनों को दो फीट की संकीर्ण गेज पर ट्रेन खींचने के लिए लगाया गया था।[29] दार्जिलिंग के लिए ट्रेन सेवा जुलाई १८८१ में शुरु हुई थी।[29] समुद्र तल से २३०० मीटर ऊपर स्थित घूम रेलवे स्टेशन पर चढ़ने के बाद, ट्रेन दार्जिलिंग की ओर नीचे उतरती थी।[29] अब दार्जिलिंग तक कलकत्ता से एक दिन की यात्रा के भीतर पहुंचा जा सकता था।[29]
२०वीं सदी के अंत तक शिक्षा दार्जिलिंग की प्रसिद्धि का एक और पहलू बन गई। भारत सरकार अधिनियम १८३३ के बाद, जिसने अप्रतिबंधित आप्रवासन की अनुमति दी, ब्रिटिश महिलाओं ने पहले की तुलना में काफी अधिक संख्या में भारत आना शुरू कर दिया था।[33] हिल स्टेशन महिलाओं और बच्चों के लिए गर्मियों के लोकप्रिय गंतव्य बन गए क्योंकि औपनिवेशिक चिकित्सकों ने बेहतर मातृ और शिशु स्वास्थ्य के लिए इनकी सिफारिश करना शुरु कर दिया था।[34] अंग्रेजों ने जल्द ही हिल स्टेशनों को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए आशाजनक स्थल मानना शुरू कर दिया।[35] कलकत्ता में स्थित एंग्लिकन लड़कों का स्कूल सेंट पॉल १८६४ में दार्जिलिंग ले जाया गया।[36] कैथोलिक चर्च ने १८८८ में दार्जिलिंग में लड़कों के लिए सेंट जोसेफ कॉलेज खोला।[36] लड़कियों के लिए, कंपनी शासन के दौरान लोरेटो कॉन्वेंट पहले ही स्थापित किया जा चुका था; कलकत्ता क्रिश्चियन स्कूल सोसाइटी ने १८९५ में दार्जिलिंग में क्वीन्स हिल स्कूल की भी स्थापना की।[37] आंग्ल-भारतीय समुदाय के लोगों को बेहतर-ज्ञात स्कूलों में जाने से हतोत्साहित किया जाता था और प्रथम विश्व युद्ध के बाद तक भारतीयों का इन विद्यालयों में प्रवेश लगभग प्रतिबंधित ही था।[38]
१९४५ में, जब ब्रिटिश राज समाप्ति की ओर बढ़ रहा था, दार्जिलिंग के नेपाली भाषी भारतीय गोरखा निवासियों को ब्रिटिश भारतीय नागरिकों के रूप में अधिकार नहीं दिए गए थे।[39] ये निवासी आर्थिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर थे, और उनकी शारीरिक बनावट के कारण वे मैदानी क्षेत्रों के भारतीयों द्वारा कभी-कभार नस्लवाद का शिकार भी होते थे। १९४१ की जनगणना के अनुसार दार्जिलिंग में गोरखा जन्संख्या का ८६% थे। चाय बागानों के कुल श्रमिकों में ९६% लोग भी गोरखा ही थे।[40][41] इनमें कई लोगों को द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ने के लिए भर्ती किया गया था, लेकिन अंग्रेज इन्हें अधिकार देकर नेपाल और सिक्किम साम्राज्य की सरकारों को क्रोधित नहीं करना चाहते थे, जहं की सामंती श्रम व्यवस्था से भाग कर ये प्रवासी आये थे।[39]
आंग्ल-मिस्र सूडान के गवर्नर-जनरल, मेजर जनरल सर ली ओलिवर फिट्ज़मौरिस स्टैक का जन्म १८६८ में बंगाल के ब्रिटिश पुलिस महानिरीक्षक के बेटे के रूप में दार्जिलिंग में ही हुआ था।[42]
१९४७ के पश्चात : स्वतन्त्र भारत
संपादित करें१९४७ में भारत के विभाजन के बाद, दार्जिलिंग भारतीय अधिराज्य में पश्चिम बंगाल नामक नए प्रांत का हिस्सा बन गया, जो १९५० में भारत गणराज्य में पश्चिम बंगाल राज्य बन गया।[a][44] इसके तुरंत बाद दार्जिलिंग से अंग्रेज पलायन कर गये,[27] और उनके बंगलों को शीघ्र ही मैदानी क्षेत्रों के उच्च वर्गीय भारतीयों द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने अपने बच्चों का शहर के स्कूलों में दाखिला कराया। इन कार्रवाइयों से भारतीय गोरखा आबादी के साथ सामाजिक और आर्थिक तनाव पैदा हुआ तथा वे और भी हाशिए पर चले गये।[27] अंग्रेजों द्वारा स्थापित पदानुक्रमित आर्थिक प्रणाली के कारण उनका आर्थिक विकास कभी हो ही नहीं पाया था, और कुछ मामलों में ऐसा १९४७ के तुरंत बाद के दशकों में भी जारी रहा।[45] इसके बाद जो भारतीय राष्ट्रवाद उभरा, उसने नए स्वतंत्र राष्ट्र में भारतीय नेपालियों की स्थिति को और भी अस्पष्ट कर दिया।[45] भारत को जब भाषाओं के आधार पर राज्यों में विभाजित किया गया, तो उससे स्थनीय भाषाओं में शिक्षित लोगों की एक बड़ी संख्या को सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों में रोजगार पाने का अवसर मिला। लेकिन गोरखाओं के मामले में, केंद्र और राज्य सरकार, दोनों ने बंगाल के उत्तरी क्षेत्रों में नेपाली भाषी राज्य के सभी अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया।[45] आखिरकार, स्वायत्तता की माँगों को बंगाल के नेपाली भाषी क्षेत्रों में आधिकारिक राज्य व्यवसाय के लिए नेपाली भाषा को मान्यता देने की माँग तक सीमित कर दिया गया।[46] इसे पश्चिम बंगाल राजभाषा अधिनियम, १९६१ में स्वीकार किया गया था।[47]
दार्जिलिंग में शेर्पाओं का एक बड़ा समुदाय था। मूल रूप से पूर्वी तिब्बत से एक जातीय समूह, जिनके पूर्वज एवरेस्ट पर्वत के नीचे नेपाल के कुछ गाँवों में चले गए थे। शेरपा १९वीं सदी के उत्तरार्ध में सड़क निर्माण में काम की तलाश में श्रमिकों के रूप में दार्जिलिंग आए थे।[48] चूंकि हिमालय में पर्वतारोहण लोकप्रिय हो गया था और नेपाल विदेशियों के लिए बंद था, कई पश्चिमी पर्वतारोही और उत्साही लोग अपने हिमालयी अभियानों की योजना बनाने के लिए दार्जिलिंग आते थे।[48] शेरपा कुली के रूप में अपनी असाधारण शारीरिक क्षमता के लिए लोकप्रिय थे। इन शारीरिक क्षमताओं और उनकी चुस्ती ने १९०० के दशक की शुरुआत में यूरोपीय जैव रसायनज्ञों को दार्जिलिंग का दौरा करने के लिए प्रेरित किया।[49] दार्जिलिंग के सबसे प्रसिद्ध शेरपाओं में अंग थारके[50] और तेन्जिंग नॉरगे थे।[51] २९ मई १९५६ को तेनज़िंग और एडमंड हिलेरी माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने वाले पहले दो व्यक्ति बने, जिससे दोनों को विश्वभर में प्रसिद्धि मिली। भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तेनजिंग को अपने संरक्षण में ले लिया,[52] और नवंबर १९५४ में दार्जिलिंग में हिमालय पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना के बाद तेनजिंग इसके पहले क्षेत्रीय निदेशक बने।[53]
१९वीं सदी के उत्तरार्ध में तिब्बत से बड़ी संख्या में अप्रवासी दार्जिलिंग में आने लगे थे।[54] धनी तिब्बती अभिजात वर्ग ने अपने बच्चों को दार्जिलिंग के स्कूलों में भेजा था जिनमें से कुछ बड़े होकर दार्जिलिंग क्षेत्र में ही बस गए।[54] १९५०-५१ में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बाद, कई तिब्बती भारत चले आये। इनमें से कुछ दार्जिलिंग क्षेत्र में बस गए, जिनमें १४वें दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोंडुप भी शामिल थे।[55] १९५९ के तिब्बती विद्रोह के बाद, दलाई लामा स्वयं निर्वासन में भारत भाग गए और उनके बाद हजारों की संख्या में तिब्बती शरणार्थी आए, जिनमें से कई ने दार्जिलिंग-कालिंपोंग क्षेत्र में शरण ली।[56] १९५९ में दार्जिलिंग में एक तिब्बती शरणार्थी स्वयं सहायता केंद्र की स्थापना की गई थी।[43]
मई १९७५ में, दार्जिलिंग के उत्तर में सिक्किम अधिराज्य को जनमत संग्रह के माध्यम से भारत गणराज्य में शामिल कर लिया गया। उसके एक महीने बाद, सिक्किम, जिसमें लगभग दो-तिहाई आबादी नेपाली बोलती थी, को भारत का एक राज्य बना दिया गया।[57] दार्जिलिंग क्षेत्र के गोरखाओं को यह बात ध्यान में थी कि उत्तरी बंगाल के गोरखा जिलों में नेपाली बोलने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा थी और स्वायत्तता की उनकी माँग का कोई नतीजा नहीं निकला था।[57] इसके अलावा, भारत सरकार नेपाली को भारत के संविधान में आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देने के लिए अनिच्छुक रही थी।[57] इस मुद्दे पर वरिष्ठ भारतीय नेतृत्व द्वारा की गई निंदा - पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने नेपाली को एक विदेशी भाषा कहा और पूर्व उप प्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने गोरखाओं को विश्वासघाती और "मंगोल पूर्वाग्रहों" को बढ़ावा देने वाला बताया - भी गोरखाओं के ध्यान में थी।[58] एक दशक बाद, राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान, दार्जिलिंग के पूर्व में स्थित असम के कई छोटे-छोटे क्षेत्रों, जो हिंसक जातीय अलगाववाद से ग्रस्त थे, को राज्य का दर्जा दिया गया।[58] इन सभी कारकों ने गोरखाओं के बीच राज्य के लिए एक उग्रवादी माहौल बनाने में भूमिका निभाई जिसने गोरखालैंड आंदोलन को जन्म दिया।[58] इसके अन्तर्गत सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (जीएनएलएफ) की स्थापना हुई।[58] दार्जिलिंग में एक अलग राज्य के लिए आंदोलन में हिंसक विरोध प्रदर्शन,[59] और अलग-अलग आतंकवादी समूहों के बीच लड़ाई शामिल थी।[60] सरकार और गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (जीएनएलएफ) के बीच एक समझौते के बाद आंदोलन समाप्त हो गया। इसके परिणामस्वरूप १९९८ में एक निर्वाचित निकाय, दार्जिलिंग गोर्खा पार्वत्य परिषद (डीजीएचसी) की स्थापना हुई, जिसे जिले को संचालित करने के लिए कुछ स्वायत्तता प्राप्त हुई।[59]
१९९२ में, नेपाली भाषा को भारतीय संविधान में शामिल करके भारत में केन्द्रीय स्तर पर आधिकारिक रूप से मान्यता दी गई थी।[61] हालांकि दार्जिलिंग शांतिपूर्ण हो गया, लेकिन एक अलग राज्य का मुद्दा लटक गया।[62] गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के नेतृत्व में २००८ में एक नए राज्य के लिए आंदोलन फिर से शुरू हुआ।[63] जुलाई २०११ में, जीजेएम, राज्य और केन्द्र सरकारों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें पश्चिम बंगाल राज्य के भीतर सीमित स्वायत्तता के साथ एक निर्वाचित गोर्खालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) का गठन शामिल था। इसका स्थनीय स्तर पर बहुत कम उत्साह दिखा।[64] २०१३ में, दक्षिण भारत के तेलंगाना को राज्य का दर्जा दिए जाने के बाद दार्जिलिंग में नया आंदोलन शुरू हो गया।[64] चार साल बाद, अधिक आंदोलन के कारण दार्जिलिंग में कई महीनों तक हिंसा, खाद्यान्न की कमी और हड़ताल हुई, लेकिन इसके परिणामस्वरूप मोर्चा गुटों में विभाजित हो गया।[64] २०१७ में, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पुनर्गठित जीटीए में नेतृत्व के लिए एक उदारवादी मोर्चा राजनेता को नियुक्त किया, जिससे आंदोलन के संस्थापक बिमल गुरुंग को हाशिए पर डाल दिया गया और अंततः उन्हें बाहर कर दिया गया।[65]
भूगोल
संपादित करेंदार्जिलिंग की औशत उंचाई २,१३४ मिटर वा ६,९८२ फ़िट है[66]। यह जगह दार्जिलिंग हिमालयन हिल क्षेत्रमै दार्जिलिंग-जलपहर श्रृंखला मैं अवस्थित है जो दक्षिण मैं घुम, पश्चिम बंगाल से उठ्ता है। यह श्रृंखला Y-आकार की है जिसका जग कतपहर और जलपहर मैं है और दो बाहु में उत्तर मैं अब्जर्भेटरी हिल के उत्तर से जाता है। उत्तर-पूर्वी बाहू लेबोङ मैं अन्त्य होता है। उत्तर-पश्चीमी बाहू नर्थ पोइन्ट से जाकर तक्भेर चाय बगान के नजदीक अन्त्य होता है।[67]
मौसम
संपादित करेंदार्जिलिंग की जलवायु समशीतोष्ण उपोष्णकटिबंधीय उच्चभूमि है, जिसका कोपेन जलवायु वर्गीकरण 'सी डब्लू बी' है।[68] दार्जिलिंग में वर्ष भर में औसतन ३१०० मिमी (१२० इंच) वर्षापात होती है।[b] दक्षिण एशिया के मानसून के कारण अस्सी प्रतिशत वार्षिक वर्षा जून से सितंबर के बीच होती है।[70] मई से जून तक बारिश में वृद्धि का प्रतिशत २.६ या २६०% है।[70] इसके विपरीत, वार्षिक वर्षा का केवल ३% दिसंबर और मार्च के बीच होता है।[70] दार्जिलिंग समान अक्षांश (२७° एन) पर स्थित पूर्वी हिमालय के अन्य क्षेत्रों से अधिक ऊँचाई पर है, और इसकी विरल हवा के कारण यहां यूवी विकिरण का स्तर तदनुसार अधिक रहता है। मई, जून और जुलाई के चरम महीनों के दौरान इसकी औसत मासिक यूवी विकिरण लगभग ४५०० माइक्रोवाट प्रति वर्ग सेमी प्रतिदिन होती है। यह पूर्व की ओर स्थित असम की पहाड़ियों से ५०% अधिक है, जिनकी औसत ऊँचाई १७० मीटर (५६० फीट) है।[71]
दार्जिलिंग के जलवायु आँकड़ें | |||||||||||||
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माह | जनवरी | फरवरी | मार्च | अप्रैल | मई | जून | जुलाई | अगस्त | सितम्बर | अक्टूबर | नवम्बर | दिसम्बर | वर्ष |
उच्चतम अंकित तापमान °C (°F) | 19.0 (66.2) |
19.2 (66.6) |
24.0 (75.2) |
27.0 (80.6) |
25.7 (78.3) |
27.7 (81.9) |
28.0 (82.4) |
28.5 (83.3) |
27.5 (81.5) |
26.0 (78.8) |
24.5 (76.1) |
20.0 (68) |
28.5 (83.3) |
औसत उच्च तापमान °C (°F) | 11.1 (52) |
12.4 (54.3) |
15.9 (60.6) |
18.6 (65.5) |
19.3 (66.7) |
19.8 (67.6) |
19.5 (67.1) |
19.9 (67.8) |
19.5 (67.1) |
19.4 (66.9) |
17.2 (63) |
13.7 (56.7) |
17.3 (63.1) |
औसत निम्न तापमान °C (°F) | 1.7 (35.1) |
3.1 (37.6) |
6.0 (42.8) |
9.0 (48.2) |
10.8 (51.4) |
12.8 (55) |
13.4 (56.1) |
13.5 (56.3) |
12.7 (54.9) |
9.9 (49.8) |
6.2 (43.2) |
3.5 (38.3) |
8.8 (47.8) |
निम्नतम अंकित तापमान °C (°F) | −7.2 (19) |
−6.4 (20.5) |
−4.8 (23.4) |
0.0 (32) |
1.4 (34.5) |
6.6 (43.9) |
3.9 (39) |
8.0 (46.4) |
6.2 (43.2) |
3.2 (37.8) |
−4.4 (24.1) |
−4.6 (23.7) |
−7.2 (19) |
औसत वर्षा मिमी (इंच) | 10.8 (0.425) |
11.4 (0.449) |
26.4 (1.039) |
89.0 (3.504) |
160.3 (6.311) |
419.1 (16.5) |
648.5 (25.531) |
529.8 (20.858) |
385.2 (15.165) |
78.8 (3.102) |
11.2 (0.441) |
2.8 (0.11) |
2,373.3 (93.437) |
औसत वर्षाकाल | 0.9 | 1.2 | 2.6 | 6.7 | 10.2 | 17.9 | 23.4 | 22.0 | 16.1 | 3.9 | 0.6 | 0.7 | 106.1 |
औसत सापेक्ष आर्द्रता (%) (at 17:30 IST) | 82 | 78 | 79 | 82 | 90 | 94 | 95 | 94 | 92 | 84 | 78 | 80 | 86 |
माध्य मासिक धूप के घण्टे | 167.4 | 139.8 | 145.7 | 147.0 | 151.9 | 72.0 | 77.5 | 102.3 | 96.0 | 167.4 | 189.0 | 189.1 | 1,645.1 |
माध्य दैनिक धूप के घण्टे | 5.4 | 5.0 | 4.7 | 4.9 | 4.9 | 2.4 | 2.5 | 3.3 | 3.2 | 5.4 | 6.3 | 6.1 | 4.5 |
स्रोत #1: भारत मौसम विज्ञान विभाग[72][73] UV Index[74] | |||||||||||||
स्रोत #2: जर्मन मौसम विज्ञान विभाग (धूप 1891–1990)[75] |
नागरिक प्रशासन
संपादित करेंदार्जिलिंग सहर मैं दार्जिलिंग नगरपालिका और पत्ताबोंग चाय बगान सम्मिलित है।[76] १८५० में स्थापित दार्जिलिंग नगरपालिका यहां का नागरिक प्रशासन संभालता है, जिसका प्रशासन क्षेत्र १०.५७ वर्ग किलोमिटर (४.०८ वर्ग मील) है।[76] The municipality consists of a board of councillors elected from each of the 32 wards of Darjeeling town as well as a few members nominated by the state government. The board of councillors elects a chairman from among its elected members;[67] the chairman is the executive head of the municipality. The गोर्खा नेसनल लिबरेसन फ़्रन्ट (GNLF) at present
टिप्पणियां
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करेंउद्धरण
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- ↑ "Tourist Places to Visit in Darjleeng".
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Capital of the Indian Empire, situated in 22° 34' N and 88° 22' E, on the east or left bank of the Hooghly river, within the Twenty-four Parganas District, Bengal
- ↑ Bengal, Presidency (1868). Annual Report on the Administration of the Bengal Presidency for 1867–68. Bengal Secretariat Press. p. 125. 8 June 2022 को मूल से पुरालेखित. अभिगमन तिथि: 8 June 2022.
Material has been collected for two halting Barracks in the Darjeeling hill cart road near Sonadah, the site for which has been cleared.
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