पपीहा एक पक्षी है जो दक्षिण एशिया में बहुतायत में पाया जाता है। यह दिखने में शिकरा की तरह होता है। इसके उड़ने और बैठने का तरीका भी बिल्कुल शिकरा जैसा होता है। इसीलिए अंग्रेज़ी में इसको Common Hawk-Cuckoo कहते हैं। यह अपना घोंसला नहीं बनाता है और दूसरे चिड़ियों के घोंसलों में अपने अण्डे देता है। प्रजनन काल में नर तीन स्वर की आवाज़ दोहराता रहता है जिसमें दूसरा स्वर सबसे लंबा और ज़्यादा तीव्र होता है। यह स्वर धीरे-धीरे तेज होते जाते हैं और एकदम बन्द हो जाते हैं और काफ़ी देर तक चलता रहता है; पूरे दिन, शाम को देर तक और सवेरे पौं फटने तक।

पपीहा
अवयस्क पपीहा
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: जंतु
संघ: रज्जुकी
वर्ग: पक्षी
गण: क्यूकलिफॉर्मीस
कुल: क्यूकलिडी
वंश: हायरोकॉक्सिस
जाति: एच. वेरिअस
द्विपद नाम
हायरोकॉक्सिस वेरिअस
(वाल, १७९७)
पर्यायवाची

क्यूकलस वैरिअस
क्यूकलस एज्यूलैन्स[2]

परिचय संपादित करें

पपीहा कीड़े खानेवाला एक पक्षी है जो बसंत और वर्षा में प्रायः आम के पेड़ों पर बैठकर बड़ी सुरीली ध्वनि में बोलता है।

देशभेद से यह पक्षी कई रंग, रूप और आकार का पाया जाता है। उत्तर भारत में इसका डील प्रायः श्यामा पक्षी के बराबर और रंग हलका काला या मटमैला होता है। दक्षिण भारत का पपीहा डील में इससे कुछ बड़ा और रंग में चित्रविचित्र होता है। अन्यान्य स्थानों में और भी कई प्रकार के पपीहे मिलते हैं, जो कदाचित् उत्तर और दक्षिण के पपीहे की संकर संतानें हैं। मादा का रंगरूप प्रायः सर्वत्र एक ही सा होता है। पपीहा पेड़ से नीचे प्रायः बहुत कम उतरता है और उसपर भी इस प्रकार छिपकर बैठा रहता है कि मनुष्य की दृष्टि कदाचित् ही उसपर पड़ती है। इसकी बोली बहुत ही रसमय होती है और उसमें कई स्वरों का समावेश होता है। किसी किसी के मत से इसकी बोली में कोयल की बोली से भी अधिक मिठास है। हिंदी कवियों ने मान रखा है कि वह अपनी बोली में 'पी कहाँ....? पी कहाँ....?' अर्थात् 'प्रियतम कहाँ हैं'? बोलता है। वास्तव में ध्यान देने से इसकी रागमय बोली से इस वाक्य के उच्चारण के समान ही ध्वनि निकलती जान पड़ती है। यह भी प्रवाद है कि यह केवल वर्षा की बूँद का ही जलपीता है, प्यास से मर जाने पर भी नदी, तालाब आदि के जल में चोंच नहीं डुबोता। जब आकाश में मेघ छा रहे हों, उस समय यह माना जाता है कि यह इस आशा से कि कदाचित् कोई बूँद मेरे मुँह में पड़ जाय, बराबर चोंच खोले उनकी ओर एक लगाए रहता है। बहुतों ने तो यहाँ तक मान रखा है कि यह केवल स्वाती नक्षत्र में होनेवाली वर्षा का ही जल पीता है और गदि यह नक्षत्र न बरसे तो साल भर प्यासा रह जाता है।

इसकी बोली कामोद्दीपक मानी गई है। इसके अटल नियम, मेघ पर अन्यय प्रेम और इसकी बोली की कामोद्दीपकता को लेकर संस्कृत और भाषा के कवियों ने कितनी ही अच्छी अच्छी उक्तियाँ की है। यद्यपि इसकी बोली चैत से भादों तक बराबर सुनाई पड़ती रहती है; परंतु कवियों ने इसका वर्णन केवल वर्षा के उद्दीपनों में ही किया है। वैद्यक में इसके मांस को मधुर कषाय, लघु, शीतल कफ, पित्त और रक्त का नाशक तथा अग्नि की वृद्धि करनेवाला लिखा है।

अभिलक्षण संपादित करें

   
पपीहा (मादा बायें) शिकरे (दायें) के बहुरूपिये के रूप में विकसित हुआ है।[3]

पपीहा एक मध्य से बड़े आकार का पक्षी होता है, जो तकरीबन कबूतर के आकार का होता है (३४ से.मी.)। इसके पंख पीठ में स्लेटी रंग के होते हैं और पेट में सफ़ेद-भूरी धारियाँ होती हैं। पूँछ में चौड़ी धारियाँ होती हैं। नर और मादा दोनों एक जैसे दिखते हैं। उनके आँखों के बाहर एक पीला छल्ला होता है। इनके अवयस्क भी शिकरे के अवयस्क की तरह दिखते हैं और उनके पेट में तीर के ऊपरी भाग जैसे काले निशान होते हैं।[4] पहली बार देखने में यह बिल्कुल किसी बाज़ की तरह दिखता है। उड़ते समय यह किसी बाज़, खासतौर पर शिकरा, की तरह उड़ता है यानि पर फड़फड़ाकर फिर उन्हें फैलाकर उड़ता है। वह बाज़ की तरह ही उड़ते समय ऊपर की ओर उड़ता है और बैठने के बाद अपनी पूँछ को एक से दूसरी तरफ़ हिलाता है। यहाँ तक की पक्षी और छोटे जानवर भी उसके दिखावे से भ्रमित हो जाते हैं और भय से शोर मचाने लगते हैं। नर मादा से थोड़ी बड़े होते हैं।[5]

पपीहे का गीत

आवास संपादित करें

यह पश्चिम में पाकिस्तान से पूर्व में बांग्लादेश और उत्तर में ८०० मी. की हिमालय की ऊँचाई से दक्षिण में श्री लंका तक पाया जाता है। यह अमूमन साल भर अपने ही इलाके में आवास करता है लेकिन सर्दियों में जहाँ ऊँचाई ज़्यादा हो और इलाका ज़्यादा सूखा होता है, वहाँ से यह पास के इलाकों में प्रवास कर जाता है जहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियाँ ज़्यादा अनुकूल हों। यह हिमालय में १००० मी. से नीचे पाया जाता है लेकिन उसके ऊपर के इलाके में इसकी बिरादरी का बड़ा कोकिल पाया जाता है। पपीहा पेड़ों में ही रहता है और कभी ही ज़मीन पर आता है। इसका आवास बाग, बगीचे, पतझड़ी और अर्ध सदाबहार जंगलों में होता है।[5]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. BirdLife International (2008). Cuculus varius. 2008 संकटग्रस्त प्रजातियों की IUCN लाल सूची. IUCN 2008. Retrieved on २७/०९/२०१२.
  2. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  3. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  4. Rasmussen, PC & JC Anderton (2005). Birds of South Asia: The Ripley Guide. 2. Smithsonian Institution & Lynx Edicions. पृ॰ 229.
  5. Ali S & Ripley SD (1981). Handbook of the Birds of India and Pakistan. Volume 3 (2 संस्करण). New Delhi: Oxford University Press. पपृ॰ 200–202.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें