प्रमुख मीमांसक आचार्य

तैत्तिरीय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण आदि गंथ तथा श्रौत सूत्रों की समीक्षा से विदित होता है कि वैदिक वाक्यों में प्रतीयमान विरोध का परिहार करने के लिये ऋषि-महर्षियों ने जो छानबीज की वही विचारधारा मीमांसा के रूप में परिणत हुई। मीमांसा, कर्मकाण्ड विषयक वाक्यों के विरोध का परिहार करती है। इस पर जिन प्रमुख आचार्यो ने टीकाओं या भाष्यों की रचना की, उनकी अनुक्रमणिका यह है-

1. सूत्रकार जैमिनि, 2. भाष्यकार शबर स्वामी 3. कुमारिल भट्ट 4. प्रभाकर मिश्र 5. मंडन मिश्र,
6. शालिकनाथ मिश्र 7. वाचस्पति मिश्र 8. सुचरित मिश्र 9. पार्थसारथि मिश्र, 10. भवदेव भट्ट
11 भवनाथ मिश्र, 12. नंदीश्वर, 13. माधवाचार्य, 14. भट्ट सोमेश्वर, 15. आप देव,
16. अप्पय दीक्षित, 17. सोमनाथ 18. शंकर भट्ट, 19. गंगा भट्ट, 20. खंडदेव, 21. शंभु भट्ट और 22. वासुदेव दीक्षित।

मीमांसा संप्रदाय तथा मीमांसा दर्शन का सूत्र के रूप में संकलन भगवान्‌ जैमिनि ने किया है। इसके संबंध में दो बातें हैं -

  • (1) भगवान्‌ जैमिनि ने उस समय में महर्षियों की जो विचार धारा थी उसको लेकर किसी को पूर्वपक्ष में, किसी को सिद्धांत के रूप में रखकर तथा अपने अभिप्राय को मिलाकर मीमांसा दर्शन बनाया। सभी दर्शनशास्त्रों की यही रीति है।
  • (2) ब्रह्मा से लेकर व्यास तक संक्रात गुरु परम्परा को जैमिनि ने प्राप्त किया। यह 'न्यायरत्नाकर' में उद्धृत है। 'क्रियानान्तर्यरूपी वा गुरुपर्वक्रमोपि वा सदंसभावयोस्तस्य विशेषो नोपलम्यते।'

इस वार्तिक की व्याख्या में मीमांसा दर्शन का इतिहास बहुत रोचक है। इस इतिहास को हम तीन भागों में विभाजित करते हैं।

जैमिनि से पूर्व के आचार्य

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जिन आचार्यो के नाम का उल्लेख जैमिनि ने अपने सूत्रों में किया है उनके ग्रंथ नहीं मिलते। संक्षेप में उनके नामों की सूची यह है-

1. आत्रेय, 2. आलेखन; 3. आश्मरथ्य, 4. ऐतिशायन; 5. कामुकायन; 6.कार्ष्णजिनि; 7. काशकृत्स्न 8. बादरायण; 9. बादरि; 10. लाबुकायन।

जिन प्राचीन आचार्यो के नाम द्वादशलक्षणी में उपलब्ध होते हैं, वे सब एक समय के थे या भिन्न-भिन्न समय के थे और एक स्थान के थे या भिन्न भिन्न स्थानों के, यह नहीं कहा जा सकता। क्या उनके ग्रंथों को देखकर जैमिनि ने सभी पक्षों का संग्रह किया है, यह भी स्पष्ट नहीं है।

द्वादशलक्षणात्मक मीमांसा दर्शन के कर्ता जैमिनि मुनि हैं। जैमिनि के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं। लेकिन जैमिनि सूत्रों में ऐसे सूत्र है जो पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते। जैसे 'द्यावोस्तथेति', 'गव्यस्य च तदादिषु' इत्यादि, इससे ये पाणिनि से प्राचीन हैं यह अनुमान करने का अवसर है। इस विषय में जो सूत्र उपलब्ध होते हैं वे जैमिनि के हैं, यह निश्चय है। लेकिन पाश्चात्य संस्कृतविद् इस विषय में विप्रतिपन्न हैं, जैमिनि तथा बादरायण का गुरुशिष्यभाव प्रसिद्ध है। इस लिए प्रामाणिक आचार्य होने के कारण अपने-अपने ग्रन्थों में जैमिनि अपने गुरु बादरायण का नाम लेते हैं और बादरायण अपने शिष्य का नाम लेते हैं।

पाणिनि, क्रमादिगण में मीमांसा शब्द का पाठ करते है। इसलिए उनसे प्राचीन हो सकते हैं। जैमिनि तथा आश्वलायन, शौनक आदि का मीमांसा का परिज्ञान उनके सूत्रों से स्पष्ट मालूम होता है। बृहद्देवता में बहुत से श्लोक हैं जो जैमिनि की याद दिलाते हैं, इसलिए जैमिनि का समय ई० पू० ४०० प्रतीत होता है। प्रसिद्ध इतिहासविद् युधिष्ठिर मीमांसक पाणिनि का समय विक्रमपूर्व २९०० वर्ष और जैमिनि का समय विक्रमपूर्व ३००० मानते हैं।

इन्होंने मीमांसा के सूत्रों के ऊपर एक वृत्ति लिखी है। मीमांसा भाष्यकार शबर स्वामी ने अपने भाष्य में कई स्थानों में वृत्तिकार पद से इनका निर्देश किया है।

शंकराचार्य भी देवताधिकरण में उपवर्ष का नाम लेते हैं। 'वर्णा एव तु शब्दः' इति भगवान्‌ उपवर्षः। भगवता उपवर्षेण प्रथमे तन्त्रे आत्मास्तित्वाभिधानप्रसक्तौ शारीरके वक्ष्याम इत्युद्धार; कृत इति'। इससे मालूम होता है कि सम्पूर्ण मीमांसा (पूर्वमीमांसा १-१६ अध्याय तथा उत्तरमीमांसा १७-२० अध्याय अर्थात् १-२० अध्याय) के ऊपर वृत्ति रही है। इन उद्धरण के सिवा इनका ग्रन्थ नहीं मिलता। समय अनुमानत: ई० पू० ३००-१०० हो सकता है।

आपकी 'कृतकोटि' नामक एक वृति थी जिसका विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने अपने भाष्य की प्रामाणिकता के लिये उद्धरण दिया है। इस विषय का निर्देश 'प्रपञ्चहृदय' नामक ग्रंथ में हुआ है। इनके बाद मीमांसासूत्रवृत्तिकार के व्याख्याता देव स्वामी और भवदास ऐसे दो प्रपञ्चहृदय से मालूम होते हैं, लेकिन इनका कौन सा ग्रंथ था, यह कहना कठिन है। कुमारिल भट्ट ने अपने ग्रंथ में भवदास का नाम तीन-चार बार खण्डन करने के लिये लिया है।

शबर स्वामी

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मीमांसा सूत्र पर शबर स्वामी का भाष्य आज भी उपलब्ध है। इसमें चौबीस हजार ग्रंथ (श्लोक) हैं। इन्होंने संकर्षण काण्ड के ऊपर भाष्य किया है, परन्तु वह नहीं मिलता, लेकिन 'संकर्षकाण्डे वक्ष्यते' ऐसा उल्लेख मिलता है। पूना से प्रकाशित 'न्यायमाला' की भूमिका में हर्षवर्धन कृत लिंगानुशासन का शबर स्वामी ने ' सर्ववर्ण ' नामक व्याख्यान किया है। हिरण्यकेशीय गृह्य पर भी आपका भाष्य है।

संकर्षकाण्डचन्द्रिका में जिस भाष्यकार का निर्देश मिलता है उनका नाम देवस्वामी है। आप कश्मीर के निवासी तथा दीपस्वामी के पुत्र थे। आप मैत्रायणी शाखा के अध्येता थे।

आपने प्रत्येक अधिकरण के विषय वाक्य तैत्तिरीय, ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण वाक्य रहते हुए मैत्रायणी शाखा को लेकर ही विचार किया है। आप श्रुतिविरुद्ध स्मृतियों को प्रमाण नहीं मानते थे। आपका कथन है कि जो दृष्टार्थक स्मृति वचन हैं उनकी मूल श्रुति यदि नहीं मिलती तो उसकी कल्पना नहीं करनी चाहिए। रामकृष्ण भांडारकर तथा पांडुरंग वामन काणे आदि विद्वानों का कहना है कि आप पतञ्जलि के बाद के हैं। शबर स्वामी ने दशमाध्याय अष्टम पाद के पहले अधिकरण में महाभाषाधिकार के संबंध में 'सद्वादी पाणिनिः असद्वादी कात्यायनः' कहा है। यदि पतंजलि प्राचीन होते तो उनकी भी अवश्य खबर लेते, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिऐ पतंजलि से शबर स्वामी प्राचीन है। इतना ही नहीं, 'अथातो धर्म जिज्ञासा' इस सूत्र में 'धर्माय जिज्ञासा' धर्मजिज्ञासा करके चतुर्थी तत्पुरुष समास बतलाता है 'अश्वघोषादीनां असंख्यानम्‌' इस कात्यायन महावार्तिक से। इस वार्तिक का पतंजलि ने खंडन किया। मीमांसा दर्शन में 'अथातो धर्म जिज्ञासा' इत्यादि स्थल में कुमारिल भट्ट तथा 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में शकंराचार्य ने महाभाष्याकार के पक्ष को लेकर कर्मणि षष्ठी समास माना है। इसलिये यह महभाष्यकार से प्राचीन अवश्य है। शाबर भाष्य और पातंजल भाष्य इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर स्पष्ट मालूम होता है कि पातंजल भाष्य मेें शाबर भाष्य का शब्दतः, अर्थतः अनुकरण किया गया है। इनको शंकराचार्य ने 'आगमतात्पर्यविद्' इस शब्द से निर्देश किया है।

कुमारिल भट्ट

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शबर स्वामी के बाद मीमांसा दर्शन में कुमारिल भट्ट का स्थान है। ये मीमांसादर्शन में युगप्रवर्तक आचार्य माने जाते हैं। शाबर भाष्य तक मीमांसा दर्शन का रूप स्पष्ट नहीं था। इन्होंने मीमांसा को दर्शनों मेंश् स्थान देने का सर्वप्रथम प्रयास किया जो अत्यंत स्तुत्य है।

बौद्धों का सामना करने का इन्हीं को प्रथम अवसर मिला। इनसे खंडित बौद्ध दर्शन का बाद में और लोगों ने भी खंडन किया। इनमें यह विशेषता है कि बौद्ध दर्शन को यथावत्‌ समझने लिये ये बौद्धभिक्षु का स्वरूप धारण कर दक्षिण से बिहार में नालंदा आये थे। इन्होेंने बौर्द्ध दर्शन का यथावत्‌ अध्ययन कर बौद्ध सिद्धांतों का खंडन किया। यह इनके वार्तिक से स्पष्ट है। डॉ॰ तारानाथ ने तिब्बतवासी धर्मकीर्ति की प्रशंसा करते हुए लिखा है-कुमारिल भट्ट संपन्न गृहस्थ थे। इनके यहाँ पॉँच सौ हल चलते थे। उनके यहाँ धर्मकीर्ति नौकर था जो उनकी बड़ी सेवा करता था। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे शास्त्रश्रवण करने की अनुमति दे दी। इन्हीं से शास्त्र पढ़कर वह महान्‌ विद्वान बन गया उसने शास्त्रार्थ में कुमारिल भट्ट की वृद्धावस्था और धर्मकीर्ति की युवावस्था थी, अर्थात्‌ वे समकालिक थे। वेदशास्त्र को नास्तिकों से बचाना कुमारिल भट्ट का जीवन लक्ष्य था। सारा जीवन इन्होंने इसी कार्य में लगाया।

कुमारिल भट्ट ने शाबरभाष्य पद दो टीकाएँ लिखी थीं जिसका उल्लेख माधव सरस्वती ने 'सर्वदर्शन कौमुदी' में किया है। वे टीकाएँ आजकल नहीं मिलती हैं। इसका आभास श्लोकवार्तिक आदि से मिलता है।

अब जो वार्तिक मिलता है वह तीन विभागों में विभक्त है-श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक और टुप्टीका। श्लोकवार्तिक प्रथम पाद का, प्रथमाध्याय द्वितीयपादश् से तृतीयाध्याय पर्यंत तंत्रवार्तिक, तथा चतुर्थाध्याय से बारह अध्याय तक टुप्टीका है।

ये संभवतः दाक्षिणात्य थे। इसमें प्रमाण शिष्टाचार प्रामाणयधिकरण में तथा पिकनेमाधिकरण में दाक्षिणात्यों की दक्षिणी (तमिल) भाषा के शब्दों का निर्देश किया है जैसे-वयर (उदरम्‌), शोर (भात), पांबु (सर्प) इत्यादि। इसके लिये और भी कोई प्रमाण वार्तिक में उपलब्ध होते हैं। इनका समय 620-700ई के लगभग है।

प्रभाकर मिश्र

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मीमांसादर्शन में सूत्र के बाद उपलब्ध ग्रंथों में सबसे प्राचीन शाबर भाष्य है जिस पर कुमारिल भट्ट की वार्तिक नाम से प्रसिद्ध व्याख्या है। परन्तु भाष्य का उल्लेख करके भी कहीं-कहीं व्याख्यान किए जाने के कारण कुमारिल की व्याख्या प्रभाकर मिश्र को अच्छी नहीं लगी। इसलिये वेद-वाक्यार्थ-निर्णय में उस व्याख्यान को अनुपयुक्त समझक प्रभाकर मिश्र ने शाबर भाष्य के ऊपर शब्द सामर्थ्य एवं अर्थ सामर्थ्य को लेकर क्रमशः 'विवरण' एवं 'निबन्धन' इस प्रकार दो टीकाएँ की हैं। इन्होंने भाष्य के आधार पर ही सब कुछ कहा है। स्वतंत्रतापूर्वक कुछ नहीं कहा। इनमें पहली व्याख्या अनुपलब्ध है, जो लघ्वी नाम से प्रसिद्ध है। दूसरी जो बृहती नाम से प्रसिद्ध है, पञ्चमाध्याय तथा षष्ठाध्याय का कुछ अंश संस्कृत यूनिवर्सिटी, मद्रास से प्रकाशित हो चुकी है। प्रभाकर, कुमारिल भट्ट के शिष्य नहीं, बल्कि एक दूसरे प्राचीन स्वतंत्र प्रस्थान के उपासक हैं। आपकी जन्मभूमि मिथिला थी तथा आप दिवाकर मिश्र के पुत्र थे। दिवाकर मिश्र दक्षिण कोशलेन्द्र के अमात्य थे। प्रभाकर मिश्र ही वेद प्रामाण्य-संरक्षण के श्रेयोभाजन हैं। शालिकनाथ मिश्र का गुरु होने से आपका मत गुरुमत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। (समय 650-720 ई0)

मंडन मिश्र

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मंडन मिश्र मैथिल ब्राह्मण थे। संपूर्ण मीमांसा दर्शन का अध्ययन अपनी गृहस्थावस्था में आपने कुमारिल भट्ट से किया। उसी अवस्था में आपने विधिविवेक, भावनाविवेक, विभ्रमविवेक, ब्रह्मसिद्धि, वेदांत में, मीमांसानुक्रमणिका, स्फोटसिद्धि व्याकरण में, आदि ग्रंथों का निर्माण किया।

यह कहा जाता है कि आचार्य शंकर से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर संन्यास लेने के बाद ये सुरेश्वराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। आधुनिक भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के मत से मंडन एवं सुरेश्वर दो व्यक्ति माने जाते हैं। भारत के कितने ही विद्वानों के मत में दोनों एक ही व्यक्ति थे। लेकिन, किसी भी प्रामाणिक प्राचीन स्रोत से इन दोनों महानुभावों का एकत्व प्रमाणित नहीं होता।

मंडन मिश्र के ग्रंथों की प्रवृत्ति प्रभाकर मिश्र के सिद्धांतों के खंडन के लिये है। 'कार्य विध्यर्थः' (वेद कार्यपरक होता है, सिद्धार्थ-परक नहीं) प्रभाकर के इस मत के खंडन के लिये ही विधिविवेक की रचना हुई। 'इष्ट साधनत्वं विध्यर्थ' इसका समर्थन 'विधिविवेक' ने किया। अख्यातिवाद (सब ज्ञान यथार्थ ही होता है, अययार्थ नहीं) का खंडन करके अन्यथाख्यातिवाद का प्रतिपादन किया गया है।

शालिकनाथ मिश्र

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शालिकनाथ प्रभाकर मिश्र के शिष्य थे। न्यायाचार्य उदयन 'स्तुति कुसुमांजलि' में 'गौड मीमांसक' शब्दों से आपका निर्वेश करते हैं। ये गौड़ देश के निवासी थे। प्रभाकर मत के समर्थन का मुख्य यश आपको है। विवरण पर 'दीप शिखा', निबंधन पर 'ऋजु विमला', दोनों टीकाएँ आपने लिखीं। यदि आपके ये टीका ग्रंथ न होते तो प्रभाकर सिद्धांतों का समझना सरल न होता। पहली पंचिका उपलब्ध नहीं। दूसरी म्रदास यूनिवर्सिटी से कई भागों में प्रकाशित है। 'प्रकरण पंचिका' आपका स्वतंत्र तीसरा ग्रंथ है। बड़ी बड़ी युक्तियों में इसमें प्रभाकर मत का समर्थन किया गया है। इसका द्वितीय संस्करण 'हिदू विश्वविद्यलाय' काशी से प्रकाशित है। शाबर भाष्य प्रथमाध्याय प्रथम पाद (तर्क पाद) का भाष्य परिशिष्ठ नामक टीकाग्रंथ आपकी चौथी कृति है। यह भी मद्रास से प्रकाशित है। जिन युक्तियों द्वारा मंडन मिश्र ने प्रभाकर सिद्धांतों का खंडन किया, कर्कश शब्दों में उन युक्तियों का खंडन कर आपने प्रभाकर सिद्धांतों का समर्थन किया है। आपका समय 690-760 ई0 के आसपास माना जा सकता है।

वाचस्पति मिश्र

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वाचस्पति मिश्र मैथिल ब्राह्मण भट्ट कुमारिल तथा मंडन मिश्र के पक्ष समर्थक थे। ये माहिष्मती के निवासी थे। वहाँ आज भगवती उग्रतारा के नाम से एक देवी का मंदिर है जहाँ मंडनमिश्रादि उच्च कोटि के विद्वान रहा करते थे। इन्होंने अपना समय न्याय सूची ग्रंथ में स्वयं बताया है-

न्यायसूची निबंधोऽसावकारि सुधियांमुदे
श्री वाचस्पति मिश्रेण वस्वंक वसुवत्सरे।

यहाँ विक्रम संवत् 898 समझना चाहिए। 841 ई० में न्यायसूची ग्रंथ बना है। नृग चक्रवर्ती के तत्वाधान में भामती ग्रंथ बना, ऐसा इन्होंने लिखा है। शांर्गर्धर पद्धति में विशिष्ट राजाओं के वर्णन के प्रसंग में नृग महाराज पाषाण यज्ञयूप प्रशस्ति के नाम से दो पद्य उद्धृत है। शांर्गधर 'वीर हम्मीर' राजा के सभापंडित श्री दामोदर का पुत्र था। इससे भी वाचस्पति मिश्र का उपर्युक्त समय ही निर्धारित होता है। इनकी पत्नी का नाम 'भामती' था।

तत्त्वबिन्दु में आन्विताभिधान का खंडन करके भाट्ट संमत अभिहितान्वयवाद का आपने समर्थन किया है। 'न्यायकणिका' में अन्याय आस्तिक, नास्तिक मतों का खंडन करते हुए शालिकानाथ समर्थित प्रभाकर सिद्धांतों का मुख्य रूप से खंडन किया है। बौद्धचार्य धर्मोत्तर आदि का भी खंडन उसी प्रकार किया है जैसा शालिकानाथ का। इनकी 'भामती' वेदांत टीका प्रसिद्ध है। इनका समय 800-900 ई0 के आस-पास समझना चाहिए।

सुचरित मिश्र

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मैथिल थे। श्लोक वार्तिक के ऊपर 'काशिका' व्याख्या प्रसिद्ध है। आपने किसी न किसी प्रसंग से प्रभाकर सिद्धांतों को लाकर उनका खंडन करना अपना सिद्धांत बनाकर ही काशिका लिखी। प्रभाकर मिश्र तथा तदनुयायियों के भाष्य व्याख्यानों को अयुक्त बतलाकर भट्टोक्त अर्थ को भाष्यारूढ़ करके समर्थित करना इनका ध्येय रहा। यह काशिका अनंतशयन संस्कृत ग्रंथमाला में तीन भागों में प्रकाशित है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि इन्होंने आगे भी तंत्रवार्तिक का व्याख्यान किया होगा जो अनुपलब्ध है। इनका समय लगभग 1000-1100 ई0 माना जा सकता है।

पार्थसारथी

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मिश्र मैथिल थे। इनके पिता का नाम यज्ञात्मन्‌। अपने पिता से ही संपूर्ण शास्त्रों का इन्होंने अध्ययन किया। इसका इन्होंने स्वयं ही 'पितुरेव श्रतुं प्राप्य श्रीमद्यज्ञात्मसूनुना'---शब्दों द्वारा न्याय रत्नमाला में उल्लेख किया है। मीमांसा दर्शन में भाष्य एवं वार्तिक के बाद आधिकरण प्रस्थान के वर्णन का श्रेय इन्हीं को है। इसकी विशेषता यह है-प्रायश: उन अधिकरणों में एक श्लोक विषय, संशय, पूर्व पक्ष; दूसरे से सिद्धांत पक्ष का संग्रह से वर्णन करना। 'श्लोकों से संग्रह करना' इसके मार्गदर्शी यही थे, यह कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इन्होंने तर्कपषाद में मीमांसक सम्मत प्रमाण प्रमेयों का वर्णन करते हुए न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदांती, बौद्ध आदि मत का भी पूर्व पक्ष में उपन्यास करके उनका खंडन किया है। इससे मालूम होता है कि इनकी आस्तिक नास्तिक सभी दर्शनों में अप्रतिहत गति रही है। इतना होते हुए भी ये भाट्ट सिद्धांतों के समर्थन तथा प्राभाकर सिद्धांतों के खंडन को कटिबद्ध थे।

आपके चार ग्रंथ मिलते हैं-

1. न्याय रत्नमाला, 2. तंत्ररत्न, 3. शास्त्रदीपिका, 4. न्याय रत्नाकर।

पहला प्रकरण ग्रंथ है। इसमें भाट्ट मत के अनुसार मीमांसा शास्त्र के समर्थनानुरूप मीमांसा दर्शन सूत्र के बारह अध्यायों का समर्थन है। इसमें शालिकनाथ की प्रकरण पंचिका का पूरा पूरा खंडन है। दूसरा ग्रंथ कुमारिल भट्ट की दुप्टीका वार्तिका की व्याख्या के रूप में है। यह चतुर्थ अध्याय से बारहवें अध्याय पर्यत है। इसका संपादन महामहोपाध्याय डॉ॰ गंगानाथ झा महोदय ने किया है। शास्त्रदीपिका द्वादशाध्यायी रूप पूर्वमीमांसा दर्शन का अधिकरण रूप से निरूपण करने वाला एक मात्र प्रथम ग्रंथ है। इसके पश्चात्‌ जितने अधिकरण ग्रंथ प्रणीत हुए उनका आधार यही है। इसमें भाट्ट एवं प्राभाकर सिद्धांतों के प्रभेद स्थलों में प्राभाकर सिद्धांतों के खंडनपूर्वक भाट्ट मतों का प्रतिस्थापन है। चौथा ग्रंथ न्याय रत्नाकर कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिका की व्याख्या है। यह संपूर्ण चौखंभा, वाराणसी से प्रकाशित है। इनका समय है 1050-1120 ई0 के लगभग।

भवदेव भट्ट

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आप कुमारिल भट्ट के अनुयायी हैं। परितोष मिश्र ने अजिता नाम की एक टीका कुमारिल भट्ट के तंत्रवार्तिक के ऊपर लिखी है। अत्यंत क्लिष्ट होने के कारण इस टीका का ही समझना कठिन हो गया, फिर वार्तिक के समझने का विचार ही कैसे होता ? इसलिये तंत्रवार्तिक के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये भवदेव भट्ट ने 'तौता तितमततिलक' नाम से एक टीका लिखी जो तंत्रवार्तिक के आशय को स्पष्ट करती है। सरस्वती भवन ग्रंथमाला, बनारस से प्रकाशित है। इनका समय 1100 ई0 के आसपास प्रतीत होता है।

भवनाथ मिश्र

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आप 'प्रभाकर मिश्र' के अनुयायी तथा समर्थक थे। प्रभाकर प्रस्थान में शालिकनाथ मिश्र के बाद दूसरा स्थान इन्हीं का है। आपने शालिकनाथ की बृहती, पंचिक्रा आदि को आधार मानकर बारह अध्याय के ऊपर 'नयविवेक' नाम से एक टीका लिखी है।

इस पर रंतिदेव का नयरत्न, वरदराज की दीपिका इत्यादि कई टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। इनका समय अनुमानत: 1100-1200 ई0 है।

मध्वाचार्य

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मध्वाचार्य कर्णाटक देश के निवासी आंध्र ब्राह्मण थे। आपके पिता का नाम मायण था। आप हंपी विजयनगर के अधिपति महाराज बुक्क के प्रधानामात्य तथा कुलगुरु थे। महाराज बुक्क के आज्ञानुसार आपके तत्वावधान में तत्तद्विषय विशेषज्ञ विद्वानों की सहायता से चतुर्वेद संहिताओं, ब्राह्मण ग्रंथों, आरणयक तथा उपनिषद् भागों के भाष्य तैयार किए गए। यदि माधव के वेद भाष्य नहीं होते, तो आज वेदार्थ बोध कठिन होता। मीमांसा शास्त्र रूपी समुद्र में प्रवेश करने के लिए आपने लगभग दो हजार श्लोकों में जैमिनीयन्यायमाला (अधिकरणमाला) की रचना की। जैमिनीयन्यायमाला-विस्तर नाम से उसका व्याख्यान भी किया। संन्यास लेने के बाद जगद्गुरू आचार्य शंकर के शृंगेरी पीठ में पंचदशी, जीवन्मुक्ति विवेक, अपरोक्षानुभव, बृहदारण्यक वार्तिकसार इत्यादि ग्रंथ बनाए। आपका समय 1297-1386 ई0 है।

भट्ट सोमेश्वर

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महाराष्ट्र ब्राह्मण थे। कुमारिल भट्ट के तंत्र वार्तिक पर 'न्यायसुधा' व्याख्या आपने लिखी है। आपका समय लगभग 1200 ई0 है।

देवोपनाम कुलोत्पन्न महाराष्ट्र ब्राह्मण थे। आपदेव ने न्याय प्रकाश में पूर्व षट्क के प्रतिपाद्य विषयों (उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग, अधिकार, प्रमाण, शेषत्वादि) का संगति के साथ अच्छे ढंग से प्रतिपादन किया है। इसके ऊपर इनके पुत्र अनंतदेव ने भाट्टाऽलंकार नाम से विशद व्याख्या लिखी है। 'दीपिका' नाम की एक वेदांतसार पर व्याख्या भी आपने लिखी है। शास्त्रदीपिका को आधार मानकर ही न्यायप्रकाश में विषय प्रतिपादन किया गया है। इसमें 'न्यायसुधा' का खंडन किया गया है। आपका समय अनुमानत: 1500-1600 ई0 है।

अप्पय दीक्षित

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अप्पय दीक्षित (1580 - 1593 ई0) वेदांत दर्शन के विद्वान्‌। इनके पौत्र नीलकण्ठ दीक्षित के अनुसार ये 72 वर्ष जीवित रहे थे। 1626 में शैवों और वैष्णवों का झगड़ा निपटाने ये पांड्य देश गए बताए जाते हैं। सुप्रसिद्ध वैयाकरण भट्टोजि दीक्षित इनके शिष्य थे। इनके करीब 400 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। शंकरानुसारी अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन करने के अलावा इन्होंने ब्रह्मसूत्र के शैव भाष्य पर भी शिव की मणिदीपिका नामक शैव संप्रदायानूसारी टीका लिखी। अद्वैतवादी होते हुए भी शैवमत की ओर इनका विशेष झुकाव था।

आप तमिलनाडु कांची मंडल के अतंर्गत आडयपलम्‌ ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम रंगराजाध्वरि था। माता का नाम तोतांबा था। इनको मूर्तिमती मीमांसा कहना अतिशयोक्ति नहीं है। मीमांसा न्याय संचार में आप अत्यंत कुशल हैं। वेदांत-कल्पतरु-परिमल, शिवार्कमणि-दीपिका, वाद-नक्षत्रमाला तथा विधिरसायन ग्रंथों के परिश्रमपूर्वक परिशीलन करने वालों को यह स्पष्ट है। विधिरसायन में अपूर्व, नियम, परिसंख्या विधियों के वार्तिकोक्त लक्षण तथा उदाहरणों का आक्षिप्त कर आक्षेप ब्याज से द्वादशाध्यायी (12 अध्यायों) के विषयों का पूर्वोत्तर पक्षों के रूप में प्रतिपादन किया है। आचार्य खंडदेव 'मीमांसक मूर्धन्य' पद से आपको संबोधित करता है। बयालीस श्लोकों से वार्तिकोक्त लक्षणों का आक्षेप तथा दो श्लोकों द्वारा उनका समाधान किया गया है। मूल का नाम विधिरसायन एवं गद्यात्मक व्याख्या का नाम सुखोपयोजिनी है। भगवान श्री शिव के दिव्य स्तोत्र " आत्मार्पणस्तुति " की रचना श्री अप्पय दीक्षित जी ने किया जो परमशिव के भक्तों में अति प्रिय है !

दीक्षित के लिखे एक सौ चार (104) ग्रंथ हैं। सर्वतोमुख इनका पांडित्य था। पंडित जगन्नाथ द्वारा इनके ऊपर किए गए आक्षेपों का परिमार्जन उत्तरकालीन विद्वानों ने प्रायश: कर डाला है।

आंध्र ब्राह्मण थे। वेदशास्त्रों का अध्ययन इन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता व्यंकटेश दीक्षित से किया। शास्त्रदीपिका के ऊपर मयूखमालिका नाम को आपका व्याख्या पूर्वमीमांसा एवं श्रौतविद्या में आपकी अप्रतिहत गति बतलाती है। मयूखमालिका यत्र तत्र विधिरसायन की समालोचना भी करती है। आपका समय लगभग 1600 ई0 है।

शंकरभट्ट

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सुप्रसिद्ध नारायण भट्ट के पुत्र हैं। शास्त्रदीपिकाप्रकाश नाम की आपकी शास्त्रदीपिका की व्याख्या है जो अभी तक छपी नहीं है। इसकी एक संपूर्ण हस्तलिखित पुस्तक 'श्री विश्वेश्वरांनंद वैदिक अनुसंधान संस्थान' होशियारपुर में सुरक्षित है। बालप्रकाश नाम का एक दूसरा ग्रंथ भी आपका लिखा है। धर्मशास्त्रों में जितने विधि प्रकार हो सकते हैं सबका सुंदर ढंग से विवेचन इसमें किया गया है। पार्थसारथी मिश्र पर आपकी बड़ी श्रद्धा है। उनकी विचारपद्धति का आपने समर्थन किया है।

आपका तीसरा 250 श्लोकों का मीमांसासार नाम का ग्रंथ सहस्राधिकरों को क्रमश: याद रखने के लिए अत्यंत उपयोगी है। आपका समय 1550-1620 ई0 है।

गागा भट्ट

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आपका दूसरा नाम विश्वेश्वर भट्ट है। आप दिनकर भट्ट के पुत्र हैं। पंडित जगन्नाथ के पिता पेरुभट्ट के विद्यागुरु आचार्य खंडदेव आपके शिष्य थे। द्वादशाध्यायी मीमांसादर्शन के ऊपर विद्वतापूर्ण ग्रंथ भाट्ट चिंतामणि आपकी कृति है। इसके देखने से मालूम होता है कि आप आस्तिक नास्तिक दर्शनों के धुरंधर विद्वान तथा मर्मज्ञ थे। आचार्य कक्षाओं में आपका यह ग्रंथ पढ़ाया जाता है। चौखँभा (वाराणसी) से इसके दो संस्करण निकल चुके हैं। जैमिनि सूत्रों की एक वृत्ति भी आपने लिखी है। 'भाट्ट चिंतामणि' में कई स्थलों में उसका उल्लेख मिलता है। आपका समय 1575-1665 ई0 है।

मीमांसा दर्शन को नव्य न्यायपद्धति से परिष्कृत रूप देनेवालों में आपकी गणना है। आप महाराष्ट्र ब्राह्मण थे। रुद्रदेव आपके पिता थे। पंडितराज जगन्नाथ के पिता पेरुभट्ट मीमांसाशास्त्र में आपके शिष्य थे, ऐसा रसगंगाधर में पंडितराज जगन्नाथ ने लिखा है।

इनके बनाए तीन ग्रंथ हैं -

  • (1) भट्ट कौस्तुभ - बलाबलाधिकरणांत जैमिनि सूत्रों का विस्तृत व्याख्यान।
  • (2) भट्ट तंत्ररहस्य - तार्किक अाैर वैयाकरणाभिप्रेत अर्थों का खंडन करते हुए - विध्यर्थ, आख्यातार्थ, विभक्त्यर्थ आदि का परिष्कार से विवेचन।
  • (3) भाट्टदीपिका - जैमिनीय मीमांसा सूत्र बारह अध्यायों पर, कौस्तुभ विस्तार से डरे हुए के समान, प्रवचन। इस की टीका इनके शिष्य शम्भुभट्ट ने की है।

सूत्र, भाष्य, वार्तिक, शास्त्रदीपिका, न्यायसुधा, न्यायप्रकाश, विधिरसायन आदि ग्रंथों में युक्तिहीन बातों का आपने खंडन किया है। साथ ही साथ युक्तियुक्त बातों को बड़े संमानपूर्वक स्वीकार किया है। शब्दबोध के संबंध में वैयाकरणों के वक्तव्यों का निरास किया है। शम्भुभट्ट के प्रभावली टीका के अन्त्य में खण्डदेव की निधनतिथि १६६५ ई0 बताया है। अतः आपका समय लगभग - 1600-166५ ई0 है।

शंभु भट्ट

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आप बालकृष्ण भट्ट के पुत्र तथा खंडदेव के शिष्य थे। खंडदेव आचार्य से ही पूर्व तथा उत्तर मीमांसा दर्शनों का अध्ययन किया। उनकी 'भाट्ट दीपिका' का स्वयं व्याख्यान किया है। इस व्याख्या में इन्होंने प्राय: सभी के ऊपर टीका टिप्पणियाँ की हैं। अपने गुरु को भी नहीं छोड़ा। गूढ़ार्थदीपिका में अष्टादशाध्याय के विधि तत्व के विचार पर मधुसूदन सरस्वती के विचार का भी आपने खंडन किया है। आपका समय 1640-1700 ई0 है।

वासुदेव दीक्षित

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आप कांचीमंडलांतर्गत सत्यमंगल ग्राम के निवासी दाक्षिणात्य ब्राह्मण थे। आपके पिता का नाम महादेव वाजपेयी तथा माता का नाम अन्नपूर्णा था। आप शाहजी महाराज के मंत्री थे। आप तैत्तिरीय शाखा आपस्तंब श्रौत सूत्र, बौधायनादि के प्रकांड विद्वान थे। आपने जैमिनि सूत्र पर अध्वर-मीमांसा-कुतूहल वृत्ति एक विस्तृत व्याख्या लिखी है। जैमिनि सूत्रों का अर्थ समझने के लिए यह एक ही ग्रंथ पर्याप्त है। समय 1700-1760 ई0 के लगभग माना जा सकता है।

भर्तृप्रपञ्च

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ये विशिष्ट वेदान्त के आचार्य थे, इन्होंने कठोपनिषद् और बृहदारण्यक पर भाष्य की रचना की थी। इनके मत में द्वैताद्वैत - भेदाभेद है। जैसे समुद्र से तरंगों में अभेद और तरंग दृष्टि से भेद वैसे ब्रह्मरूप से एक तथा जगद् रूप से नाना है, ये समुच्चयवादी थे।