बुरहानपुर (Burhanpur) भारत के मध्य प्रदेश राज्य के बुरहानपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय/ केंंद्र भी है और ताप्ती नदी के किनारे बसा हुआ है।[1][2]

बुरहानपुर
Burhanpur
{{{type}}}
शाही किला,बुरहानपुर
शाही किला,बुरहानपुर
बुरहानपुरmjt5 6 is located in मध्य प्रदेश
बुरहानपुरmjt5 6
बुरहानपुरmjt5 6
मध्य प्रदेश में स्थिति
निर्देशांक: 21°10′N 76°10′E / 21.17°N 76.17°E / 21.17; 76.17निर्देशांक: 21°10′N 76°10′E / 21.17°N 76.17°E / 21.17; 76.17
ज़िलाबुरहानपुर ज़िला
प्रान्तमध्य प्रदेश
देश भारत
स्थापना1380
शासन
 • महापौरमाधुरी अतुल पटेल
ऊँचाई247 मी (810 फीट)
जनसंख्या (2011)
 • कुल2,10,891
भाषाएँ
 • प्रचलितहिन्दी
समय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)
पिनकोड450331
दूरभाष कोड(+91) 7325
आई॰एस॰ओ॰ ३१६६ कोडIN-MP
वाहन पंजीकरणMP-68
वेबसाइटwww.burhanpur.nic.in

इतिहास संपादित करें

यह खानदेश की राजधानी था। इसको चौदहवीं शताब्दी में खानदेश के फ़ारूक़ी वंश के सुल्तान मलिक अहमद के पुत्र नसीर द्वारा बसाया गया। अकबर ने 1599 ई. में बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया। अकबर ने 1601 ई. में ख़ानदेश को मुग़ल साम्राज्य में शामिल कर लिया। शाहजहाँ की प्रिय बेगम मुमताज़ की सन 1631 ई. में यहीं मृत्यु हुई। मराठों ने बुरहानपुर को अनेक बार लूटा और बाद में इस प्रांत से चौथ वसूल करने का अधिकार भी मुग़ल साम्राट से प्राप्त कर लिया। बुरहानपुर कई वर्षों तक मुग़लों और मराठों की झड़पों का गवाह रहा और इसे बाद में आर्थर वेलेजली ने सन 1803 ई. में जीता। सन 1805 ई. में इसे सिंधिया को वापस कर दिया और 1861 ई. में यह ब्रिटिश सत्ता को हस्तांतरित हो गया।

मुख्य केन्द्र संपादित करें

शेरशाह के समय बुरहानपुर की सड़क का मार्ग सीधा आगरा से जुड़ा हुआ था। दक्षिण जाने वाली सेनायें बुरहानपुर होकर जाती थी। अकबर के समय बुरहानपुर एक बड़ा, समृद्ध एवं जन-संकुल नगर था। बुरहानपुर सूती कपड़ा बनाने वाला एक मुख्य केन्द्र था। आगरा और सूरत के बीच सारा यातायात बुरहानपुर होकर जाता था। बुरहानपुर में ही मुग़ल युग की अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना द्वारा बनवाई गई प्रसिद्ध 'अकबरी सराय' भी है

स्थापत्य कला संपादित करें

बुरहानपुर में अनेकों स्थापत्य कला की इमारतें आज भी अपने सुन्दर वैभव के लिए जानी जाती हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

अकबरी सराय संपादित करें

बुरहानपुर के मोहल्ला क़िला अंडा बाज़ार की ताना गुजरी मस्जिद के उत्तर में मुग़ल युग की प्रसिद्ध यादगार अकबरी सराय है। जिसे अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना ने बनवाया था। उस समय ख़ानख़ाना सूबा ख़ानदेश के सूबेदार थे। बादशाह जहांगीर का शासन था और निर्माण उन्हीं के आदेश से हुआ था। बादशाह जहांगीर के शासन काल में इंग्लैंड के बादशाह जेम्स प्रथम का राजदूत सर टॉमस रॉ यहाँ आया था। वह इसी सराय में ठहरा था। उस समय शहज़ादा परवेज़ और उसका पिता जहांगीर शाही क़िले में मौजूद थे।

महल गुलआरा संपादित करें

महल गुलआरा बुरहानपुर से लगभग 21 किलोमीटर की दूरी पर, अमरावती रोड पर स्थित ग्राम सिंघखेड़ा से उत्तर की दिशा में है। फ़ारूक़ी बादशाहों ने पहाड़ी नदी बड़ी उतावली के रास्ते में लगभग 300 फुट लंबी एक सुदृढ दीवार बाँधकर पहाड़ी जल संग्रह कर सरोवर बनाया और जलप्रपात रूप में परिणित किया। जब शाहजहाँ अपने पिता जहाँगीर के कार्यकाल में शहर बुरहानपुर आया था, तब ही उसे 'गुलआरा' नाम की गायिका से प्रेम हो गया था। 'गुलआरा' अत्यंत सुंदर होने के साथ अच्छी गायिका भी थी। इस विशेषता से शाहजहाँ उस पर मुग्ध हुआ। वह उसे दिल-ओ-जान से चाहने लगा था। उसने विवाह कर उसे अपनी बेगम बनाया और उसे 'गुलआरा' की उपाधि प्रदान की थी। शाहजहाँ ने करारा गाँव में उतावली नदी के किनारे दो सुंदर महलों का निर्माण कराया और इस गांव के नाम को परिवर्तित कर बेगम के नाम से 'महल गुलआरा' कर दिया।

शाह नवाज़ ख़ाँ का मक़बरा संपादित करें

शाह नवाज़ ख़ाँ का मक़बरा, बुरहानपुर के उत्तर में 2 किलोमीटर के फासले पर उतावली नदी के किनारे काले पत्थर से निर्मित मुग़ल शासन काल का एक दर्शनीय भव्य मक़बरा है। बुरहानपुर में मुग़ल काल में निर्मित अन्य इमारतों में से इस इमारत का अपना विशेष स्थान है। शाह नवाज़ ख़ाँ का असली नाम 'इरज' था। इसका जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। यह बुरहानपुर के सूबेदार अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का ज्येष्ठ पुत्र था। यह मक़बरा इतने वर्ष बीत जाने के पश्चात भी अच्छी स्थिति में है। यह स्थान शहरवासियों के लिए सर्वोत्तम पर्यटन स्थल माना जाता है।

जामा मस्जिद संपादित करें

बुरहानपुर दक्षिण भारत का प्राचीन नगर है, जिसे 'नासिरउद्दीन फ़ारूक़ी' बादशाह ने सन 1406 ई. में आबाद किया था। फ़ारूक़ी शासनकाल में अनेक इमारतें और मस्जिदें बनाई गई थीं। इनमें सबसे सर्वश्रेष्ठ इमारत जामा मस्जिद है, जो अपनी पायेदारी और सुंदरता की दृष्टि से सारे भारत में अपना विशेष स्थान एवं महत्व रखती है। यह मस्जिद निर्माण कला की दृष्टि से एक उत्तम उदाहरण है। प्राचीन काल में बुरहानपुर की अधिकतर आबादी उत्तर दिशा में थी। इसीलिए फ़ारूक़ी शासनकाल में बादशाह 'आजम हुमायूं' की बेगम 'रूकैया' ने 936 हिजरी सन 1529 ई. में मोहल्ला इतवारा में एक मस्जिद बनवायी थी, जिसे बीबी की मस्जिद कहते हैं। यह शहर बुरहानपुर की पहली जामा मस्जिद थी। धीरे-धीरे शहर की आबादी में विस्तार होता गया। लोग चारों तरफ़ बसने लगे, तो यह मस्जिद शहर से एक तरफ़ पड गई, जिससे जुमा शुक्रवार की नमाज़ पढने के लिये लोगों को परेशानी होने लगी थी।

असीरगढ़ संपादित करें

असीरगढ़ का किला बुरहानपुर से 22 किमी और खण्डवा से 48 किमी दूरी प‍र खण्‍डवा-बुरहानपुर रोड पर स्थित है। आधार से इस किले की उचाई 259.1 मीटर तथा औसत समुद्र तल से 701 मीटर है। इसे दक्षिण की कुंजी, दक्षिण का द्वार या दक्‍खन का दरवाजा भी कहा जाता है क्योंकि मध्‍यकाल में इस दुर्गम एवं अभेद्य किले को जीते बिना दक्षिण भारत में कोई शक्ति प्रवेश नहीं कर सकती थी। इस किले को तीन अलग अलग स्‍तर पर बनाया गया है। सबसे ऊपर वाला परकोटा असीरगढ़ कहलाता हैं एवं अन्‍य परकोटे कमरगढ़ और मलयगढ़ कहलाते हैं। किले के अंदर जामी मस्जिद, शिव को समर्पित मंदिर और अन्‍य रचनाऐं है। किले के पास में तलहटी में आशादेवी का सुप्रसिद्ध मंदिर है। असीरगढ गांव के पास ही सुफी संत शाह नोमानी असिरी का मकबरा, किले के वाम भाग में पण्‍ढार नदी के किनारे पर शाहजहॉं की प्रिय मोती बेगम का मकबरा है, जिसे मोती महल नाम से जाना जाता है। मोती बेगम का मकबरा आज भी मोती महल में खस्ता हाल में है,जो सरकार कि अनदेखी के कारण लावारिश अवस्था मे है। वैसे यह किला बहुत ही पौराणिक है अनेक कथाएं और मान्यताएं इसके इर्दगिर्द घूमती रहती है। पुराने समय से यानी जब गुर्जर प्रतिहार राजवंश के मालवा तक राज्य था तब शायद राजा मिहिरकुल द्वारा यह किला बनाया जाने का इतिहास कही कही मिलता है। गुर्जर प्रतिहार राजवंश का पतन होने के बाद मुसलमानो के आक्रांताओं के आक्रमण से बचने के लिए यहां के स्थानिक गुर्जर खुद को गुर्जर की बजाय राजपूत कहने लगे जो चौहान गोत्र के गुर्जर थे. आज भी जब हम आशापुरा या आशा देवी की मंदिर में जाते हैं तो वहाँ जो पुजारी हैं, जिनकी उमर 90 साल के लगभग है, वह बताते है कि असल में हम गुर्जर ही है, लेकिन अब खुद को राजपूत बोलते हुए सादिया हो गयी इसलिए अब हम राजपूत ही हो गए. गुर्जरात्रा, जिसका नाम इसलिए गुर्जरात्रा पड़ा क्योंकि उसपर गुर्जरों का अखंड साम्राज्य रहा, यानी आज का गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित सोमनाथ का पतन होने के बाद यानी वहा पर जब मुस्लिम आक्रांताओं ने बर्बरतापूर्वक शासन लागू करने के बाद, सोमनाथ के साथ गुर्जरों का भी पतन हुआ, उसके बाद गुर्जर लड़ाकों ने खंबायत की आखात का रुख किया और कुछ भागकर तापी नदी के किनारे किनारे महाराष्ट्र में आ गये. जो लड़ाके थे उन्होंने अपना राज्य पुनर्स्थापित करने के लिए खंबायत का रुख किया और वह उसमे वह अछि तरह से कामयाब भी हुए और उन्होंने गुजरात के खंबायत से लेकर जबलपुर और भेड़ा घाट तक अपना साम्राज्य स्थापित किया और ऐसा कहा जाता है कि इसको करने के लिए गुर्जर विरो को कम से कम 60 साल का समय लगा. मां नर्मदा का एक नाम रेवा है इसलिए यह रेवा गुर्जर कहलाए. गुर्जर प्रतिहार के पतन के बाद फिर एक बार गुर्जरों ने अपनी सत्ता को नर्मदा नदी के किनारों पर स्थापित किया तो गुर्जरों को खंबायत से जबलपुर तक के लंबाई में बसे अपने राज्य की चौड़ाई बढाने की आवश्यकता पड़ी और इसका कारण भी यह रहा कि मुस्लिम आक्रांताओं की वजह से अपनी पहचान छुपाया हुआ और खुद को गुर्जर की बजाय राजपूत कहलेने वाले चौहान गुर्जर रेवा गुर्जरों को आकर मिले और रेवा गुर्जर और चौहान गुर्जर इनकी एक बड़ी शक्ति बन गयी. इन दोनों ने मिलकर एक साथ इस किले पर आक्रमण किया, कई महीनों तक यह संघर्ष चला आखरी में मुसलमानों को वहाँ से भाग जाना पड़ा और इस तरह आशिरगढ़ का किला एक बार फिर गुर्जरो के अधिनस्त हुआ. उसके बाद 100 सालो तक गुर्जर इस किले के सम्राट रहे और उन्होंने अपने राज्य की चौड़ाई नर्मदा से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक बढ़ा दी. आगे का इतिहास आशिरगढ़ से संबंधित न होने के कारण यही पर रुकता हु, जैसे भी और जानकारियां मिलती रहेगी हम उनको आपके सामने पेश करते जाएंगे.

यह किला सदियों तक रेवा गुर्जरों के अधिनस्त रहा जो

राजा की छतरी संपादित करें

बुरहानपुर से 4 मील की दुरी पर ताप्‍ती के किनारे राजा की छतरी नाम का एक उल्‍लेखनीय स्‍मारक है। ऐसा कहा गया है कि मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश से राजा जयसिंह के सम्‍मान में इस छतरी का निर्माण हुआ था। दक्‍खन में राजा जयसिंह मुगलसेना के सेनापति थे। दक्‍खन अभियान से लौटते समय बुरहानपुर में राजा जयसिंह की मृत्‍यु हो गई थी। कहा जाता है कि इस स्‍थान पर उनका दाह संस्‍कार किया गया था।

कुंडी भण्‍डारा संपादित करें

शुद्ध जल प्रदाय करने की दृष्टि से मुगल शासकों ने आठ जल प्रदाय प्रणालियों का निर्माण करवाया था। जिनसे, विभिन्‍न समयों पर इस जन-समपन्‍न नगरी में काफी मात्रा में जल प्रदाय किया जाता था। ये निर्माणकला के अव्दितीय नमूने हैं और इनकी गणना अत्‍यंत व्‍ययसाध्‍य मुगल यांत्रिक कला की पटुता और कुशलता के शानदार अवशेषों में की जाती है। कुंडी भंडारा का निर्माण मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में अब्दुर्रहीम खानखाना द्वारा कर वाया गया था। सतपुडा पहाडि़यों से ताप्‍ती नदी की ओर बहने वाले भू‍मिगत स्रोतों को तीन स्‍थानों पर रोका गया है, इन्‍हे मूल भण्‍डारा, सूखा भण्‍डारा और चिंताहरण जलाशय कहा जाता है। ये रेलवे लाइन के पार बुरहानपुर के उत्‍तर में कुछ ही किलोमीटर पर स्थित हैं और शहर की अपेक्षा लगभग 100 फुट ऊंची सतह पर हैं। भूमिगत जल वाहिनियों के इन आठ संघों में से नालियों के रूप में दो संघ बहुत पहले ही नष्‍ट कर दिए गए थे। अन्‍य छह संघों में कईं कुएं हैं जो भूमिगत गैलरियों से संबद्ध है और जो इस प्रकार निर्मित है कि पास की पहाडि़यों से जल का रिसना घाटी के मध्‍य की ओर खींचा जा सके। इस प्रकार पर्याप्‍त जल संग्रहित होने पर वह नगर में या उसके निकटवर्ती स्‍थानों में इष्‍ट स्‍थान तक चिनाई पाइप में ले जाया जाता था। एक संघ से, जो मूल भण्‍डारा कहलाता है, से महल और नगर के मध्‍य भाग में जलपूर्ति की जाती थी, जो कईं वायुकूपकों से युक्‍त लगभग 1300 सौ फुट सुरंग मार्ग ये जाता था। जल एक पक्‍के जलाशय, जो जाली करन्‍ज कहलाता है, में छोड़ा जाता था और यहां से मिट्टी के और तराशे गए पत्‍थर के पाइपों के जरिए पानी नगर में विभिन्‍न करंजों और वाटर टॉवरों में पहुंचाया जाता था। सूखा भण्‍डारा जल प्रदाय केंद्र मूलत: पान टाडो और लालबाग के अन्‍य बागों या मुगल सू‍बेदार के विलास के उद्यान की सिंचाई के लिए था। सन् 1880 में इसका पानी 3" मिट्टी की पाइप लाइन व्‍दारा तिरखुती करंज से जाली करंज तक नगर की ओर भी लाया गया। 1890 में खूनी भण्‍डारा और सूखा भण्‍डारा से पानी ले जाने वाले पाइपों के स्‍थान पर ढलवां लोहे की पाइप लाइन डाली गई। शेष जल प्रणालियों में से तीन बहादरपुर की ओर जो कि उस समय नगर का एक उपनगर था और छठवीं राव रतन हाड़ा व्‍दारा बनवाये गए महल की ओर ले जाई गई थी। इन जल प्रणालियों पर जहां वे भूमिगत हैं, थोडे़थोड़े अंतराल पर जल के स्‍तर से ऊपर की ओर पक्‍के पोले स्‍तंभ बनाए गए हैं। ऐसा ही स्‍तंभ जल प्रणाली के उद्गम पर है। 1922 से जल पूर्ति के स्रोत का प्रबंध नगरपालिका बुरहानपुर, जिसकी स्‍थापना 1867 में हुई थी, के पास आ गया।

शाही हमाम संपादित करें

यह स्‍मारक फारूखी किले के अंदर स्थित है यह मुग़ल बादशाह शाहजहॉं व्‍दारा बनवाया गया था स्‍मारक के बीचों बीच अष्‍टकोणीय स्‍नान कुण्‍ड है। यह स्‍नानकुण्‍ड खूनी भण्‍डारे की जल आपूर्ति प्रणाली से जुडा़ हुआ है। इस स्‍मारक की छतों पर रंगीन मुगल चित्रकला दर्शनीय है।

दरगाए-ए-हकी़मी संपादित करें

दरगाह-ए-हकी़मी बुरहानपुर से 2 किलोमीटर दूरी पर लोधीपुरा ग्राम में स्थित है। क़ामिली सैय्यदी और मौला-ए-बावा अब्‍दुल का़दिर हकीम-उद्-दीन की स्‍मृति में बनायी गयी इस दरगाह की सुन्‍दरता और इसके आसपास की बाग बगीचे और साफ सफाई से गहन रूहानी सकून (आत्मिक शांति) की अनुभूति होती है और इन्‍सान की अल्‍लाह से नजदीकी का स्‍पष्‍ट अनुभव होता है। बोहरा सम्‍प्रदाय के हजारों तीर्थयात्री प्रतिवर्ष यहॉं आते हैं। अन्‍य मजारों में रोज़-ए-मुबारक और दा-एल-मुतल्‍लक सैय्यदना अब्‍दुल तैय्यब जैन-उद्-दीन साहेब और वली-उल मुर्तज सैय्यद शेख जीवनजी भी यहॉं स्थित है। मजार के पश्चिम में एक खुबसरत मस्जिद और हकी़मी बाग भी मौजूद है।

गुरुद्वारा संपादित करें

सिक्‍ख धर्म का महत्‍वपूर्ण तीर्थ स्‍थल में से एक, यहॉं का ऐतिहासिक गुरुद्वारा एक महत्‍वपूर्ण स्‍थल है। प्रथम गुरू नानक देव जी एवं अंतिम गुरूवार गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज के पवित्र चरण इस स्‍थल पर पडे़ हैं। ताप्‍ती किनारे राजघाट पर स्थित इस गुरूव्‍द़ारें में गुरू नानक देव जी महाराज आए थे। यहॉं रखे गए पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब पर गुरू नानक देव जी महाराज ने हस्‍ताक्षर भी किए थे। यहॉं गुरु गोबिन्द सिंह जी के अस्‍त्र शस्‍त्र एवं गुरू ग्रंथ साहब के दर्शन भी किए जा सकते हैं। यह गुरूव्‍दारा लगभग 400 वर्ष प्राचीन है और इसकी गणना आनन्दपुर(पंजाब), पटना(बिहार) और नांदेड़(महाराष्‍ट्र) के प्रमुख सिक्‍ख तीर्थस्‍थलों में की जाती है।

उद्योग व व्यवसाय संपादित करें

बुरहानपुर से आगरा को रूई भेजी जाती थी। अंग्रेज़ यात्री 'पीटर मुण्डी' ने इस नगर के बारे में लिखा है कि यहाँ सभी आवश्यक वस्तुओं का भण्डार था। यहाँ बड़े-बड़े 'काफ़िले' सामान लेकर पहुँचते रहते थे। बुरहानपुर में व्यापक पैमाने पर मलमल, सोने और चाँदी की जरी बनाने और लेस बुनने का व्यापार विकसित हुआ, जो 18वीं शताब्दी में मंदा पड़ गया, फिर भी लघु स्तर पर इन पर इन वस्तुओं का उत्पादन जारी रहा।

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें