भोजेश्वर मन्दिर

मध्य प्रदेश की राजधानी, भोपाल से लगभग ३० किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर नामक गांव में बना एक मन्दिर है
(भोजपुर मंदिर से अनुप्रेषित)


भोजेश्वर मन्दिर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग ३० किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर नामक गाँव में बना एक मन्दिर है। इसे भोजपुर मन्दिर भी कहते हैं। यह मन्दिर बेतवा नदी के तट पर विन्ध्य पर्वतमालाओं के मध्य एक पहाड़ी पर स्थित है। मन्दिर का निर्माण एवं इसके शिवलिंग की स्थापना धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज (१०१० - १०५३ ई॰) ने करवायी थी। उनके नाम पर ही इसे भोजपुर मन्दिर या भोजेश्वर मन्दिर भी कहा जाता है, हालाँकि कुछ किंवदंतियों के अनुसार इस स्थल के मूल मन्दिर की स्थापना पाँडवों द्वारा की गई मानी जाती है। इसे "उत्तर भारत का सोमनाथ" भी कहा जाता है।

भोजेश्वर मन्दिर
धर्म संबंधी जानकारी
सम्बद्धताहिन्दू धर्म
शासी निकायभारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग
अवस्थिति जानकारी
अवस्थितिभोजपुर
ज़िलारायसेन
देशभारत
अवस्थिति ऊँचाई463 मी॰ (1,519 फीट)

यहाँ के शिलालेखों से ११वीं शताब्दी के हिन्दू मन्दिर निर्माण की स्थापत्य कला का ज्ञान होता है व पता चलता है कि गुम्बद का प्रयोग भारत में इस्लाम के आगमन से पूर्व भी होता रहा था। इस अपूर्ण मन्दिर की वृहत कार्य योजना को निकटवर्ती पाषाण शिलाओं पर उकेरा गया है। इन मानचित्र आरेखों के अनुसार यहाँ एक वृहत मन्दिर परिसर बनाने की योजना थी, जिसमें ढेरों अन्य मन्दिर भी बनाये जाने थे। इसके सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाने पर ये मन्दिर परिसर भारत के सबसे बड़े मन्दिर परिसरों में से एक होता।

मन्दिर परिसर को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक चिह्नित किया गया है व इसका पुनरुद्धार कार्य कर इसे फिर से वही रूप देने का सफ़ल प्रयास किया है। मन्दिर के बाहर लगे पुरातत्त्व विभाग के शिलालेख अनुसार इस मंदिर का शिवलिंग भारत के मन्दिरों में सबसे ऊँचा एवं विशालतम शिवलिंग है। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी हिन्दू भवन के दरवाजों में सबसे बड़ा है। मन्दिर के निकट ही इस मन्दिर को समर्पित एक पुरातत्त्व संग्रहालय भी बना है। शिवरात्रि के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा यहां प्रतिवर्ष भोजपुर उत्सव का आयोजन किया जाता है।

पौराणिक मत

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इस मत के अनुसार माता कुन्ती द्वारा भगवान शिव की पूजा करने के लिए पाण्डवों ने इस मन्दिर के निर्माण का एक रात्रि में ही पूरा करने का संकल्प लिया जो पूरा नहीं हो सका। इस प्रकार यह मन्दिर आज तक अधूरा है।[1][2]

ऐतिहासिक मत

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इस मत के अनुसार ऐसी मान्यता है कि मन्दिर का निर्माण कला, स्थापत्य और विद्या के महान संरक्षक मध्य-भारत के परमार वंशीय राजा भोजदेव ने ११वीं शताब्दी में करवाया।[1][3][4][5] परंपराओं एवं मान्यतानुसार उन्होंने ही भोजपुर एवं अब टूट चुके एक बांध का निर्माण भी करवाया था।[6] मन्दिर का निर्माण कभी पूर्ण नहीं हो पाया, अतः यहाँ एक शिलान्यास या उद्घाटन/निर्माण अंकन शिला की कमी है। फिर भी यहां का नाम भोजपुर ही है जो राजा भोज के नाम से ही जुड़ा हुआ है।[7] कुछ मान्यताओं के अनुसार यह मन्दिर एक ही रात में निर्मित होना था किन्तु इसकी छत का काम पूरा होने के पहले ही सुबह हो गई, इसलिए काम अधूरा रह गया। [1]

राजा भोज द्वारा निर्माण की मान्यता को स्थल के शिल्पों से भी समर्थन मिलता है, जिनकी कार्बन आयु-गणना इन्हें ११वीं शताब्दी का ही सुनिश्चित करती है।[6] भोजपुर के एक निकटवर्ती जैन मन्दिर में, जिस पर उन्हीं शिल्पियों के पहचान चिह्न हैं, जिनके इस शिव मन्दिर पर बने हैं; उन पर १०३५ ई॰ की ही निर्माण तिथि अंकित है। कई साहित्यिक कार्यों के अलावा, यहां के ऐतिहासिक साक्ष्य भी वर्ष १०३५ ई॰ में राजा भोज के शासन की पुष्टि करते हैं। राजा भोज द्वारा जारी किये गए मोदस ताम्र पत्र (१०१०-११ ई॰), उनके राजकवि दशबाल रचित चिन्तामणि सारणिका (१०५५ ई॰) आदि इस पुष्टि के सहायक हैं। इस मन्दिर के निकटवर्त्ती क्षेत्र में कभी तीन बांध तथा एक सरोवर हुआ करते थे। इतने बड़े सरोवर एवं तीन बड़े बाधों का निर्माण कोई शक्तिशाली राजा ही करवा सकता था। ये सभी साक्ष्य इस मन्दिर के राजा भोज द्वारा निर्माण करवाये जाने के पक्ष में दिखाई देते हैं। पुरातत्त्वशास्त्री प्रो॰किरीट मनकोडी इस मन्दिर के निर्माण काल को राजा भोज के शासन के उत्तरार्ध में, लगभग ११वीं शताब्दी के मध्य का बताते हैं।[8]

 
मन्दिर के बाहर लगा भा.पुरा.सर्वे.वि. का मन्दिर सूचना पट्ट, जिसमें मन्दिर के बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य लिखे हैं।

उदयपुर प्रशस्ति में बाद के परमार शासकों द्वारा लिखवाये गए शिलालेखों में ऐसा उल्लेख मिलता है जिनमें: मन्दिरों से भर दिया जैसे वाक्यांश हैं, एवं शिव से सम्बन्धित तथ्यों को समर्पित है। इनमें केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, कालभैरव एवं रुद्र का वर्णन भी मिलता है। लोकोक्तियों एवं परंपराओं के अनुसार उन्होंने एक सरस्वती मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।(देखें भोजशाला) एक जैन लेखक मेरुतुंग ने अपनी कृति प्रबन्ध चिन्तामणि में लिखा है कि राजा भोज ने अकेले अपनी राजधानी धार में ही १०४ मन्दिरों का निर्माण करवाया था। हालांकि आज की तिथि में केवल भोजपुर मन्दिर ही अकेला बचा स्मारक है, जिसे राजा भोज के नाम के साथ जोड़ा जा सकता है।[9]

प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार; जब राजा भोज एक बार श्रीमाल गये तो उन्होंने कवि माघ को भोजस्वामिन नामक मन्दिर के बारे में बताया था जिसका वे निर्माण करवाने वाले थे। इसके उपरान्त राजा मालवा को (मालवा वह क्षेत्र था जहां भोजपुर स्थित हुआ करता था।) लौट गये। [10] हालांकि माघ कवि ( ७वीं शताब्दी) राजा भोज के समकालीन नहीं थे, अतः यह कथा कालभ्रमित प्रतीत होती है।[11]

यह मन्दिर मूलतः एक १८.५ मील लम्बे एवं ७.५ मील चौड़े सरोवर के तट पर बना था।[12] इस सरोवर की निर्माण योजना में राजा भोज ने पत्थर एवं बालू के तीन बांध बनवाये। इनमें से पहला बांध बेतवा नदी पर बना था जो जल को रोके रखता था एवं शेष तीन ओर से उस घाटी में पहाड़ियाँ थीं। दूसरा बांध वर्तमान मेण्डुआ ग्राम के निकट दो पहाड़ियों के बीच के स्थान को जोड़कर जल का निकास रोक कर रखता था एवं तीसरा बांध आज के भोपाल शहर के स्थान पर बना था जो एक छोटी मौसमी नदी कालियासोत के जल को मोड़ कर इस बेतवा सरोवर को दे देता था। ये कृत्रिम जलाशय १५वीं शताब्दी तक बने रहे थे।[6] एक गोण्ड किंवदंती के अनुसार मालवा नरेश होशंग शाह ने अपनी सेना से इस बाँध को तुड़वा डाला जिसमें उन्हें तीन महीने का समय लग गया था। यह भी बताया जाता है कि यहाँ होशंगशाह का लड़का बाँध के सरोवर में में डूब गया था तथा बहुत ढूंढने पर भी उसकी लाश तक नहीं मिली। नाराज़ होकर उसने बाँध को तोप से उड़ा दिया और मंदिर को भी तोप से ही गिरा देने की कोशिश की थी। इसके कारण मंदिर का ऊपर और बगल का हिस्सा गिर गया। इस बांध के टूट जाने से सारा पानी बह गया और तब इस अपार जलराशि के एकाएक समाप्त हो जाने के कारण मालवा क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन आ गया था।[13][14]

इस प्रसिद्ध स्थल पर दो वार्षिक मेलों का आयोजन भी होता है क्रमशः मकर संक्रांति एवं महाशिवरात्रि के समय पर। इस समय इस धार्मिक आयोजन में भाग लेने के लिए दूर दूर से लोग यहाँ पहुँचते हैं। यहां की झील का विस्तार वर्तमान भोपाल तक है। मन्दिर निर्माण में प्रयोग किया गया पत्थर भोजपुर के ही पथरीले क्षेत्रों से प्राप्त किया गया था।[15] मन्दिर के निकट से दूर तक पत्थरों व चट्टानों की कटाई के अवशेष दिखाई देते हैं। लेखिका विद्या देहेजिया की पुस्तक अर्ली स्टोन टेम्पल्स ऑफ़ ओडिशा में उल्लेख मिलता है कि भोजपुर के शिव मन्दिर और भुवनेश्वर के लिंगराज मन्दिर व कुछ और मन्दिरों के निर्माण में समानता दिखाई पड़ती है।

अन्त्येष्टि स्मारक

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भोजपुर मन्दिर में बहुत से अनोखे घटक देखने को मिलते हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं: गर्भगृह प्रभाग से मण्डप का विलोपन, मन्दिर में गुम्बदाकार शिखर के बजाय सीधी रेखीय छत आदि। मन्दिर की बाहरी दीवारों में से तीन बाहरी ओर से एकदम सपाट हैं, किन्तु ये १२वीं शताब्दी की बतायी जाती हैं। इन अनोखे घटकों के अध्ययन करने के उपरांत एक शोधकर्त्ता कृष्ण देव का मत है कि संभवतः ये मन्दिर अन्त्येष्टि आदि क्रियाकर्म संबन्धी कार्यों से संबन्धित रहा होगा; जैसा प्रायः श्मशान घाट आदि के निकटवर्त्ती आज भी देखे जा सकते हैं। इस शोध की पुष्टि कालान्तर में मधुसूदन ढाकी द्वारा खोजे गये कुछ मध्यकालीन वास्तुसम्बन्धी पाठ्य से भी होती है। इन खण्डित पाठ्यांशों से ज्ञात हुआ कि कई उच्चकुलीन व्यक्तियों की मृत्यु उपरांत उनके अवशेषों या अन्त्येष्टि स्थलों पर एक स्मारक रूपी मन्दिर बनवा दिया जाता था। इस प्रकार के मन्दिरों को स्वर्गारोहण-प्रासाद कहा जाता था। पाठ के अनुसार इस प्रकार के मन्दिरों में एकल शिखर के स्थान पर परस्पर पीछे की ओर घटती हुई पत्थर की सिल्लियों का प्रयोग किया जाता है। किरीट मनकोडी के अनुसार भोजपुर मन्दिर की अधिरचना इस प्रारूप पर सटीक बैठती है। उनके अनुमान के अनुसार राजा भोज ने इस मन्दिर को संभवतः अपने स्वर्गवासी पिता सिन्धुराज या ताऊ वाकपति मुंज हेतु बनवाया होगा, जिनकी मृत्यु शत्रु क्षेत्र में अपमानजनक रूप में हुई थी। [16]

निर्माण का परित्याग

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मन्दिर के निकटस्थ जमीन के पत्थरों पर उकेरे गये मन्दिर की स्थापत्य योजना के चित्र।

यहां देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि निर्माण कार्य एकदम से ही रोक दिया गया होगा।[17] हालांकि इसके कारण अभी तक अज्ञात ही हैं किन्तु इतिहास वेत्ताओं का अनुमान है कि ऐसा किसी प्राकृतिक आपदा, संसाधनों की आपूर्ति में कमी अथवा किसी युद्ध के आरम्भ हो जाने के कारण ही हुआ होगा। २००६-०७ में इसके पुनुरुद्धार कार्य के आरम्भ होने से पूर्व इमारत की छत भी नहीं थी। इससे ही इतिहासविद् के॰के॰मुहम्मद ने अनुमान लगाया कि छत संभवतः निर्माण काल में पूरे भार के सही आकलन में गणितीय वास्तु दोष के कारण निर्माण-काल में ही ढह गयी होगी। तब राजा भोज ने इस दोष के कारण इसे पुनर्निर्माण न कर मन्दिर के निर्माण को ही रोक दिया होगा। [18]

तब की परित्यक्त स्थल से मिले साक्ष्यों से आज के समय में इतिहासविदों, पुरातत्वविदों एवं वास्तुविदों को ११वीं शताब्दी की मन्दिर निर्माण शैली के आयोजन एवं यांत्रिकी का भी काफ़ी ज्ञान मिलता है।[19] [2] मन्दिर के उत्तरी एवं पूर्वी ओर कई खदान स्थल भी मिले हैं, जहां विभिन्न स्तरों के अधूरे शिल्प एवं शिल्पाकृतियाँ भी मिली हैं। इसके अलावा मन्दिर के ऊपरी भाग के निर्माण हेतु पत्थर के भारी शिल्प भागों को खदान से ऊपर तक ले जाने के लिये बनी बहुत बड़ी ढलान भी मिली है।[9] बहुत सी शिल्पाकृतियाँ खदान से मन्दिर के निकट लाकर ऐसे ही रखी हुई मिली हैं। इन्हें मन्दिर निर्माण के समय बाद में प्रयोग करना होगा, किन्तु निर्माण कार्य रुक जाने से इन्हें ऐसे ही छोड़ दिया गया होगा। पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग ने इन्हें २०वीं शताब्दी में अपने भण्डार गृह पहुँचा दिया।[17]

मन्दिर निर्माण की स्थापत्य योजना का विवरण खदान भाग के निकटस्थ पत्थरों पर उकेरा गया है।(चित्रित)[20][9][2] इस योजना से ज्ञात होता है कि यहाँ एक वृहत मन्दिर परिसर बनाने की योजना थी, जिसमें ढेरों अन्य मन्दिर भी बनाये जाने थे। इस योजना के सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाने पर ये मन्दिर परिसर भारत के सबसे बड़े मन्दिर परिसरों में से एक होता।[18][21]

मन्दिर की इमारत, खदानों के निकट एवं ग्राम के अन्य दो मन्दिरों पर १३०० से अधिक शिल्पकारों के पहचान चिह्न मिले हैं। इनमें मन्दिर के मुख्य ढांचे पर विभिन्न भागों में मिले ५० शिल्पकारों के नाम भी सम्मिलित हैं। इन नामों के अलावा अन्य पहचान चिह्न भी हैं, जैसे चक्र, कटे हुए चक्र, पहिये, त्रिशूल, स्वस्तिक, शंखाकृति तथा नागरी लिपि के चिह्न, आदि। ये चिह्न शिल्पकारों या उनके परिवार के लोगों के कार्य राशि के अनुमान या आकलन हेतु बनाये जाते थे, जिन्हें इमारत को अन्तिम रूप देते समय मिटा दिये जाते थे, किन्तु मन्दिर निर्माण पूर्ण न हो पाने के कारण ऐसे ही रह गये।[12]

संरक्षण एवं पुनुरुद्धार

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२००४ में मन्दिर की छत का दृश्य, इसके बाद ही भा.पुरा.सर्वे.विभाग ने इसके छिद्रों को बंद कर वर्षा जल के रिसाव एवं सीलन को रोका

वर्ष १९५० तक इस इमारत की संरचना काफ़ी कमज़ोर हो चली थी। ऐसा निरन्तर वर्षा जल रिसाव, उसके कारण आई सीलन एवं आंतरिक सुरक्षा लेपन के हटने के कारण हो रहा था।[22] १९५१ में यह स्थल प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम १९०४[23] के अंतर्गत भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग को संरक्षण एवं पुनरुद्धार हेतु सौंप दिया गया।[24] १९९० के आरम्भिक दशक में, सर्वेक्षण विभाग ने मन्दिर के चबूतरे एवं गर्भगृह की सीढ़ियों के मरम्मत कार्य किये एवं हटाये हुए पत्थरों को पुनर्स्थापित किया। उन्होंने मन्दिर के उत्तर-पश्चिमी ओर की दीवार की भी पुनरुद्धार अभियान के अन्तर्गत मरम्मत की। इसके बाद कुछ अन्तराल तक यह कार्य रुका रहा।

वर्ष २००६-०७ के दौरान के॰के॰मुहम्मद के अधीनस्थ विभाग के एक दल ने स्मारक के पुनरुद्धार कार्य को पुनः आरम्भ किया। उन्होंने संरचना के एक टूट कर हट गये स्तंभ को भी पुनर्स्थापित किया। ये १२ टन भार का एकाश्म स्तंभ विशेष शिल्पकारों एवं कारीगरों द्वारा मूल प्रति से एकदम मिलता हुआ बनाया जाना था, अतः इसके लिये मूल संरचना से मेल खाते पाषाण की देश पर्यन्त खोज के उपरांत शिला को आगरा के निकट से लाया गया व इस स्तंभ का निर्माण सम्पन्न हुआ। इसके बनने के बाद दल को इतनी लम्बी भुजा वाली क्रेन मशीन उपलब्ध न हो पायी, जिसके अभाव में दल ने चरखियों एवं उत्तोलकों की एक शृंखला की सहायता से कार्य को पूर्ण किया।[25] इस शृंखला को बनाने में उन्हें छः माह का समय लगा।[18][22] के॰के॰मुहम्मद ने पाया कि मन्दिर के दो स्तंभों का भार ३३ टन था, और ये दोनों भी एकाश्म ही थे, अतः आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं संसाधनों के अभाव में तत्कालीन कारीगरों के लिये ये एक चुनौती भरा कार्य रहा होगा।[18]

इसी टीम ने मन्दिर की छत के खुले भाग को भी एक नये मूल संरचना से मेल खाते हुए वास्तु घटक से बदला। ये घटक फ़ाइबर-ग्लास से बना होने के कारण एक तो मूल संरचना के उस भाग से भार में कहीं कम है अतः ढांचे पर अनावश्यक भार भी नहीं डालता है, दूसरे वर्षा-जल के रिसाव को भी प्रभावी रूप से रोकने में सक्षम है। इसके बाद अन्य स्रोतों से छत पर जल रिसाव उन्मूलन हेतु विभाग ने दीवारों एवं इस नयी छत के घटक के बीच के स्थान को पत्थर की सिल्लियों को तिरछा रखकर ढंक दिया है। दल ने मन्दिर की उत्तरी, दक्षिणी एवं पश्चिमी बाहरी दीवारों के अंशों को भी नये शिल्पाकृति पाषाणों के द्वारा बदल दिया।[22] मन्दिर की दीवारों पर पिछली कई शताब्दियों से जमी मैल की पर्त को भी सुंदरतापूर्वक हटाया गया है।[18]

स्थापत्य शैली

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इस मंदिर को उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाता है।[2][26] निरन्धार शैली में निर्मित इस मंदिर में प्रदक्षिणा पथ (परिक्रमा मार्ग) नहीं है।[27] मन्दिर ११५ फ़ीट (३५ मी॰) लम्बे, ८२ फ़ीट(२५ मी॰) चौड़े तथा १३ फ़ीट(४ मी॰) ऊंचे चबूतरे पर खड़ा है। चबूतरे पर सीधे मन्दिर का गर्भगृह ही बना है जिसमें विशाल शिवलिंग स्थापित है। [28] गर्भगृह की अभिकल्पन योजना में ६५ फ़ीट (२० मी॰) चौड़ा एक वर्ग बना है; जिसकी अन्दरूनी नाप ४२.५ फ़ी॰(१३ मी॰) है।[29] शिवलिंग को तीन एक के ऊपर एक जुड़े चूनापत्थर खण्डों से बनाया गया है। इसकी ऊंचाई ७.५ फ़ी॰(२.३ मी॰) तथा व्यास १७.८ फ़ी॰(५.४ मी॰) है। यह शिवलिंग एक २१.५ फ़ी॰(६.६ मी॰) चौड़े वर्गाकार आधार (जलहरी) पर स्थापित है। [30] आधार सहित शिवलिंग की कुल ऊंचाई ४० फ़ी॰ (१२ मी॰) से अधिक है।[31][32]

गर्भगृह का प्रवेशद्वार ३३ फ़ी॰ (१० मी॰) ऊंचा है।[28] प्रवेश की दीवार पर अप्सराएं, शिवगण एवं नदी देवियों की छवियाँ अंकित हैं।[31] मन्दिर की दीवारें बड़े-बड़े बलुआ पत्थर खण्डों से बनी हैं एवं खिड़की रहित हैं। पुनरोद्धार-पूर्व की दीवारों में कोई जोड़ने वाला पदार्थ या लेप नहीं था। उत्तरी, दक्षिणी एवं पूर्वी दीवारों में तीन झरोखे बने हैं, जिन्हें भारी भारी ब्रैकेट्स सहारा दिये हुए हैं। ये केवल दिखावटी बाल्कनी रूपी झरोखे हैं, जिन्हें सजावट के रूप में दिखाया गया है। ये भूमि स्तर से काफ़ी ऊंचे हैं तथा भीतरी दीवार में इनके लिये कुछ खुला स्थान नहीं दिखाई देता है। उत्तरी दीवार में एक मकराकृति की नाली है जो शिवलिंग पर चढ़ाए गये जल को जलहरी द्वारा निकास देती है।[28] सामने की दीवार के अलावा, यह मकराकृति बाहरी दीवारों की इकलौती शिल्पाकृति है।[17] पूर्व में देवियों की आठ शिल्पाकृतियां अन्दरूनी चारों दीवारों पर काफ़ी ऊंचाई पर स्थापित थीं, जिनमें से वर्तमान में केवल एक ही शेष है।[31]


किनारे के पत्थरों को सहारा देते चारों ब्रैकेट्स पर भगवानों के जोड़े – शिव-पार्वती, ब्रह्मा-सरस्वती, राम-सीता एवं विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियां अंकित हैं। प्रत्येक ब्रैकेट के प्रत्येक ओर एक अकेली मानवाकृति अंकित है।[31] हालांकि मन्दिर की ऊपरी अधिरचना अधूरी है, किन्तु ये स्पष्ट है कि इसकी शिखर रूपी तिरछी सतह वाली छत नहीं बनायी जानी थी। किरीट मनकोडी के अनुसार, शिखर की अभिकल्पना एक निम्न ऊंचाई वाले पिरामिड आकार की बननी होगी जिसे समवर्ण कहते हैं एवं मण्डपों में बनायी जाती है।[31] ऍडम हार्डी के अनुसार, शिखर की आकृति फ़ामसान आकार (बाहरी ओर से रैखिक) की बननी होगी, हालांकि अन्य संकेतों से यह भूमिज आकार का प्रतीत होता है।[33] इस मन्दिर की छत गुम्बदाकार हैं जबकि इतिहासकारों के अनुसार मन्दिर का निर्माण भारत में इस्लाम के आगमन के पहले हुआ था। अतः मन्दिर के गर्भगृह पर बनी अधूरी गुम्बदाकार छत भारत में गुम्बद निर्माण के प्रचलन को इस्लाम-पूर्व प्रमाणित करती है। हालांकि इस्लामी गुम्बदों से यहां के गुम्बद की निर्माण की तकनीक भिन्न थी। अतः कुछ विद्वान इसे भारत में सबसे पहले बनी गुम्बदीय छत वाली इमारत भी मानते हैं। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी अन्य हिंदू इमारत के प्रवेशद्वार की तुलना में सबसे बड़ा है।[1][34] यह द्वार ११.२० मी॰ ऊंचा एवं ४.५५ मी॰ चौड़ा है।[27] यह अधूरी किन्तु अत्यधिक नक्काशी वाली छत ३९.९६ फ़ी॰(१२.१८ मी॰) ऊंचे चार अष्टकोणीय स्तंभों पर टिकी हुई है।[35][36] प्रत्येक स्तंभ तीन पिलास्टरों से जुड़ा हुआ है। ये चारों स्तंभ तथा बारहों पिलास्टर कई मध्यकालीन मन्दिरों के नवग्रह-मण्डपों की तरह बने हैं, जिनमें १६ स्तंभों को संगठित कर नौ भागों में उस स्थान को विभाजित किया जाता था, जहाँ नवग्रहों की नौ प्रतिमाएं स्थापित होती थीं। [31]

यह मन्दिर काफ़ी ऊँचा है, इतनी प्राचीन मन्दिर के निर्माण के दौरान भारी पत्थरों को ऊपर ले जाने के लिए ढ़लाने बनाई गई थीं। इसका प्रमाण भी यहाँ मिलता है। मन्दिर के निकट स्थित बाँध का निर्माण भी राजा भोज ने ही करवाया था। बाँध के पास प्राचीन समय में प्रचुर संख्या में शिवलिंग बनाये जाते थे। यह स्थान शिवलिंग बनाने की प्रक्रिया की जानकारी देता है।[37]

निकटस्थ स्थल

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भोजपुर के निकटस्थ कुमरी गाँव से लगे घने जंगलों के बीच ही बेतवा या वेत्रवती नदी का उद्गम स्थल है जहां नदी एक कुण्ड से निकलकर बहती है। भोपाल शहर का बड़ा तालाब भोजपुर का ही एक तालाब है। इस तालाब पर बने बाँध को मालवा शासक होशंग शाह ने १४०५-१४३४ ई॰ में अपनी इस क्षेत्र की यात्रा में अपनी बेगम की बीमारी का कारण मानते हुए रोष में तुड़वा डाला था। इससे हुए जलप्लावन के बीच जो टापू बना वह द्वीप कहा जाने लगा। वर्तमान में यह "मंडी द्वीप' के नाम से जाना जाता है। इसके आस- पास आज भी कई खण्डित सुंदर प्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। मन्दिर से कुछ दूर बेतवा नदी तट पर ही माता पार्वती की गुफा है। नदी पार जाने हेतु यहाँ से नौकाएँ उपलब्ध हैं। भोजपुर मन्दिर के वीरान एवं पथरीले इलाके में स्थित होने पर भी यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ में कोई कमी नहीं आई है।[उद्धरण चाहिए]


भोजेश्वर मन्दिर संग्रहालय

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मुख्य मन्दिर से लगभग २०० मी॰ की दूरी पर ही भोजेश्वर मन्दिर को समर्पित एक संग्रहालय बना है। इस संग्रहालय में चित्रों, पोस्टरों एवं रेखाचित्रों के माध्यम से मन्दिर के तथा राजा भोज के शासन इतिहास पर प्रकाश डाला गया है। संग्रहालय में राजा भोज के शासन का विवरण, उन पर और उनके द्वारा लिखी पुस्तकें तथा मन्दिर के शिल्पकारों के चिह्न भी मिलते हैं। संग्रहालय का कोई प्रवेश शुल्क नहीं है एवं इसका खुलने का समय प्रातः १०:०० बजे से सांय ०५:०० बजे तक है।[उद्धरण चाहिए]

स्थल की उपयोगिता

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वर्तमान में यह मन्दिर ऐतिहासिक स्मारक के रूप में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण के अधीन है।[38] प्रदेश की राजधानी भोपाल से सन्निकट (२८ कि.मी) होने के कारण, यहां अधिकाधिक संख्या में पर्यटक एवं श्रद्धालुओं का आवागमन होता है। वर्ष २०१५ में इसे सर्वश्रेष्ठ अनुरक्षित एवं दिव्यांग सहायी स्मारक होने का राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार (२०१३-१४) भी मिला था।[39][40]

अपूर्ण होने के बावजूद भी इस स्मारक को मन्दिर के रूप में धार्मिक अनुष्ठानों एवं उपयोगों के लिये प्रयोग किया जाता रहा है। महाशिवरात्रि के अवसर पर लगने वाले मेले के समय यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है।[41][42] शिवरात्रि के अवसर पर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा यहां भोजपुर उत्सव का आयोजन किया जाता है।[43] इस उत्सव में पिछले वर्षों में कैलाश खेर,[44] ऋचा शर्मा, गण्ण स्मिर्नोवा एवं सोनू निगम ने प्रस्तुति दी थी।[43][45][46][47]

वायुसेवा

भोजपुर से २८ कि ॰मी॰ की दूरी पर स्थित राज्य की राजधानी भोपाल का राजा भोज विमानक्षेत्र यहाँ के लिये निकटतम हवाई अड्डा है। दिल्ली, मुम्बई, इंदौर और ग्वालियर से भोपाल के लिए उड़ानें उपलब्ध हैं।[उद्धरण चाहिए]

रेल सेवा

दिल्ली-चेन्नई एवं दिल्ली-मुम्बई मुख्य रेल मार्ग पर भोपाल एवं [[रानी कमलापति रेलवे स्टेशन]|भोपाल]] सबसे निकटतम एवं उपयुक्त रेलवे स्टेशन हैं।[उद्धरण चाहिए]

बस सेवा

भोजपुर के लिए भोपाल से बसें मिलती हैं।[उद्धरण चाहिए]


  1. शिवजी का ऐसा मन्दिर, जिसका निर्माण सुबह होने के कारण रह गया अधूरा Archived 2019-04-17 at the वेबैक मशीन। समाचार-इण्डिया।१६-०९-२०१४ |accessdate= ०६-०२-२०१७
  2. "भोजेश्वर नाथ का अनोखा है यह मन्दिर". हिन्दी रसायन. अभिगमन तिथि ०६-०२-२०१७. |accessdate= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  3. "भोजपुर" (एचटीएम). इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र.[मृत कड़ियाँ]
  4. "भोजपुर". रायसेन कृषि उपज मंडी समिति. मूल से 3 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित.
  5. राजा भोज ने कराया था केदारनाथ मन्दिर का निर्माण Archived 2019-04-19 at the वेबैक मशीनवेबदुनिया।अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'|अभिगमन तिथि:६-०२-२०१७
  6. मनकोडी १९८७, पृ॰ ७१.
  7. विलिस, माइकल (२००१). "Inscriptions from Udayagiri: locating domains of devotion, patronage and power in the eleventh century". साउथ इण्डियन स्टडीज़ (अंग्रेज़ी में). १७ (१): ४१-५३.[मृत कड़ियाँ]
  8. मनकोडी १९८७, पृ॰प॰ ७१-७२.
  9. मनकोडी १९८७, पृ॰ ६१.
  10. मेरुतुंग आचार्य (१९०१). The Prabandhacintāmani or Wishing-Stone of Narratives (अंग्रेज़ी में). w:Charles Henry Tawney द्वारा अनूदित. एशियाटिक सोसाइटी. पृ॰ ४९.
  11. हर्मन जैकबी (१८८९). "ऑन भैरवी एण्ड माघ". Wiener Zeitschrift für die Kunde des Morgenlandes. ओरियण्टल स्टडीज़ विभाग, विएना विश्वविद्यालय. तृतीय: १४१.(अंग्रेज़ी)
  12. मनकोडी १९८७, पृ॰ ६८.
  13. "राजा भोज का भोजपुर". मल्हार. वर्ल्ड प्रेस.[मृत कड़ियाँ]
  14. कुमार, अमितेश. "भोजपुर". इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र.[मृत कड़ियाँ]
  15. गुर्जर महाराजा भोग परमार के भोजेश्वर मन्दिर की...[मृत कड़ियाँ]|वीरगुर्जर्क्षत्रियहिस्ट्री|ब्रेव इण्डियन हिस्ट्री|अभिगमन तिथि: १ फ़रवरी, २०१७
  16. मनकोडी १९८७, पृ॰ ७२.
  17. मनकोडी १९८७, पृ॰ ६४.
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  47. "सोनू निगम की प्रस्तुति ने बांधा समां" (एच.टी.एम.एल।). आशा न्यूज़.

सन्दर्भग्रंथ सूची

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. यू ट्यूब पर भोजपुर मन्दिर, भोपाल, मध्य प्रदेश देखें।
  2. भोजपुर शिव मंदिर, भोपाल : मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग
  3. यू ट्यूब पर भोजपुर शिव मन्दिर देखें।
  4. भोजपुर-संरक्षण।भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग, भोपाल मण्डल के जालस्थल पर।(अंग्रेज़ी)
  5. भोजपुर - एक अनमोल विरासत पर वीडियो देखें :- भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग के आधिकारिक जालस्थल पर।