महाराजा छत्रसाल

मधयकालीन राजपूत योद्धा महाराजा छत्रसाल बुन्देला

महाराजा छत्रसाल (4 मई 1649 – 20 दिसम्बर 1731) भारत के मध्ययुग के एक महान प्रतापी योद्धा थे जिन्होने मुगल शासक औरंगज़ेब को युद्ध में पराजित करके बुन्देलखण्ड में अपना स्वतंत्र हिंदू राज्य स्थापित किया और 'महाराजा' की पदवी प्राप्त की।[1]मुगलों के काल महाराज छत्रसाल जू देव बुंदेला का जन्म बुंदेला क्षत्रिय पर्याय राजपूत परिवार में हुआ था और वे ओरछा के रुद्र प्रताप सिंह के वंशज थे। वे अपने समय के महान वीर, संगठक, कुशल और प्रतापी राजा थे। उनका जीवन मुगलों की सत्ता के खि‍लाफ संघर्ष और बुन्देलखण्ड की स्‍वतन्त्रता स्‍थापि‍त करने के लि‍ए जूझते हुए नि‍कला। वे अपने जीवन के अन्तिम समय तक आक्रमणों से जूझते रहे। बुन्देलखण्ड केसरी के नाम से वि‍ख्‍यात महाराजा छत्रसाल बुन्देला के बारे में ये पंक्तियाँ बहुत प्रभावशाली हैं:

महाराजा छत्रसाल जू देव बुंदेला
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चम्बल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥

महाराज छत्रसाल का परिचयसंपादित करें

मुगलों के काल महाराज छत्रसाल जू देव बुंदेला का जन्म बुंदेला क्षत्रिय पर्याय राजपूत परिवार में हुआ था और वे ओरछा के रुद्र प्रताप सिंह के वंशज थे। [2] महाराज छत्रसाल जू देव बुंदेला के पिता चम्पतराय जू देव बुन्देला जब समर भूमि में जीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1707 (सन 1641) को विन्ध्य-वनों की मोर पहाडी में उनका जन्म हुआ। वर्तमान समय में यह टीकमगढ़ जिले के लिधोरा तहसील और पलेरा विकासखण्ड के अंतर्गत आता है। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ।

पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह जू देव धंधेरे के पास देलवारा भेज दिया गया था। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय जू देव बुन्देला की मृत्यु के समय वे मात्र 12 वर्ष के ही थे। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद जू देव बुन्देला के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला ने परमार वंश की कन्या महारानी देवकुंअरि जू देव से विवाह किया।

जिसने आंख खोलते ही सत्ता-सम्पन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारम्परिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसने अपने मां-बाप को खोया हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे 12-13 वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परन्तु उसके पास था महान बुंदेला राजपूत वंश का शौर्य , संस्कार, बहादुर मां-माप का अदम्य साहस, मां विंध्यवासिनी का आशीर्वाद और ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के मित्र राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।

राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औंरगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। मई 1665 में बीजापुर युद्ध में महाराज छत्रसाल जू देव ने असाधारण वीरता दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल बुन्देला ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गया, उनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते । इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।

 
महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला और छत्रपति शिवाजी राजे का मिलन

इन दिनों राष्ट्रीयता और हिंदुत्व के आकाश पर छत्रपति शिवाजी का सितारा चमचमा रहा था। सन 1668 में दोनों सनातनी हिंदू राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो छत्रपति शिवाजी महाराज ने महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियों का आभास कराते हुए स्वतंत्र हिंदू राज्य स्थापना की मंत्रणा दी।

करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहिं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करिहो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें।

शिवाजी से स्वतंत्र हिंदूस्वराज का मंत्र लेकर सन 1670 में महाराज छत्रसाल जू देव वापस अपनी मातृभूमि लौट आये परंतु तत्कालीन बुंदेलखंड भूमि की स्थितियां बिलकुल भिन्न थीं। अधिकांश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे। महाराज छत्रसाल जू देव के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने महाराज छत्रसाल जू देव का सम्मान तो किया पर औरंगजेब से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछा नरेश सुजान सिंह जू देव बुन्देला ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। महाराज छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया। तब महाराज छत्रसाल जू देव ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारम्भ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि॰सं॰ 1728 (सन 1671) के शुभ मुहूर्त में औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वतंत्र हिंदू स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।

महाराज क्षत्रसाल का औरंगजेब से युद्धसंपादित करें

औरंगजेब महाराज छत्रसाल जू देव को पराजित करने में सफल नहीं हो पाया। उसने रणदूलह के नेतृत्व में 30 हजार सैनिकों की टुकडी मुगल सरदारों के साथ महाराज छत्रसाल जू देव का पीछा करने के लिए भेजी थी। महाराज छत्रसाल अपने रणकौशल व छापामार युद्ध नीति के बल पर मुगलों के छक्के छुड़ाते रहे। छत्रसाल को मालूम था कि मुगल छलपूर्ण घेराबंदी में सिद्धहस्त हैं। उनके पिता चंपतराय मुग़लों से धोखा खा चुके थे। महाराज छत्रसाल ने मुगल सेना से इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, मोहली, रानगिरि, शाहगढ़, वांसाकला सहित अनेक स्थानों पर लड़ाई लड़ी। महाराज छत्रसाल की शक्ति बढ़ती गयी। बन्दी बनाये गये मुगल सरदारों से छत्रसाल ने दंड वसूला और उन्हें मुक्त कर दिया। बुन्देलखंड से मुगलों का एकछत्र शासन छत्रसाल ने समाप्त कर दिया। अंत में महाराज क्षत्रसाल जू देव के गुरु महामती प्राणनाथ जी महाराज क्षत्रसाल को विषयुक्त एक कटार देते है, और आदेश दिया की इस विषयुक्त कटार से औरंगजेब के शरीर में छोटे छोटे घाव करना उसको मारना नही औरंगज़ेब की मृत्यु सड़-सड़ के होनी चाहिए, इसको धीरे-धीरे दर्द से कराह कर मरना चाहिए । गुरु के आदेश अनुसार एक युद्ध में महाराज क्षत्रसाल विषयुक्त कटार से औरंगज़ेब के शरीर पर कई घाव करते है और पराजित कर के छोड़ देते है हारने के पश्चात कहते है औरंगज़ेब की मौत दिल्ली में सड़-सड़ के हुई थी

छत्रसाल बुन्देला का राज्याभिषेकसंपादित करें

छत्रसाल के राष्ट्र प्रेम, वीरता के कारण छत्रसाल बुन्देला को भारी जन समर्थन प्राप्त था। उन्होंने एक विशाल सेना तैयार कर ली। इसमें 72 प्रमुख सरदार थे। वसिया के युद्ध के बाद मुग़लों ने छत्रसाल बुन्देला को 'महाराजा' की मान्यता प्रदान की थी। उसके बाद छत्रसाल बुन्देला ने 'कालिंजर का क़िला' भी जीता और मान्धाता को क़िलेदार घोषित किया। 1678 में उन्होंने पन्ना में राजधानी स्थापित की। विक्रम संवत 1744 में योगीराज प्राणनाथ के निर्देशन में छत्रसाल का राज्याभिषेक किया गया था।
छत्रसाल के शौर्य और पराक्रम से आहत होकर मुग़ल सरदार तहवर ख़ाँ, अनवर ख़ाँ, सहरूदीन, हमीद बुन्देलखंड से दिल्ली का रुख़ कर चुके थे। बहलोद ख़ाँ छत्रसाल के साथ लड़ाई में मारा गया था। मुराद ख़ाँ, दलेह ख़ाँ, सैयद अफगन जैसे सिपहसलार बुन्देला वीरों से पराजित होकर भाग गये थे। छत्रसाल के गुरु प्राणनाथ आजीवन क्षत्रिय एकता के संदेश देते रहे। उनके द्वारा दिये गये उपदेश 'कुलजम स्वरूप' में एकत्र किये गये। पन्ना में प्राणनाथ का समाधि स्थल है जो अनुयायियों का तीर्थ स्थल है। प्राणनाथ ने इस अंचल को रत्नगर्भा होने का वरदान दिया था। किंवदन्ति है कि जहाँ तक छत्रसाल बुन्देला के घोड़े की टापों के पदचाप बनी वह धरा धनधान्य, रत्न संपन्न हो गयी। छत्रसाल बुन्देला के विशाल राज्य के विस्तार के बारे में यह पंक्तियाँ गौरव के साथ दोहरायी जाती है-

इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस ।
छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौंस॥

छत्रसाल बुन्देला को अपने जीवन की संध्या में भी आक्रमणों से जूझना पड़ा। 1729 में सम्राट मुहम्मद शाह के शासन काल में प्रयाग के सूबेदार बंगस ने छत्रसाल पर आक्रमण किया। उसकी इच्छा एरच, कोंच (जालौन), सेवड़ा, सोपरी, जालौन पर अधिकार कर लेने की थी। छत्रसाल को मुग़लों से लड़ने में दतिया, सेवड़ा के राजाओं ने सहयोग नहीं दिया। तब छत्रसाल बुन्देला ने बाजीराव पेशवा को संदेश भेजा -

जो गति ग्राह गजेन्द्र की सो गति भइ है आज।
बाजी जात बुन्देल की राखो बाजी लाज॥

बाजीराव सेना सहित सहायता के लिये पहुंचा । क्षत्रसाल और बाजीराव ने बंगस को 30 मार्च 1729 को पराजित कर दिया। बंगस हार कर वापिस लौट गया।

बाजीराव प्रथम से सम्बन्धसंपादित करें

 
छत्रसाल की पुत्री मस्तानी का विवाह बाजीराव प्रथम से हुआ था।

छत्रसाल की पुत्री मस्तानी, बाजीराव प्रथम की द्वितीय पत्नी बनी।[3] 'मस्तानी' नामक अपने ग्रन्थ में इतिहासकार दत्तात्रय गणेश गोडसे ने कहा है कि छत्रसाल और बाजीराव प्रथम के बीच सम्बन्ध पिता-पुत्र जैसे थे। २० दिसम्बर १७३१ को मृत्यु के पहले ही छत्रसाल ने महोबा और उसके आस-पास का क्षेत्र बाजीराव प्रथम को सौंप दिया था।

साहित्य के संरक्षकसंपादित करें

महाराजा छत्रसाल साहित्य के प्रेमी एवं संरक्षक थे। कई प्रसिद्ध कवि उनके दरबार में रहते थे। कवि भूषण उनमें से एक थे जिन्होने 'छत्रसाल दशक' लिखा है। इनके अलावा लाल कवि, बक्षी हंशराज आदि भी थे। इसलिए उस महान वीर के लिए कहा गया है,

छता तोरे राज में धक धक धरती होय।
जित जित घोड़ा मुख करे उत उत फत्ते होय॥

वसीयत एवं वंशजसंपादित करें

मध्य प्रदेश का छतरपुर नगर तथा छतरपुर जिला महाराज छत्रसाल के नाम पर हैं। छतरपुर के बहुत से स्थानों के नाम उनके नाम पर रखे गए हैं, जैसे महाराजा छत्रसाल संग्रहालयदिल्ली का छत्रसाल स्टेडियम भी उनके नाम पर ही है।

पन्ना के शासकसंपादित करें

[4][5]

  • हरदे शाह / हृदे शाह (छत्रसाल के ज्येष्ठ पुत्र) 1731 - 1739
  • सभा सिंह 1739 - 1752
  • अमन सिंह 1752 - 1758
  • हिन्दुपत सिंह 1758 - 1778
  • अनिरुद्ध सिंह 1778 - 1779
  • ढोकल सिंह 1785 - 1798
  • किशोर सिंह 1798 - 1834
  • हरबंश राज 1834 - 1849
  • महेन्द्र नृपत सिंह 1849 - 1870
  • सर रुद्र प्रताप सिंह 1870 - 1893
  • लोकपाल सिंह 1893 - 1898
  • माधो सिंह 1898 - 1902
  • सर यादवेन्द्र सिंह 1902 - 1963 (विंध्य प्रदेश के उपराज्य प्रमुख (1947–1950))

सन्दर्भसंपादित करें

  1. Sen, Sailendra (2013). A Textbook of Medieval Indian History. Primus Books. pp. 187–188. ISBN 978-9-38060-734-4.
  2. "Bundela Rajas of Bundelkhand (Panna)". मूल से 6 मई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 मई 2020.
  3. Bundela Rajas of Bundelkhand (Panna)
  4. "Bundela Rajas of Bundelkhand (Panna)". मूल से 6 मई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 मई 2020.
  5. Statistical, descriptive and historical account of the North-western Provinces of India, ed. by E.T. Atkinson [and others, North-western provinces Editor Edwin Felix T. Atkinson, 1874]

यह सभी देखेंसंपादित करें

बाहरी कड़ियाँसंपादित करें