यीशु

ईसाई धर्म के संस्थापक
(यीशू से अनुप्रेषित)
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येशु या येशु मसीह[10] प्रथम शताब्दी के यहूदी उपदेशक और धार्मिक नेता थे। इनको ईसा भी कहा जाता है। विश्व के बृहत्तम धर्म यैशव धर्म के केन्द्रीय व्यक्ति हैं। अधिकांश यैशव मानते हैं कि वह पुत्रेश्वर के अवतार है और इब्रानी बाइबल में प्रतीक्षित मसीह की भविष्यद्वाणी की गई है।

येशु

जन्म ल. 4 BC[a]
यहूदा, रोमन साम्राज्य[5]
मौत ल. AD 30 / 33[b]
(aged 33–36)
येरुशलम, यहूदा, रोमन साम्राज्य
मौत की वजह क्रूस पर चढ़ाया जाना [c]
गृह-नगर में नासरत[9]
माता-पिता
एक मोज़ाइक

शास्त्रीय प्राचीनकाल के लगभग सभी आधुनिक विद्वान येशु के ऐतिहासिक सत्यता पर सहमत हैं।[e] येशु के जीवन के वृत्तान्त सुसमाचार में निहित हैं, विशेषतः नूतन नियम के चार विहित सुसमाचारों में। अकादमिक शोध से सुसमाचार की ऐतिहासिक विश्वसनीयता और येशु की घनिष्ठता से प्रतिबिम्ब पर विभिन्न विचार सामने आए हैं।[18][f][21][22] आठ दिन की वयस में येशु का शिश्नाग्रचर्मच्छेदन किया गया था, एक युवा वयस्क के रूप में योह्या द्वारा बप्तिस्मा (दीक्षा) लिया गया था, और जंगल में 40 दिनों और रातों के उपवास के बाद, उन्होंने अपना परिचर्या शुरू किया। उन्हें अक्सर "रब्बी" बोला जाता था।[23] येशु अक्सर साथी यहूदियों के साथ इस बात पर वाद-विवाद करते थे कि ईश्वर का उत्कृष्ट अनुसरण कैसे किया जाए, उपचार में लगे रहे, दृष्टान्तों में शिक्षा दी, और अनुयायियों को एकत्र किया, जिनमें से उनके द्वादश प्राथमिक शिष्य थे। उन्हें यरूशलम में गिरफ्तार किया गया और यहूदी अधिकारियों[24] द्वारा मुकदमा चलाया गया, रोमन सरकार को सौंप दिया गया, और यहूदिया के रोमन प्रीफेक्ट पोन्तियुस पिलातुस के आदेश पर क्रूस पर चढ़ाया गया। उनकी मृत्यु के बाद, उनके अनुयायियों को विश्वास हो गया कि वह मृतकों में से पुनर्जीवित हो उठे हैं, और उनके स्वर्गारोहण के बाद, उन्होंने जो समुदाय बनाया वह अन्ततः प्रारंभिक यैशव/मसीही चर्च बन गया जो एक विश्वव्यापी आन्दोलन के रूप में विस्तृत हुआ।[25] उनकी शिक्षाओं और जीवन के वृत्तान्तों को शुरू में मौखिक प्रसारण द्वारा संरक्षित किया गया था, जो लिखित सुसमाचार का स्रोत था।[26]

यैशव धर्ममीमांसा में ऐसी मान्यताएँ शामिल हैं कि यीशु पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आए थे, मरियम नामक एक कुमारी से जन्म हुए थे, उन्होंने चमत्कार किए, यैशव चर्च की स्थापना की, पापों का क्षतिपूर्ति हेतु बलिदान के रूप में क्रूस पर चढ़कर मरे, मृतकों में से उठे, और स्वर्ग में चढ़ गए जहाँ से वे लौटेंगे। आमतौर पर, यैशव मानते हैं कि येशु लोगों को ईश्वर से पनर्मिलन में सक्षम बनाते हैं। नाइसीन आह्वान का दावा है कि येशु जीवित और मृतकों का न्याय करेंगे, या तो उनके शारीरिक पुनरुत्थान से पूर्व या पश्चात्, यैशव युगान्तशास्त्र में येशु के दूसरे आगमन से जुड़ी एक घटना। अधिकांश यैशव येशु को ईश्वर पुत्र के अवतार के रूप में पूजते हैं, जो त्रित्व के तीन व्यक्तित्वों में से द्वितीय हैं। येशु का जन्म प्रतिवर्ष, साधारणतः 25 दिसम्बर को क्रिसमस के रूप में मनाया जाता है। गुड फ्राइडे पर उनके क्रूस पर चढ़ने और ईस्टर रविवार को उनके पुनरुत्थान का सम्मान किया जाता है। विश्व का सर्वव्यापक रूप से प्रयुक्त पंचांग पद्धति - जिसमें वर्तमान वर्ष 2024 ई. है - येशु की अनुमानित जन्मतिथि पर आधारित है।

येशु अन्य धर्मों में भी पूज्य हैं। इस्लाम में, येशु (अक्सर उनके क़ुरानीय नाम ईसा द्वारा जाने जाते हैं)[27][28][29][30] को ईश्वर और मसीह का अन्तिम पैगम्बर माना जाता है। मुसलमानों का मानना ​​​​है कि येशु का जन्म कुमारी मरियम से हुआ था, किन्तु वह न तो ईश्वर थे और न ही ईश्वर का पुत्र थे;[31] क़ुरान कहता है कि येशु ने कभी भी दिव्य होने का दावा नहीं किया। अधिकांश मुस्लिम यह नहीं मानते कि उन्हें मार दिया गया या उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया, किन्तु यह कि ईश्वर ने उन्हें जीवित रहते हुए जन्नत में आरोहित किया। इसके विपरीत, यहूदी धर्म इस विश्वास को खारिज करता है कि येशु प्रतीक्षित मसीह थे, यह तर्क देते हुए कि उन्होंने मसीह की भविष्यद्वाणियों को पूरा नहीं किया, और न ही दिव्य थे और न ही पुनर्जीवित हुए।

जन्म और बचपन

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बाइबिल के अनुसार ईसा की माता मरियम गलीलिया प्रांत के नाज़रेथ गाँव की रहने वाली थीं। उनकी सगाई दाऊद के राजवंशी यूसुफ नामक बढ़ई से हुई थी। विवाह के पहले ही वह कुँवारी रहते हुए ही ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गईं। ईश्वर की ओर से संकेत पाकर यूसुफ ने उन्हें पत्नीस्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार जनता ईसा की अलौकिक उत्पत्ति से अनभिज्ञ रही। विवाह संपन्न होने के बाद यूसुफ गलीलिया छोड़कर यहूदिया प्रांत के बेथलेहेम नामक नगरी में जाकर रहने लगे, वहाँ ईसा का जन्म हुआ। शिशु को राजा हेरोद के अत्याचार से बचाने के लिए यूसुफ मिस्र भाग गए। हेरोद 4 ई.पू. में चल बसे अत: ईसा का जन्म संभवत: 4 ई.पू. में हुआ था। हेरोद के मरण के बाद यूसुफ लौटकर नाज़रेथ गाँव में बस गए। ईसा जब बारह वर्ष के हुए, तो यरुशलम में तीन दिन रुककर मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्न करते हुए पाया। लूका 2:47 और जिन्होंने उन को सुना वे सब उनकी समझ और उनके उत्तरों से चकित थे। तब ईसा अपने माता पिता के साथ अपना गांव वापिस लौट गए। ईसा ने यूसुफ का पेशा सीख लिया और लगभग 30 साल की उम्र तक उसी गाँव में रहकर वे बढ़ई का काम करते रहे। बाइबिल (इंजील) में उनके 13 से 29 वर्षों के बीच का कोई ‍ज़िक्र नहीं मिलता। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से पानी में डुबकी (दीक्षा) ली। डुबकी के बाद ईसा पर पवित्र आत्मा आया। 40 दिन के उपवास के बाद ईसा लोगों को शिक्षा देने लगे।

बैबलियाई आत्मकथा

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जन्म

हेरोदेस राजा के दिनों में जब यहूदिया के बैतलहम में यीशु का जन्म हुआ, तो देखो, पूर्व से कई ज्योतिषी यरूशलेम में आकर पूछने लगे। कि यहूदियों का राजा जिस का जन्म हुआ है, कहां है? क्योंकि हम ने पूर्व में उसका तारा देखा है और उस को प्रणाम करने आए हैं। यह सुनकर हेरोदेस राजा और उसके साथ सारा यरूशलेम घबरा गया। और उस ने लोगों के सब महायाजकों और शास्त्रियों को इकट्ठे करके उन से पूछा, कि मसीह का जन्म कहाँ होना चाहिए? उन्होंने उस से कहा, यहूदिया के बैतलहम में; क्योंकि भविष्यद्वक्ता के द्वारा यों लिखा है। कि हे बैतलहम, जो यहूदा के देश में है, तू किसी रीति से यहूदा के अधिकारियों में सब से छोटा नहीं; क्योंकि तुझ में से एक अधिपति निकलेगा, जो मेरी प्रजा इस्राएल की रखवाली करेगा। तब हेरोदेस ने ज्योतिषियों को चुपके से बुलाकर उन से पूछा, कि तारा ठीक किस समय दिखाई दिया था। और उस ने यह कहकर उन्हें बैतलहम भेजा, कि जाकर उस बालक के विषय में ठीक ठीक मालूम करो और जब वह मिल जाए तो मुझे समाचार दो ताकि मैं भी आकर उस को प्रणाम करूं। वे राजा की बात सुनकर चले गए और देखो, जो तारा उन्होंने पूर्व में देखा था, वह उन के आगे आगे चला और जंहा बालक था, उस जगह के ऊपर पंहुचकर ठहर गया॥ उस तारे को देखकर वे अति आनन्दित हुए। और उस घर में पहुंचकर उस बालक को उस की माता मरियम के साथ देखा और मुंह के बल गिरकर उसे प्रणाम किया; और अपना अपना यैला खोलकर उसे सोना और लोहबान और गन्धरस की भेंट चढ़ाई। और स्वप्न में यह चितौनी पाकर कि हेरोदेस के पास फिर न जाना, वे दूसरे मार्ग से होकर अपने देश को चले गए॥ उन के चले जाने के बाद देखो, प्रभु के एक दूत ने स्वप्न में यूसुफ को दिखाई देकर कहा, उठ; उस बालक को और उस की माता को लेकर मिस्र देश को भाग जा; और जब तक मैं तुझ से न कहूं, तब तक वहीं रहना; क्योंकि हेरोदेस इस बालक को ढूंढ़ने पर है कि उसे मरवा डाले। वह रात ही को उठकर बालक और उस की माता को लेकर मिस्र को चल दिया। और हेरोदेस के मरने तक वहीं रहा; इसलिये कि वह वचन जो प्रभु ने भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा था कि मैं ने अपने पुत्र को मिस्र से बुलाया पूरा हो। जब हेरोदेस ने यह देखा, कि ज्योतिषियों ने मेरे साथ ठट्ठा किया है, तब वह क्रोध से भर गया; और लोगों को भेजकर ज्योतिषियों से ठीक ठीक पूछे हुए समय के अनुसार बैतलहम और उसके आस पास के सब लड़कों को जो दो वर्ष के, वा उस से छोटे थे, मरवा डाला। तब जो वचन यिर्मयाह भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा गया था, वह पूरा हुआ, कि रामाह में एक करूण-नाद सुनाई दिया, रोना और बड़ा विलाप, राहेल अपने बालकों के लिये रो रही थी और शान्त होना न चाहती थी, क्योंकि वे हैं नहीं॥ हेरोदेस के मरने के बाद देखो, प्रभु के दूत ने मिस्र में यूसुफ को स्वप्न में दिखाई देकर कहा। कि उठ, बालक और उस की माता को लेकर इस्राएल के देश में चला जा; क्योंकिं जो बालक के प्राण लेना चाहते थे, वे मर गए। वह उठा और बालक और उस की माता को साथ लेकर इस्राएल के देश में आया। परन्तु यह सुनकर कि अरिखलाउस अपने पिता हेरोदेस की जगह यहूदिया पर राज्य कर रहा है, वहां जाने से डरा; और स्वप्न में चितौनी पाकर गलील देश में चला गया। और नासरत नाम नगर में जा बसा; ताकि वह वचन पूरा हो, जो भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा कहा गया था, कि वह नासरी कहलाएगा॥

लड़कपन

और बालक बढ़ता और बलवन्त होता और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था। उसके माता-पिता प्रति वर्ष फसह के पर्व में यरूशलेम को जाया करते थे। जब वह बारह वर्ष का हुआ, तो वे पर्व की रीति के अनुसार यरूशलेम को गए। और जब वे उन दिनों को पूरा करके लौटने लगे, तो वह लड़का यीशु यरूशलेम में रह गया; और यह उसके माता-पिता नहीं जानते थे। वे यह समझकर, कि वह और यात्रियों के साथ होगा, एक दिन का पड़ाव निकल गए: और उसे अपने कुटुम्बियों और जान-पहचानों में ढूंढ़ने लगे। पर जब नहीं मिला, तो ढूंढ़ते-ढूंढ़ते यरूशलेम को फिर लौट गए। और तीन दिन के बाद उन्होंने उसे मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्न करते हुए पाया। और जितने उस की सुन रहे थे, वे सब उस की समझ और उसके उत्तरों से चकित थे। तब वे उसे देखकर चकित हुए और उस की माता ने उस से कहा; हे पुत्र, तू ने हम से क्यों ऐसा व्यवहार किया? देख, तेरा पिता और मैं कुढ़ते हुए तुझे ढूंढ़ते थे। उस ने उन से कहा; तुम मुझे क्यों ढूंढ़ते थे? क्या नहीं जानते थे, कि मुझे अपने पिता के भवन में होना अवश्य है? परन्तु जो बात उस ने उन से कही, उन्होंने उसे नहीं समझा। तब वह उन के साथ गया और नासरत में आया और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं॥ और यीशु बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया॥

माँ मरियम

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छठवें महीने में परमेश्वर की ओर से जिब्राईल स्वर्गदूत गलील के नासरत नगर में एक कुंवारी के पास भेजा गया। जिस की मंगनी यूसुफ नाम दाऊद के घराने के एक पुरूष से हुई थी: उस कुंवारी का नाम मरियम था। और स्वर्गदूत ने उसके पास भीतर आकर कहा; आनन्द और जय तेरी हो, जिस पर ईश्वर का अनुग्रह हुआ है, प्रभु तेरे साथ है। वह उस वचन से बहुत घबरा गई और सोचने लगी, कि यह किस प्रकार का अभिवादन है? स्वर्गदूत ने उस से कहा, हे मरियम; भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है। और देख, तू गर्भवती होगी और तेरे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम यीशु रखना। वह महान होगा; और परमप्रधान का पुत्र कहलाएगा; और प्रभु परमेश्वर उसके पिता दाऊद का सिंहासन उस को देगा। और वह याकूब के घराने पर सदा राज्य करेगा; और उसके राज्य का अन्त न होगा। मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, यह क्योंकर होगा? मैं तो पुरूष को जानती ही नहीं। स्वर्गदूत ने उस को उत्तर दिया; कि पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा और परमप्रधान की सामर्थ तुझ पर छाया करेगी इसलिये वह पवित्र जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा।

यीशु ने और भी बहुत चिन्ह चेलों के साम्हने दिखाए, जो इस पुस्‍तक (बाईबल) में लिखे नहीं गए।  परन्तु ये इसलिये लिखे गए हैं, कि तुम विश्वास करो, कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है: और विश्वास कर के उसके नाम से जीवन पाओ।( यूहन्ना 20:30,31)।[32] यह बहुत अच्‍छे इंसान थे जिसके सिर पर हाथ वह धन्य हो जाता था येशु ने अपने जीवन में अनगिनत चमत्कार किये जो पृथ्वी पर  किसी और के लिए नामुमकिन थे

धर्म-प्रचार

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तीस साल की उम्र में ईसा ने इस्राइल की जनता को यहूदी धर्म का एक नया रूप प्रचारित करना शुरु कर दिया। उस समय तीस साल से कम उम्र वाले को सभागृह मे शास्त्र पढ़ने के लिए और उपदेश देने के लिए नही दिया करते थे। उन्होंने कहा कि ईश्वर (जो केवल एक ही है) साक्षात प्रेमरूप है और उस वक़्त के वर्त्तमान यहूदी धर्म की पशुबलि और कर्मकाण्ड नहीं चाहता। यहूदी ईश्वर की परमप्रिय नस्ल नहीं है, ईश्वर सभी मुल्कों को प्यार करता है। इंसान को क्रोध में बदला नहीं लेना चाहिए और क्षमा करना सीखना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वे ही ईश्वर के पुत्र हैं, वे ही मसीह हैं और स्वर्ग और मुक्ति का मार्ग हैं। यहूदी धर्म में क़यामत के दिन का कोई ख़ास ज़िक्र या महत्त्व नहीं था, पर ईसा ने क़यामत के दिन पर ख़ास ज़ोर दिया - क्योंकि उसी वक़्त स्वर्ग या नर्क इंसानी आत्मा को मिलेगा। ईसा ने कई चमत्कार भी किए।

विरोध, मृत्यु और पुनरुत्थान

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ईसा अपना ही क्रूस उठाये हुए

यहूदियों के कट्टरपन्थी रब्बियों (धर्मगुरुओं) ने ईसा का भारी विरोध किया। उन्हें ईसा में मसीहा जैसा कुछ ख़ास नहीं लगा। उन्हें अपने कर्मकाण्डों से प्रेम था। ख़ुद को ईश्वरपुत्र बताना उनके लिये भारी पाप था। इसलिये उन्होंने उस वक़्त के रोमन गवर्नर पिलातुस को इसकी शिकायत कर दी। रोमनों को हमेशा यहूदी क्रान्ति का डर रहता था। इसलिये कट्टरपन्थियों को प्रसन्न करने के लिए पिलातुस ने ईसा को क्रूस (सलीब) पर मौत की दर्दनाक सज़ा सुनाई।

बाइबल के मुताबिक़, रोमी सैनिकों ने ईसा को कोड़ों से मारा। उन्हें शाही कपड़े पहनाए, उनके सर पर कांटों का ताज सजाया और उनपर थूका और ऐसे उन्हें तौहीन में "यहूदियों का बादशाह" बनाया। पीठ पर अपना ही क्रूस उठवाके, रोमियों ने उन्हें गल्गता तक लिया, जहां पर उन्हें क्रूस पर लटकाना था। गल्गता पहुंचने पर, उन्हें मदिरा और पित्त का मिश्रण पेश किया गया था। उस युग में यह मिश्रण मृत्युदंड की अत्यंत दर्द को कम करने के लिए दिया जाता था। ईसा ने इसे इंकार किया। बाइबल के मुताबिक़, ईसा दो चोर के बीच क्रूस पर लटकाया गया था।

ईसाइयों का मानना है कि क्रूस पर मरते समय ईसा मसीह ने सभी इंसानों के पाप स्वयं पर ले लिए थे और इसलिए जो भी ईसा में विश्वास करेगा, उसे ही स्वर्ग मिलेगा। मृत्यु के तीन दिन बाद ईसा वापिस जी उठे और 40 दिन बाद सीधे स्वर्ग चले गए। ईसा के 12 शिष्यों ने उनके नये धर्म को सभी जगह फैलाया। यही धर्म ईसाई धर्म कहलाया।


इन्हें भी देखें

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  1. Meier, John P. (1991). A Marginal Jew: The roots of the problem and the person. Yale University Press. पृ॰ 407. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-300-14018-7.
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बाहरी कड़ियाँ

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