भट्टिकाव्य

(रावण वध से अनुप्रेषित)

भट्टिकाव्य महाकवि भट्टि द्वारा रचित महाकाव्य है। इसका वास्तविक नाम 'रावणवध' है। इसमें भगवान रामचंद्र की कथा जन्म से लगाकर लंकेश्वर रावण के संहार तक उपवर्णित है। यह महाकाव्य संस्कृत साहित्य के दो महान परम्पराओं - रामायण एवं पाणिनीय व्याकरण का मिश्रण होने के नाते कला और विज्ञान का समिश्रण जैसा है। अत: इसे साहित्य में एक नया और साहसपूर्ण प्रयोग माना जाता है।

भट्टि ने स्वयं अपनी रचना का गौरव प्रकट करते हुए कहा है कि यह मेरी रचना व्याकरण के ज्ञान से हीन पाठकों के लिए नहीं है। यह काव्य टीका के सहारे ही समझा जा सकता है। यह मेधावी विद्वान के मनोविनोद के लिए रचा गया है, तथा सुबोध छात्र को प्रायोगिक पद्धति से व्याकरण के दुरूह नियमों से अवगत कराने के लिए।

भट्टिकाव्य की प्रौढ़ता ने उसे कठिन होते हुए भी जनप्रिय एवं मान्य बनाया है। प्राचीन पठनपाठन की परिपाटी में भट्टिकाव्य को सुप्रसिद्ध पञ्चमहाकाव्य (रघुवंश, कुमारसंभव, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध, नैषधचरित) के समान स्थान दिया गया है। लगभग 14 टीकाएँ जयमंगला, मल्लिनाथ की सर्वपथीन एवं जीवानन्द कृत हैं। माधवीयधातुवृत्ति में आदि शंकराचार्य द्वारा भट्टिकाव्य पर प्रणीत टीका का उल्लेख मिलता है।

आरम्भ के तीन श्लोक देखें-

अभून्नृपो विबुधसखः परन्तपः श्रुतान्वितो दशरथ इत्युदाहृतः ।
गुणैर्वरंभुवनहितच्छलेन यं सनातनः पितारमुपागमत्‌ स्वयम्‌ ॥
सोऽध्यैष्ट वेदास्त्रिदशानयष्ट पितृन्‌ अपारीत्‌ सममंस्त बन्धून्‌ ।
व्यजेष्ट षडवर्गमरंस्त नीतौ समूलघातं न्यवधीदरींश्च ॥
वसूनि तोयं घनवद्‌ व्यतारीत्‌ सहासनं गोत्रभिदाध्यवात्सीत्‌।
न त्र्यम्बकादन्यमुपास्थितासौ यशांसि सर्वेषुभृतां निरास्थत्‌ ॥

यहाँ तिङन्त लुङि प्रयुक्त हुआ है। इसके बाद चतुर्थ पद्य में लिट्‌ दिख रहा है। पद-पद में व्याकरणविशेष सर्वत्र दिख रहे हैं।

इस महाकाव्य का उपजीव्य ग्रन्थ वाल्मीकिकृत रामायण है। इस महाकाव्य में चार काण्ड हैं। कथाभाग के उपकथन की दृष्टि से यह महाकाव्य 22 सर्गो में विभाजित है तथा महाकाव्य के सकल लक्षणों से समन्वित है।

  • प्रकीर्णकाण्डम्
  • अधिकारकाण्डम्
  • प्रसन्नकाण्डम्
  • तिङन्तकाण्डम्

रचना का मुख्य उद्देश्य व्याकरण एवं साहित्य के लक्षणों को लक्ष्य द्वारा उपस्थित करने का है। लक्ष्य द्वारा लक्षणों को उपस्थित करने की दृष्टि से यह महाकाव्य चार काण्डों में विभाजित है जिसमें तीन काण्ड संस्कृत व्याकरण के अनुसार विविध शब्दरूपों को प्रयुक्त कर रचयिता की उद्देश्यसिद्धि करते हैं। मध्य में एक काण्ड काव्यसौष्ठव के कतिपय अंगों को अभिलक्षित कर रचा गया है।

रचना का अनुक्रम इस प्रकार है कि प्रथम काण्ड व्याकरणानुसारी विविध शब्दरूपों को प्रकीर्ण रूप से संगृहीत करता है। द्वितीय कांड 'अधिकार कांड' है जिसमें पाणिनीय व्याकरण के कतिपय विशिष्ट अधिकारों में प्रदर्शित नियमों के अनुसार शब्दप्रयोग है। तृतीय कांड साहित्यिक विशेषताओं को अभिलक्षित करने की दृष्टि से रचा गया है अतएव इस कांड को महाकवि ने 'प्रसन्नकाण्ड' की संज्ञा दी है। इस कांड में चार अधिकरण हैं : प्रथम अधिकरण में शब्दालंकार एवं अर्थालंकार के लक्ष्य हैं। द्वितीय अधिकरण में माधुर्य गुण के स्वरूप का प्रदर्शन लक्ष्य द्वारा किया गया है, तृतीय अधिकरण में भाविकत्व का स्वरूप प्रदर्शन करते हुए कथानक के प्रसंगानुसार राजनीति के विविध तत्वों एवं उपायों पर प्रकाश डाला गया है। प्रसन्न कांड का चौथा अधिकरण इस महाकाव्य का एक विशेष रूप है। इसमें ऐसे पद्यों की रचना की गई है जिनमें संस्कृत तथा प्राकृत भाषा का समानांतर समावेश है, वही पद्य संस्कृत में उपनिबद्ध है जिसकी पदावली प्राकृत पद्य का भी यथावत् स्वरूप लिए है और दोनों भाषा में प्रतिपाद्य अर्थ एक ही है। भाषा सम का उदाहरण प्रस्तुत करता हुआ यह अंश भट्टिकाव्य की निजी विशेषता है। अंतिम कांड पुनः संस्कृत व्याकरण के एक जटिल स्वरूप तिङन्त के विविध शब्दरूप को प्रदर्शित करता है। यह काण्ड सबसे बड़ा है।

इन चार कांडों में कथावस्तु के विभाजन की दृष्टि से प्रथम काण्ड में पहले पाँच सर्ग हैं जिनमें क्रमशः रामजन्म, सीताविवाह, राम का वनगमन एवं सीताहरण तथा राम के द्वारा सीतान्वेषण का उपक्रम वर्णित है। द्वितीय कांड अगले चार सर्गो को व्याप्त करता है जिसमें सुग्रीव का राज्याभिषेक, वानर भटों द्वारा सीता की खोज, लौट आने पर अशोकवाटिका का भंग और मारुति को पकड़कर सभा में उपस्थित किए जाने की कथावस्तु वर्णित है। तीसरे, प्रसन्नकाण्ड में अगले चार सर्ग हैं जिनमें सीता के अभिज्ञान का प्रदर्शन, लंका में प्रभात का वर्णन, विभीषण का राम के पास आगमन तथा सेतुबन्ध की कथा है। अंतिम, तिङन्त काण्ड अगले नौ सर्ग ले लेता है जिनमें शरबंध से लगाकर राजा रामचंद्र के अयोध्या लौट आने तक का कथाभाग वर्णित है।

चारों कांड और 22 सर्गो में 1625 पद्य हैं, जिनमें प्रथम पद्य मंगलाचरण वस्तुनिर्देशात्मक है तथा अंतिम पद्य काव्योपसंहार का है। 1625 पद्यसंख्या के इस महाकाव्य में अधिकांश प्रयोग अनुष्टुभ श्लोकों का है जिनमें सर्ग छह, नौ तथा 14 वाँ एवं 12 वाँ। दसवें सर्ग में विविध छंदों का प्रयोग किया गया है जिनमें पुप्पिताग्रा प्रमुख है। इनके अतिरिक्त प्रहर्षिणी, मालिनी, औपच्छंदसिक, वंशस्थ, वैतालीय, अश्वललित, नंदन, पृथ्वी, रुचिरा, नर्कुटक, तनुमध्या, त्रोटक, द्रुतविलंबित, प्रमिताक्षरा, प्रहरणकलिका, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीड़ित एवं स्रग्धरा का छुटपुट प्रयोग दिखाई देता है। साहित्य की दृष्टि से भट्टिकाव्य में प्रधानतः ओजोगुण एवं गौड़ी रीति है, तथापि अन्य माधुर्यादि गुणों के एंव वैदर्भी तथा लाटी रीति के निदर्शन भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं।

'शास्त्र-काव्य' के रूप में भट्टिकाव्य

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भट्टिकाव्य के काण्ड और श्लोक पाणिनि के सूत्र विषय

प्रकीर्ण काण्ड

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1.1-5.96 n/a विविध सूत्र

अधिकार काण्ड

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5.97-100 3.2.17-23 प्रत्यय
5.104-6.4 3.1.35-41 आम पर-प्रत्यय (suffix)
6.8-10 1.4.51 Double accusatives
6.16-34 3.1.43-66 Aorists using sĪC substitutes for the affix CLI
6.35-39 3.1.78 The affix ŚnaM for the present tense system of class 7 verbs
6.46-67 3.1.96-132 The future passive participles or gerundives and related forms formed from the kṛtya affixes tavya, tavyaT, anīyaR, yaT, Kyap, and ṆyaT
6.71-86 3.1.133-150 Words formed with nirupapada kṛt affixes ṆvuL, tṛC, Lyu, ṆinI, aC, Ka, Śa, Ṇa, ṢvuN, thakaN, ṆyuṬ and vuN
6.87-93 3.2.1-15 Words formed with sopapada kṛt affixes aṆ, Ka, ṬaK, aC
6.94-111 3.2.28-50 Words formed with affixes KHaŚ and KhaC
6.112-143 3.2.51-116 Words formed with kṛt affixes
7.1-25 3.2.134-175 kṛt (tācchīlaka) affixes tṛN, iṣṇuC, Ksnu, Knu, GHinUṆ, vuÑ, yuC, ukaÑ, ṢākaN, inI, luC, KmaraC, GhuraC, KuraC, KvaraP, ūka, ra, u, najIṄ, āru, Kru, KlukaN, varaC and KvIP
7.28-34 3.3.1-21 niradhikāra kṛt affixes
7.34-85 3.3.18-128 The affix GhaÑ
7.91-107 1.2.1-26 Ṅit-Kit
8.1-69 1.3.12-93 आत्मनेपद (middle voice) affixes
8.70-84 1.4.24-54 The use of cases under the अधिकार 'कारके'
8.85-93 1.4.83-98 कर्मप्रवचनीय prepositions
8.94-130 2.3.1-73 विभक्ति, case inflection
9.8-11 7.2.1-7 The suffix sIC and वृद्धि of the परस्मैपद aorist
9.12-22 7.2.8-30 The prohibition of iṬ
9.23-57 7.2.35-78 The use if iṬ
9.58-66 8.3.34-48 विसर्ग सन्धि
9.67-91 8.3.55-118 Retroflexion of s
9.92-109 8.4.1-39 Retroflexion of n

प्रसन्न काण्ड : अलङ्कार, गुण, रस, प्राकृत

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10.1-22 n/a शब्दालङ्कार
10.23-75 n/a अर्थालङ्कार
11 n/a माधुर्य गुण
12 n/a भाविकट्व रस
13 n/a भाषासम, प्राकृत और संस्कृत का साथ-साथ उपयोग

तिङन्त काण्ड

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14 n/a The perfect tense
15 n/a The aorist tense
16 n/a सरल भविष्य काल
17 n/a The imperfect tense
18 n/a वर्तमान काल
19 n/a The optative mood
20 n/a The imperative mood
21 n/a The conditional mood
22 n/a The periphrastic future

रचयिता एवं रचनाकाल

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स्वयं प्रणेता के अनुसार भट्टिकाव्य की रचना गुर्जर देश के अंतर्गत बलभी नगर में हुई। भट्टि कवि का नाम "भर्तृ" शब्द का अपभ्रंश रूप है। कतिपय समीक्षक कवि का पूरा नाम भर्तृहरि मानते हैं, परंतु यह भर्तृहरि निश्चित ही शतकत्रय के निर्माता अथवा वाक्यपदीय के प्रणेता भर्तृहरि से भिन्न हैं। भट्टि उपनाम भर्तृहरि कवि वलभीनरेश श्रीधर सेन से संबंधित है। महाकवि भट्टि का समय ईसवी छठी शताब्दी का उत्तरार्ध सर्वसम्मत है। अलंकार वर्ग में निदर्शित उदाहरणों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि भट्टि और भामह एक ही परंपरा के अनुयायी हैं।

अष्टाध्यायी और भट्टिकाव्य

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भट्टिकाव्य की रचना के पूर्व लगभग १० शताब्दियों तक पाणिनि का अष्टाध्यायी का ही गहन पठन-पाठन होता आ रहा था। भट्टि का उद्देश्य अष्टाध्यायी के अध्ययन को आसान बनाने वाला साधन निर्मित करना था। ऐसा उन्होने पहले से मौजूद व्याकरण के भाष्यग्रन्थों में दिए गये उदाहरणों को रामकथा के साथ सम्बद्ध करके किया। इससे सीखने में सरलता और सरसता आ गई।

भट्टिकाव्य और जावा भाषा का रामायण

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भट्टिकाव्य का प्रभाव सुदूर जावा तक देखने को मिलता है। वहाँ का प्राचीन जावा भाषा का रामायण भट्टिकाव्य पर ही आधारित है। यह रामायण जावा भाषा का वर्तमान में बचा हुआ सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। यह रामायण भट्टिकाव्य को १२वें सर्ग तक पूर्णतः अनुसरण करता है। कभी-कभी तो पूरी की पूरी कविता का अनुवाद कर दिया गया है। १२वें सर्ग के बाद जावा भाषा का रामायण भट्टिकाव्य से अलग होता दिखता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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