विजयदेव नारायण साही

(विजयदेवनरायण साही से अनुप्रेषित)

विजयदेव नारायण साही हिन्दी साहित्य के नयी कविता दौर के प्रसिद्ध कवि, एवं आलोचक हैं। वे तीसरा सप्तक के कवियों में शामिल थे। जायसी पर केन्द्रित उनका व्यवस्थित अध्ययन एवं नयी कविता के अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक तथा समसामयिक मुद्दों पर केन्द्रित उनके आलेख उनकी प्रखर आलोचकीय क्षमता के परिचायक हैं।

जीवन-परिचय संपादित करें

विजयदेव नारायण साही का जन्म 7 अक्टूबर सन् 1924 ई॰ को (विजयादशमी के दिन) कबीर चौरा, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री ब्राह्मदेवनारायण साही तथा माता का नाम सूरतवन्ती साही था।[1]

1948 ई॰ में साही ने एम॰ए॰ पास किया और उसी समय आचार्य नरेन्द्र देव की अनुज्ञा से काशी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया। 1 दिसंबर 1957 को प्रोफेसर मुरलीधर लाल श्रीवास्तव की पुत्री सुश्री कंचनलता से उनका विवाह हुआ।

1970 में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में रीडर हुए और 1978 में वहीं प्रोफ़ेसर हुए।

साही की प्रतिभा बहुआयामी तथा अध्ययन-क्षेत्र व्यापक था। अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक होने के साथ-साथ वे हिंदी साहित्य के कवि एवं आलोचक तो थे ही साथ ही उर्दू-फारसी के ज्ञाता भी थे।[2]

साही नयी कविता आंदोलन से संबंधित थे। इस आंदोलन को प्रचलित रूप में प्रगतिवादी आंदोलन का प्रतिद्वंद्वी माना जाता रहा है। परंतु साही ने अपना पूरा जीवन शोषित मजदूरों एवं महिलाओं के उत्थान के लिए लगाया। कालीन-बुनकरों को संगठित कर उनकी यूनियन बनायी, उनकी लड़ाई लड़ते रहे। महिला कताईकारों के लिए भी संघर्ष किया और उन्हें उचित वेतन दिलवाया। साही कानून की पुस्तकें पढ़ कर मजदूरों के मुकदमे को हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते थे और जीतते भी थे। इस कार्य में उन्होंने कार्यकर्ताओं को भी प्रशिक्षित किया।[1]

साही सोशलिस्ट पार्टी के शिक्षण शिविरों में बराबर शिक्षण-भाषण करते थे और सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलनों में भाग लेते थे।[3]

1973 ई॰ में साही भारत सरकार के कल्चर रिप्रेजेंटेटिव होकर अगस्त में युगोस्लाविया में स्ट्रगा वर्ल्ड पोएट्री फेस्टिवल में भारतवर्ष का प्रतिनिधित्व किया और फिर उलान बतोर, लेनिनग्राद, प्राहा, बारशावा, हैम्बर्ग, हाइडेलबर्ग के विश्वविद्यालयों में 'कंटेंपरेरी इंडियन कल्चर एंड लिटरेचर एंड द इंपैक्ट ऑफ द वेस्ट' विषय पर भाषण दिये। इससे पहले 1970-71 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज में 'सेकुलर एंड नॉन सेकुलर ट्रेंड्स इन नॉर्थ इंडियन लिटरेचर' तथा 'वेस्टर्निज्म एंड कल्चरल चेंज इन इंडिया' विषय पर भी वे पेपर पढ़ चुके थे।[4]

साही भाषण देने में सिद्धहस्त थे और प्रबल प्रतिद्वंद्वी के रहने के बावजूद अपना पक्ष दृढ़तापूर्वक रखते थे। हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ॰ नामवर सिंह के साथ एक मंच पर उनकी भाषण की प्रतिद्वंद्विता देखने योग्य होती थी। लेखन के अतिरिक्त उनके वक्तव्य-द्वन्द्व के कारण भी उन दोनों को हिन्दी साहित्य के 'दो बाँके' के रूप में याद किया गया है।[5]

13 सितंबर 1982 को लोहिया-जयप्रकाश जयंती के अवसर पर पटना में भाषण देकर लौटते ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा। यही उनका आखिरी भाषण सिद्ध हुआ। 5 नवंबर 1982 को बैंक रोड, इलाहाबाद में उनका निधन हो गया।

लेखन-कार्य संपादित करें

साही जी का जीवन सामाजिक कार्यों में लगातार भाग लेने के कारण काफी व्यस्त रहा और इसलिए भी उन्होंने बहुत अधिक नहीं लिखा; परंतु जो कुछ लिखा वह पूरी तन्मयता से लिखा और इसलिए उनका लिखा कुछ भी नजरअंदाज करने योग्य नहीं है। वे एक कवि थे और कविता उनकी प्राथमिक विधा थी, परंतु आलोचना के क्षेत्र में भी उनका कम लेखन के बावजूद ऐसा जबर्दस्त योगदान हुआ कि उन्हें हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ दस आलोचकों में प्रायः निर्विवाद रूप से स्थान दिया जाता है।[6][7]

कवि व्यक्तित्व संपादित करें

सर्वप्रथम 1959 में प्रकाशित तीसरा सप्तक में अज्ञेय ने एक कवि के रूप में शाही को भी सम्मिलित किया और उनकी 20 कविताएँ इसमें प्रकाशित हुईं।[8] पुनः उनकी कविताएँ दो स्वतंत्र संग्रह के रूप में भी प्रकाशित हुईं। मछलीघर उनके जीवन-काल में प्रकाशित एकमात्र पुस्तक थी।[9] साही द्वारा अपनी कविताओं में चित्रित मानव स्वयं उनके द्वारा परिभाषित 'लघु मानव' का ही बिंब उपस्थापित करता है। मानवीय उत्थान-पतन तथा उसमें निहित संघर्षशीलता का चित्रण भी साही ने शिद्दत से किया है, परंतु उनका मानव न तो कोई योद्धा है और न ही अपनी दुःस्थितियों को सरलतापूर्वक पहचान कर संघर्ष उत्पन्न करने वाले के खिलाफ लामबंद होते हुए समूह का कोई सदस्य। वह तो अपनी पीड़ा में छटपटाता और मुक्ति की राह तलाशता सहज मानवीय राग से संपन्न 'लघु मानव' है, जो व्यापक विडंबनाओं एवं व्यवस्था की विषमताओं से त्रस्त तथा अपनी आंतरिक कमजोरियों को लिए-दिए जूझने वाले प्राणी के रुप में सामने आता है। उनके व्यक्तित्व और उनकी कविता को एक साथ उनकी इन पंक्तियों से स्पष्टता से समझा जा सकता है[10]:-

         "इस दहाड़ते आतंक के बीच
         फटकार कर सच बोल सकूं
         और इसकी चिंता न हो
         कि इस बहुमुखी युद्ध में
         मेरे सच का इस्तेमाल
         कौन अपने पक्ष में करेगा।"

मानवीय प्रणय और सामाजिक इतिहास की शक्तियों तथा उनकी अंतर्क्रिया को सूफी संतों जैसी सांकेतिक रहस्य शैली में व्यक्त करना भी साही की विशेषता है।[11]

आलोचना में योगदान संपादित करें

साही का आलोचनात्मक लेखन अधिकतर स्फुट रूप में ही रहा है। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध लम्बा निबन्ध ' लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस (छायावाद से अज्ञेय तक)' इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'नयी कविता' के संयुक्तांक 5-6 में छपा था।[12] 'शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट' उनका दूसरा प्रसिद्ध निबन्ध है। साहित्य के विभिन्न विषयों एवं मुद्दों से संबंधित उनके निबन्ध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे और उनके निधनोपरांत पहली बार 1987 ई॰ में छठवाँ दशक नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। साही के आलोचनात्मक लेखन का मुख्यांश इसी पुस्तक में संकलित है।

फुटकर निबंधों के अतिरिक्त साही की प्रबन्धात्मक रचना 'जायसी' का विशिष्ट महत्त्व है। उन्होंने सुप्रसिद्ध मध्यकालीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी के 'पद्मावत' का गहन अध्ययन किया था और हिंदुस्तानी एकेडेमी द्वारा आयोजित व्याख्यान में उन्होंने गहरी तादात्मयता के साथ तत्संबंधित अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस संबंध में उनकी प्रकाशित पुस्तक 'जायसी' में 17,18 एवं 19 मार्च 1982 को प्रस्तुत उनके तीन विशिष्ट व्याख्यानों के अतिरिक्त उन लिखित अंशों को भी समाहित किया गया जो समयाभाव के कारण उक्त व्याख्यान में पढ़े नहीं जा सके थे।[13]

जायसी पर प्रस्तुत साही जी के इस अध्ययन के संबंध में डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि "यहाँ उन्होंने अपने को समकालीन वितंडा से खींच लिया, और जायसी के अध्ययन और उनके काव्य विशेषतः 'पद्मावत' की व्याख्या में अपने को पूरी तरह से दे दिया; 'कबित्त-रस' में वे बूड़े और फिर स्वभावतः तिरे। जायसी के जीवन वृत्त, पाठ और 'पद्मावत' के कथानक की ऐतिहासिकता से लेकर उसके कवित्व की सूक्ष्मतम व्याख्या में उनका मन खूब रमा। विद्वता और सहृदयता का मणिकांचन योग इस अध्ययन में दिखता है। मध्यकालीन हिंदी की अकेली ट्रैजडी के रूप में साही द्वारा 'पद्मावत' की व्याख्या सर्जनात्मक आलोचना का बहुत अच्छा उदाहरण है।"[14]

प्रकाशित कृतियाँ संपादित करें

काव्य-
  1. तीसरा सप्तक -1958 (सं॰ अज्ञेय; भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से प्रकाशित)
  2. मछलीघर -1966 (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  3. साखी -1983 (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  4. संवाद तुमसे -1990 (भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली)
  5. आवाज़ हमारी जाएगी -1995 (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद)
आलोचना-
  1. जायसी -1983 (हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद से प्रकाशित)
  2. साहित्य और साहित्यकार का दायित्व -1987 (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद से)
  3. छठवाँ दशक -1987 (हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद से)
  4. साहित्य क्यों? -1988 (प्रदीपन प्रकाशन, इलाहाबाद)
  5. वर्धमान और पतनशील -1991 (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
राजनीतिक-
  1. लोकतंत्र की कसौटियाँ -1991 (हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद से)

संपादन संपादित करें

  1. आलोचना (पत्रिका) {1953-58} [ धर्मवीर भारती, डॉ॰ रघुवंश एवं ब्रजेश्वर वर्मा के साथ सह संपादन]
  2. नयी कविता (पत्रिका) [अंक-3 से जगदीश गुप्त के साथ सह संपादन]

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. जायसी, विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-2004, प्रथम आवरण फ्लैप पर उद्धृत।
  2. नयी कविता, खण्ड-1 (सैद्धांतिक पक्ष), संपादक- जगदीश गुप्त एवं अन्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2010, पृष्ठ-V (भूमिका)।
  3. छठवाँ दशक, विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण-2007, प्रथम आवरण फ्लैप पर उद्धृत।
  4. लोकतंत्र की कसौटियाँ, विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-1991, तथा छठवाँ दशक, पूर्ववत्, एवं जायसी, पूर्ववत्, के अंतिम आवरण फ्लैप पर उद्धृत।
  5. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1996, पृष्ठ-309.
  6. आलोचना के सौ बरस, प्रथम खण्ड, सं०- अरविन्द त्रिपाठी, शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली, संस्करण-2012, पृ०-5 (पुरोवाक्) तथा पृ०-87 से 92 में 'हिन्दी आलोचना के नवरत्न' में से एक के रूप में विवेचन शामिल।
  7. मदन कश्यप, 'इंडिया टूडे' 11 सितम्बर 2002, पृ०-74.
  8. तीसरा सप्तक, संपादक- अज्ञेय, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, पंचम संस्करण-1984, पृष्ठ-187 से 218.
  9. मछलीघर, विजयदेव नारायण साही, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1995, पृष्ठ-5 (द्वितीय संस्करण की भूमिका में)।
  10. संवाद तुमसे, विजयदेव नारायण साही, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990, अंतिम आवरण पृष्ठ पर उल्लिखित।
  11. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1996, पृष्ठ-289.
  12. नयी कविता, खण्ड-1 (सैद्धांतिक पक्ष), संपादक- जगदीश गुप्त एवं अन्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2010, पृष्ठ-183 से 231.
  13. जायसी, विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-2004, पृष्ठ-4 (जगदीश गुप्त लिखित प्रकाशकीय में)।
  14. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1996, पृष्ठ-309-10.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें