"देवकीनन्दन खत्री": अवतरणों में अंतर
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'''बाबू देवकीनन्दन खत्री''' (29 जून 1861 - 1 अगस्त 1913) [[हिंदी]] के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने [[चंद्रकांता]], [[चंद्रकांता संतति]], [[काजर की कोठरी]], [[नरेंद्र-मोहिनी]], [[कुसुम कुमारी]], [[वीरेंद्र वीर]], [[गुप्त गोंडा]], [[कटोरा भर]], [[भूतनाथ]] जैसी रचनाएं की। 'भूतनाथ' को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। [[हिंदी भाषा]] के प्रचार प्रसार में उनके [[उपन्यास]] '''[[चंद्रकांता]]''' का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'तिलिस्म', 'ऐय्यार' और 'ऐय्यारी' जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने (बाबू देवकीनन्दन खत्री ने) उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं ।<ref>आचार्य [[रामचन्द्र शुक्ल]], हिन्दी साहित्य का इतिहास, काशी, संवत् २०१२ वि॰, पृ॰ ४९९</ref>
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देवकीनन्दन खत्री जी का काशी नरेश ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह से बहुत अच्छा सम्बंध था। इस सम्बंध के आधार पर उन्होंने चकिया और नौगढ़ के जंगलों के ठेके लिये। देवकीनन्दन खत्री जी बचपन से ही सैर-सपाटे के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के काम से उन्हे पर्याप्त आय होने के साथ ही साथ उनका सैर-सपाटे का शौक भी पूरा होता रहा। वे लगातार कई-कई दिनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते थे। कालान्तर में जब उनसे जंगलों के ठेके छिन गये तब इन्हीं जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी [[तिलिस्म]] तथा [[ऐयारी]] के कारनामों की कल्पनाओं को मिश्रित कर उन्होंने चन्द्रकान्ता उपन्यास की रचना की।
बाबू देवकीनन्दन खत्री ने जब उपन्यास लिखना शुरू किया था उस जमाने में अधिकतर हिन्दू लोग भी उर्दूदाँ ही थे। ऐसी परिस्थिति में खत्री जी का मुख्य लक्ष्य था ऐसी रचना करना जिससे [[देवनागरी]] हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो। यह उतना आसान कार्य नहीं था। परन्तु उन्होंने ऐसा कर दिखाया। चन्द्रकान्ता उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि जो लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे या उर्दूदाँ थे, उन्होंने केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी। इसी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए दूसरा उपन्यास "[[चन्द्रकान्ता सन्तति]]" लिखा जो "चन्द्रकान्ता" की अपेक्षा कई गुणा रोचक था। इन उपन्यासों को पढ़ते वक्त लोग खाना-पीना भी भूल जाते थे। इन उपन्यासों की भाषा इतनी सरल है कि इन्हें पाँचवीं कक्षा के छात्र भी पढ़ लेते हैं। पहले दो उपन्यासों के २००० पृष्ठ से अधिक होने पर भी एक भी क्षण ऐसा नहीं आता जहाँ पाठक ऊब जाए।
==मुख्य रचनाएँ==
[[चित्र:Durga Prasad Khatri.JPG|thumb|right|250px|[[दुर्गाप्रसाद खत्री]], पुत्र]]
* '''[[चन्द्रकान्ता]]''' (१८८८ - १८९२): चन्द्रकान्ता उपन्यास को पढ़ने के लिये लाखों लोगों ने हिंदी सीखी। यह उपन्यास चार भागों में विभक्त है।
* '''[[चन्द्रकान्ता सन्तति]]''' (१८९४ - १९०४): चन्द्रकान्ता की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित हो कर देवकीनन्दन खत्री जी ने चौबीस भागों वाली विशाल उपन्यास चंद्रकान्ता सन्तति की रचना की। उनका यह उपन्यास भी अत्यन्त लोकप्रिय हुआ।
* '''[[भूतनाथ]]''' (१९०७ - १९१३) (अपूर्ण): चन्द्रकान्ता सन्तति के एक पात्र को नायक का रूप देकर देवकीनन्दन खत्री जी ने इस उपन्यास की रचना की। किन्तु असामायिक मृत्यु के कारण वे इस उपन्यास के केवल छः भागों को लिख पाये उसके बाद के शेष पन्द्रह भागों को उनके पुत्र [[दुर्गाप्रसाद खत्री]] ने लिख कर
=== अन्य रचनाएँ ===
* [[कुसुम कुमारी]]
* [[वीरेन्द्र वीर उर्फ कटोरा भर खून]]
* [[काजर की कोठरी]]
* [[नरेन्द्र मोहिनी]]
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